श्रेणी: KKN Special

  • अगर रामायण की घटनाएं आज होतीं तो कैसी होती खबरें?

    अगर रामायण की घटनाएं आज होतीं तो कैसी होती खबरें?

    KKN न्यूज ब्यूरो। धार्मिक ग्रंथ रामायण का हर प्रसंग हमें जीवन के महत्वपूर्ण संदेश देता है। लेकिन कल्पना करें कि अगर रामायण की घटनाएं आधुनिक समय में होतीं, तो मीडिया की सुर्खियों और सोशल मीडिया पर कैसी चर्चा होती? आइए, एक नजर डालते हैं कि कैसे रामायण के ऐतिहासिक प्रसंग आज के दौर की खबरों में बदल जाते।

    श्रवण कुमार की हत्या: राजा दशरथ के खिलाफ FIR दर्ज

    अगर श्रवण कुमार की हत्या आज के दौर में होती, तो शायद Breaking News कुछ इस तरह आती: अयोध्या के राजा दशरथ पर श्रवण कुमार की हत्या का आरोप, पुलिस ने दर्ज की FIR

    इस मामले में सोशल मीडिया पर #JusticeForShravan ट्रेंड कर रहा होता। लोग राजा दशरथ की आलोचना करते और यह बहस शुरू हो जाती कि क्या राजा का यह कृत्य माफ करने योग्य है। वहीं, विपक्षी पार्टियां अयोध्या की सड़कों पर प्रदर्शन कर रही होतीं।

    अयोध्या के राजपाठ पर राजा-रानी में विवाद

    राजा दशरथ द्वारा अपने बेटे राम को वनवास भेजने के फैसले पर रानी कैकयी का दबाव आज की हेडलाइंस बनता। खबर कुछ ऐसी होती: राजा दशरथ ने रानी कैकयी के दबाव में राम को दिया वनवास, राजमहल का कलह उजागर।”

    टीवी चैनलों पर विशेषज्ञ इस विवाद को राजनीतिक नजरिए से जोड़ते। कुछ लोग राम के समर्थन में धरना देते और कैकयी को ट्विटर पर ट्रोल किया जाता।

    केवट ने श्रीराम के चरण धोए: धार्मिक और राजनीतिक बवाल

    श्रीराम के वनवास के दौरान केवट द्वारा उनका चरण धोना आज विवादों का केंद्र बन जाता। मीडिया की सुर्खियां होतीं: अयोध्या के मनुवादी राज कुमार राम ने धुलवाये चरण, पिछड़ो का हुआ अपमान।”

    इस घटना पर धार्मिक और राजनीतिक बहस छिड़ जाती। सोशल मीडिया पर #RespectKewat और #RamayanaEquality ट्रेंड करता। कई पार्टियां समाजिक भेदभाव का आरोप लगा कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकतीं।

    सूपर्णखा की नाक कटाई: महिला आयोग का विरोध प्रदर्शन

    अगर आज सूपर्णखा की नाक काटने की घटना होती, तो महिला अधिकार संगठनों का विरोध प्रदर्शन जोरों पर होता। मीडिया रिपोर्ट्स कहतीं:
    सूपर्णखा की नाक कटाई का मामला गरमाया, महिला आयोग शख्त।”

    महिला आयोग और सोशल मीडिया पर इसे लेकर बड़े स्तर पर अभियान चलाए जाते। हैशटैग #JusticeForSoorpanakha ट्रेंड करता। लोग सवाल उठाते कि किसी महिला के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया।

    बाली वध पर श्रीराम पर लगे आरोप

    श्रीराम द्वारा बाली का वध आज के दौर में एक विवादित मुद्दा बन जाता। खबर कुछ ऐसी होती:
    श्रीराम पर बाली की हत्या का आरोप, CBI से  जांच की मांग।”

    टीवी चैनलों पर डिबेट होती कि क्या श्रीराम ने छुपकर तीर चलाकर बाली का वध करना सही था? सोशल मीडिया पर लोग पक्ष-विपक्ष में खेमे बना लेते। वहीं, विरोधी पार्टियां राम की नीतियों पर सवाल खड़े करतीं।

