मुजफ्फरपुर। चैती छठ के अवसर पर रविवार को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य दिया गया। इस दौरान छठ घाटो को दुल्हन की तरह सजाया गया। पोखर, तालाब व कृत्रिम छठ घाटो पर महिलाओ ने पानी मे खड़े हो कर भगवान भाष्कर को अर्घ्य अर्पित किया।इस दौरान बच्चो मे उत्साह दिखा। पटाखे छोड़े व फुलझड़िया उड़ायी। मारवो रे सुगवा धनुष से….छठी मैया अइहे अंगना… गीतो से छठ घाट गूंज उठा। इसके पूर्व छठ व्रतियो ने पवित्र तरीके से पकवान तैयार किया। इसके बाद सिर पर डाला लेकर छठ घाट पहुंचे।
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सीएम का निकाला शव यात्रा
मुजफ्फरपुर। जन अधिकार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सांसद पप्पू यादव के गिरफ्तार से गुस्साए पार्टी नेताओं ने छाता चौक से कल्याणी चौक तक बिहार के सीएम के शव यात्रा निकाला और पुतला दहन किया है।
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लोहा तोड़ती है चूड़ी वाली नरम कलाई से
अहले सुबह हाथ में थाम लेती है हथौड़ा
खुद भट्टी मे़ं तपकर बच्चो के पेट की ज्वाला करती है शांत
मध्य प्रदेश के घूमंतु जातियो ने गंजबाजार पर डाला डेरा
लोहे के कृषि यंत्रो को खुद करते हैं तैयार
संतोष कुमार गुप्ता
वह तोड़ती पत्थर,
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर.
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।सुर्यकांत त्रिपाठी निराला के तोडती पत्थर कविता को मुस्तफागंज बाजार पर मध्य प्रदेश के घूमंतू जाति के महिलाओ ने सच्च साबित कर दिया है। मप्र के विदिशा जिले के सिरौने गांव से आने वाले इन परिवारो की हालत सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। सरकारी सुविधाओ से मरहूम धर्मेंद्र लोहार का परिवार दर दर भटकने को विवश है। धर्मेंद्र लोहार भले ही आर्थिक तंगी व परिवार के समस्याओ के चलते दर दर भटक रहा हो। किंतु इसके कलाकृति के लोग कायल है। धर्मेंद्र पुरा देश भ्रमण करते हुए मुस्तफागंज बाजार पर डेरा डाला है। वह लोहे को तोड़ कर किसानो के लिए यंत्र बनाता है। जहां एक ओर जिलास्तरीय किसान मेले मे स्टॉल पर बड़े बड़े कम्पनी मक्खी मार रहे थे। ठीक उसी समय मुस्तफागंज बाजार के फुटपाथ पर इनके द्वारा तैयार यंत्र खरीदने को मारामारी थी।
पांच बजे सुबह से शाम सात बजे तक हथौड़ा थामती है हीना
मप्र विदिशा के धर्मेंद्र सुबह चार बजे बिछावन छोड़ देता है। वह सुबह मे ही आग की भट्टी तैयार करता है। पांच बजे से उसकी पत्नी हीना बाई घन(बड़ा वाला हथौड़ा) थाम लेती है। दिन मे एक घंटे के मध्यांतर को छोड़ दे तो वह शाम सात बजे तक हथौड़ा चलाती रहती है.वह भट्टी पर तपकर भी गोद का बच्चा अजय दो साल को आंचल मे समेट कर दूध पिलाकर पेट की ज्वाला को शांत करती है.उसका बखूबी साथ उसकी देवरानी कमलाबाई निभाती है। वह चूड़ी वाले नरम कलाई से पसीना बहाकर किसानो के काम आने वाले यंत्र को तैयार करती है। हीना के जेठानी बजरी बाई के फटाफट हथौड़ा चलाने के अंदाज को देख कर दंग रह जायेंगे आप। हालांकि उसको इस बात का कसक है कि आर्थिक तंगी के कारण उसने कुछ वर्ष पूर्व पति को खो दिया है। तीन बच्चो की चिंता हमेशा सताती रहती है। धर्मेंद्र अपना पुरा परिवार लेकर रविवार की शाम मुस्तफागंज बाजार पर पहुंचा है। दस लोग है टीम मे.कोई आग की भट्टी पर तपता है,तो कोई हथौड़ा चलाता है। तो कोई तैयार समान को बेचता है। धूप,ठंड और बारिश मे भी खुले आसमान के नीचे काम करना पड़ता है।
बाजार से कम दाम पर मिलते है खुबसूरत यंत्र
जहां बाजार मे लोहे का तैयार यंत्र चार सौ रूपये किलो मिलता है.वही ये लोग महज दो सौ रूपये किलो खुबसूरत यंत्र बेचते है.हसिया,फसूल,दबिया,हथौड़ा,छेनी,सुम्मा,वसूली,व अन्य यंत्रो को कुछ मिनट मे ही तैयार कर देता है।बिक्री भी खूब हो रही है।इस काम मे धर्मेंद्र के भाई शेर सिंह लोहार व कपिल लोहार भी सहयोग करते है.किंतु धर्मेंद्र को मलाल है कि महगांई के इस दौर मे इतनी मेहनत के बाद भी बड़ी मुश्किल से दाल रोटी का दाम निकल पाता है।
नही मिला सरकारी कोई सुविधा