    इंद्रजीत ने बाली पर मुकदमा दर्ज कराया

    रावण के पुत्र इंद्रजीत द्वारा बाली पर मुकदमा दायर करना आज के समय में सुर्खियां बनता। खबर होती:
    रावण को अपनी काख में घुमाने के आरोप में बाली पर मुकदमा दर्ज।”

    इस खबर पर लोग तरह-तरह की टिप्पणियां करते। न्यूज चैनलों पर इसे “सत्ता और शक्ति का दुरुपयोग” करार देता।

    सीता हरण: रावण पर लगे गंभीर आरोप

    सीता हरण के मामले में रावण आज का सबसे बड़ा खलनायक बनता। हेडलाइंस होतीं:
    लंका के राजा रावण पर सीता के अपहरण का आरोप, लोगों में आक्रोश।”

    सोशल मीडिया पर #SaveSita और #JusticeForSita ट्रेंड करता। लोग रावण की गिरफ्तारी की मांग करते और यह घटना एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जाती।

    लक्ष्मण रेखा विवाद

    लक्ष्मण रेखा की घटना आज के समय में एक बड़े डिबेट का हिस्सा बनती। हेडलाइन होती:
    सीता ने क्यों पार की लक्ष्मण रेखा? जानिए विशेषज्ञों की राय।”

    लोग लक्ष्मण के फैसले पर सवाल उठाते और इसे पितृसत्तात्मक सोच से जोड़ते। महिला अधिकार संगठनों का कहना होता कि लक्ष्मण ने सीता की स्वतंत्रता को सीमित किया।

    हनुमान का लंका दहन: पर्यावरणविदों की प्रतिक्रिया

    हनुमान द्वारा लंका को जलाना आज के पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय बनता। खबर होती:
    हनुमान के लंका दहन पर पर्यावरणविदों ने जताई चिंता, कहा- वनों की क्षति गंभीर।”

    इस घटना को पर्यावरण के खिलाफ अपराध करार दिया जाता और सोशल मीडिया पर #SaveNature ट्रेंड करता।

    राम सेतु: विवादों का केंद्र

    अगर आज राम सेतु का निर्माण होता, तो यह पर्यावरण, धार्मिक और राजनीतिक बहस का मुद्दा बनता। हेडलाइंस होतीं:
    राम सेतु निर्माण : पर्यावरण पर प्रभाव को लेकर बढ़ा विवाद।”

    सुप्रीम कोर्ट तक मामले की सुनवाई होती और धार्मिक भावनाओं और पर्यावरण संरक्षण के बीच बहस छिड़ जाती।

    रावण वध: मानवाधिकार का मुद्दा

    रावण वध की घटना आज के दौर में मानवाधिकार का मुद्दा बनती। खबर कुछ इस तरह होती:
    लंका के राजा रावण की हत्या पर मानवाधिकार आयोग का कड़ा रुख।”

    रावण समर्थकों और विरोधियों के बीच सोशल मीडिया पर बहस होती। लोग राम के इस कदम को नैतिकता और धर्म के नजरिए से तौलते।

    रामराज्य: एक राजनीतिक मॉडल

    रामराज्य को आज के राजनीतिक परिपेक्ष्य में देखा जाता। राजनीतिक दल इसे अपने घोषणापत्र में शामिल करते। हेडलाइंस होतीं:
    रामराज्य मॉडल को लेकर सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों में टकराव।”

    विपक्षी दल इसे “यूटोपिया” करार देते, जबकि सत्ताधारी इसे आदर्श शासन का प्रतीक बताते।

    जब पुरातन और आधुनिकता टकराते हैं

    अगर रामायण की घटनाएं आज के समय में होतीं, तो ये घटनाएं धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बहस का केंद्र बन जातीं। मीडिया और सोशल मीडिया इन घटनाओं को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करता।

    धार्मिक ग्रंथों से हमें सीख लेनी चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए। लेकिन आधुनिक नजरिए से इन्हें देखने की कल्पना अपने आप में दिलचस्प और विचारणीय है। रामायण के ये प्रसंग हमें सिखाते हैं कि हर युग में नैतिकता और कर्तव्य का अपना महत्व होता है। आप एक युग की घटना को दूसरे युग में बैठ कर जब बिना सिर पैर के समीक्षा करेंगे तो ऐसे अनेक भ्रांतियां मस्तिष्क में हिलोरे मार रही होगी।

  • गुरु रविदास: समाज सुधार और आध्यात्मिकता के प्रतीक

    गुरु रविदास: समाज सुधार और आध्यात्मिकता के प्रतीक

    KKN न्यूज ब्यूरो। हर साल माघ पूर्णिमा के दिन गुरु रविदास जयंती (Guru Ravidas Jayanti 2025) बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन समाज के प्रति उनके योगदान और उनके अनमोल विचारों को याद किया जाता है। गुरु रविदास एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु और समाज सुधारक थे, जिन्होंने असमानता और जातिवाद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। उनके विचार और शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और लोगों को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं।

    गुरु रविदास का जन्म और प्रारंभिक जीवन

    गुरु रविदास जी का जन्म 1377 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में माघ पूर्णिमा के शुभ दिन पर हुआ था। उनके पिता जूते बनाने का काम करते थे, और इसी व्यवसाय में उन्होंने भी अपने प्रारंभिक जीवन के दिन बिताए। हालांकि, साधारण पृष्ठभूमि से होने के बावजूद गुरु रविदास जी ने शिक्षा और ज्ञान के महत्व को समझा और इसे अपने जीवन का आधार बनाया।

    समाज सुधार में योगदान

    गुरु रविदास जी ने समाज में व्याप्त असमानता, जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने अपने विचारों और कार्यों के माध्यम से लोगों को समानता, सद्भाव और भाईचारे का संदेश दिया। उनका मानना था कि हर व्यक्ति समान है और कोई भी जाति या धर्म से छोटा-बड़ा नहीं होता, बल्कि व्यक्ति के कर्म ही उसे महान बनाते हैं।

    उनके अनुसार, ईश्वर हर उस व्यक्ति के ह्रदय में निवास करते हैं, जहां लालच, द्वेष और बैर भाव नहीं होता। गुरु रविदास जी ने अपने अनुयायियों को सतभक्ति का महत्व समझाया और यह संदेश दिया कि भक्ति और सेवा ही सच्चा धर्म है।

    गुरु रविदास और भक्ति आंदोलन

    गुरु रविदास जी ने भक्ति आंदोलन में भाग लेकर इसे एक नई दिशा दी। उनके विचार और भजन समाज के हर वर्ग में समान रूप से लोकप्रिय हुए। उनकी शिक्षाओं ने न केवल हिंदू धर्म बल्कि सिख धर्म पर भी गहरा प्रभाव डाला। उनका नाम सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ “गुरु ग्रंथ साहिब” में भी दर्ज है।

    गुरु रविदास के संघर्ष और प्रसिद्धि

    गुरु रविदास जी को अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। एक समय ऐसा भी आया जब उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। इसके बाद, उन्होंने एक छोटी सी कुटिया में रहकर साधु-संतों की सेवा की और अपना जीवन सत भक्ति में समर्पित कर दिया।

    समय के साथ उनके विचार और शिक्षाएं अधिक से अधिक लोगों तक पहुंची, और उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। धीरे-धीरे वे शिरोमणि संत के रूप में प्रसिद्ध हुए।

    गुरु रविदास के अनमोल विचार

    गुरु रविदास जी के विचार उनके अनुयायियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनके कुछ मुख्य विचार इस प्रकार हैं:

    1. ईश्वर वहां वास करते हैं, जहां बैर, द्वेष और लालच नहीं होता।
    2. कोई व्यक्ति जन्म से छोटा या बड़ा नहीं होता, बल्कि उसके कर्म उसे महान बनाते हैं।
    3. सभी मनुष्य समान हैं और हमें जात-पात के भेदभाव से ऊपर उठकर जीवन जीना चाहिए।