धर्मेंद्र का परिवार छह माह तक देश के विभिन्न जगहो पर रूक कर परम्पारिक यंत्र तैयार कर बेचता है। छह माह घर पर ही बीतता है.विदिशा मे सरकारी जमीन मे फूस का घर है.सरकारी सुविधा कुछ नही मिला। राशन व किरासन भी नही.खाने से पैसा नही बचता है कि वह बच्चो को पढाये.इतने पैसे नही की जमीन खरीद कर घर बनाये। बस अपना पेशा को आगे बढा रहे है।
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बिहार के बूचड़खानों पर भी गिरी गाज
रोहतास
देश में अब अवैध बूचड़खाना चलाने का जमाना गये दिनो की बात होने वाली है। यूपी में योगी की सरकार ने अवैध बूचड़खानों के खिलाफ अभियान क्या शुरू किया, इसका असर देश के अन्य राज्यो पर भी दिखने लगा है। विशेष कर भाजपा शासित प्रदेशो में। हालांकि, यूपी की तर्ज पर ही बिहार में भी ऐक्शन हुआ है। पटना हाईकोर्ट के आदेश पर रोहतास जिले के सात अवैध बूचड़खानों को सील कर दिया गया है। -
उपद्रवियों ने काटे जम कर बवाल बेबस दिखी पुलिस
बोधगया
बिहार का बोधगया पुलिस और पब्लिक के बीच संघर्ष का गवाह बन गया। शनिवार को करीब पांच घंटे तक पुलिस के अधिकारी उपद्रवियों के आगे बेबस बनी रही। इस दौरान उपद्रवियों ने कई पुलिस अधिकारी को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। उपद्रवियों ने राह चलते महिला यात्रियों से भी दुर्व्यवहार किया गया और इस सब के बीच पुलिस तमाशबीन बनी रही।
हुआ ये कि बोधगया के सर्वोदयपुरी की 17 वर्षीया एक किशोरी से मारपीट व दुष्कर्म की घटना के बिरोध में पूर्व सीएम जीतनराम मांझी के बेटे संतोष कुमार सुमन उर्फ संतोष मांझी दुमुहान में धरना कर रहे थे। इसी बीच करीब 250 युवाओं का एक जत्था धरनास्थल के करीब आया और उपद्रव मचाने लगा।
उपद्रवियों ने सबसे पहले बोधगया ट्रैफिक थाना प्रभारी संजय कुमार की पिटायी कर दी। इसके बाद पुलिस वाले भागने लगे। पुलिस को पीछे हटते देख उपद्रवी बेकाबू होने लगे। इसके बाद इनका तांडव वाहनों पर शुरू हुआ। कई वाहनों में आग लगा दी। करीब पांच घंटे के चली इस हाई वोल्टेज ड्रामा के बाद लॉ एंड ऑर्डर डीएसपी सतीश कुमार की पहल पर मामला शांत हुआ। -
टूटी कुर्सी, कहीं विचारधाराओं में बदलाव का संकेत तो नही?
कौशलेन्द्र झा
मुजपफ्फरपुर। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले, हम भारतवंशियों को आखिर ऐसा क्या हो गया है? क्यों हम अपने ही आचरणों से अपना ही जगहसाई होने के बावजूद गौरवान्वित महसूस करते हैं? महज, एक जीत की जुगत में दूसरो पड़ कुत्सित व अधारहीन लांछन लगाते हैं।
जी हॉ…। मैं बात कर रहा हूं, प्रजातांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन का। मैं बात कर रहा हूं, अपने रहनुमाओं की, जिनका आचरण चुभने लगा है। देश के सबसे निचले सदन… यानी, पंचायत समिति में बैठे हमारे माननीय जब कुर्सी पटकने लगे तो इसे क्या कहेंगे? महज एक घटना या बदलते राजनीति का संकेत?
दरअसल, विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कुर्सी पटकना हमारी राजनीतिक संस्कृति बनती जा रही है। कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के लिए यह पुरानी बातें हैं। वहां अलग अलग परिवेश से जीत कर लोग आते हैं। किंतु, पंचायत समिति में तो हम सभी एक ही समाजिक परिवेश से है। कोई चाचा है तो कोई बहन…। बिहार के मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर प्रखंड मुख्यालय में पंचायत समिति की बैठक के दौरान पिछले दिनो जो हुआ, वह एक ज्वलंत मिशाल है, हमारी समाजिक चेतना के गिरते स्तर का।
बात सिर्फ सदन में कुर्सी पटकने की नही है। बड़ी बात ये है कि क्या सत्ता के मद में हम अपने समाजिक रिश्तो की मर्यादा को भूल गयें हैं? क्या हमारी संस्थाएं, हमारे समाजिक मूल्यों को तार- तार करने को आमदा हो गई है? क्या, बेजान कुर्सी को पटकने से महिला सशक्तिकरण हो जायेगा या महिला की आर में की जा रही राजनीति से समाज के कमजोर तबको का विकास हो जायेगा? या, फिर इसे हम महज एक राजनीति परंपरा के रुप में अब गांव में स्थापित करना चाहतें हैं? सवाल, और भी है…।
दरअसल, हालात निम्नतर होता जा रहा है। समाजिक तानाबाना बिखरने के कगार पड़ है। ऐसे में हम उम्मीद किससे करें? कठपुतली बने प्रशासन से या समाज के कथित प्रबुध्द लोगो से? ऐसे प्रबुध्द लोगो से जो यह मान कर चलते हैं कि यह मेरा काम नही है? दरअसल, आज के मौजू में यह बड़ा सवाल है और हम इसे आपके चिंतनशील विवेक की कसौटी पर छोड़े जाते हैं।