    गुरु रविदास जयंती का महत्व

    गुरु रविदास जयंती पर उनके अनुयायी उनकी शिक्षाओं को याद करते हैं और उन्हें अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करते हैं। इस दिन को खास बनाने के लिए लोग उनकी पूजा करते हैं, उनके भजनों का पाठ करते हैं और सामूहिक रूप से उनकी शिक्षाओं पर चर्चा करते हैं।

    गुरु रविदास जयंती के दिन वाराणसी और पंजाब जैसे स्थानों पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों में उनकी जीवन गाथा को प्रस्तुत किया जाता है और उनके योगदान को सम्मानित किया जाता है।

    गुरु रविदास का संदेश आज के समाज के लिए

    आज के समय में जब समाज जातिवाद, असमानता और भेदभाव की समस्याओं से जूझ रहा है, गुरु रविदास जी के विचार और शिक्षाएं पहले से भी अधिक महत्वपूर्ण हो गई हैं। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सही दिशा में किए गए प्रयास न केवल समाज में बदलाव ला सकते हैं, बल्कि एक बेहतर भविष्य का निर्माण भी कर सकते हैं।

    एक संत जो समाज सुधारक था

    गुरु रविदास जी न केवल एक संत थे, बल्कि एक समाज सुधारक और आध्यात्मिकता के प्रतीक भी थे। उनका जीवन और उनके विचार आज भी समाज को प्रेरित करते हैं। उनकी शिक्षाएं यह सिखाती हैं कि हर व्यक्ति समान है और हमें हमेशा दूसरों के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखना चाहिए। गुरु रविदास जयंती के अवसर पर हमें उनके संदेश को समझने और अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेना चाहिए।

    Guru Ravidas Jayanti सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि समानता, भक्ति और मानवता का उत्सव है। आइए, हम इस दिन उनके विचारों को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं और समाज को बेहतर बनाने में अपना योगदान दें।

  • कौन थे कनकलता बरुआ और गुरुजी – “भारत छोड़ो आंदोलन” की अनसुनी दास्तान

    कौन थे कनकलता बरुआ और गुरुजी – “भारत छोड़ो आंदोलन” की अनसुनी दास्तान

    8 अगस्त 1942, मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो’ के नारे से ब्रितानी हुकूमत की चूलें हिल गईं। इस वीडियो में जानिए कैसे इस ऐतिहासिक आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को निर्णायक मोड़ पर पहुंचाया। आंदोलन के महत्वपूर्ण पहलुओं, नेताओँ और गुमनाम नायकों की कहानियाँ, और उनकी अनसुनी कहानियाँ सुनें। कमेंट करके अपनी राय जरूर दें।

     

  • रेजांगला का युद्ध और चीन की हकीकत

    रेजांगला का युद्ध और चीन की हकीकत

    KKN न्यूज ब्यूरो। वर्ष 1962 के युद्ध की कई बातें है, जिसको समझना जरूरी है। बेशक हम चीन से युद्ध हार गए थे। चीन ने हमारे 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया था। पर, क्या 62 के युद्ध की सिर्फ इतनी सी हकीकत है? क्या कभी आपके मन में यह सवाल उठा कि हम हारे कैसे? क्या हुआ होगा सीमा पर? हमारे बहादुर और जांबाज सैनिकों को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला भी या नहीं? ऐसे और भी कई सवाल है। इसका जवाब तलाशने के लिए 62 के युद्ध से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन जरूरी हो गया है।

    चीन का हमला

    बात 18 नवंबर, वर्ष 1962 की है। लद्दाख के चुशुल घाटी में सुबह की सूरज निकलने से ठीक पहले घना कोहरा के साथ अंधेरा अभी ठीक से छठा भी नहीं था। चारों ओर बर्फ से ढकी घाटी और फिंजा में पसरी अजीब सी खामोशी। इसी खामोशी के बीच रेजांगला पोस्ट की रक्षा में तैनात था भारतीय फौज की छोटी टुकड़ी। खामोशी के उस पार बैठे खतरे को भारत के जवान ठीक से पहचान पाते। इससे पहले सुबह के ठीक साढ़े तीन बजे… घाटी का शांत माहौल अचानक गोलियों की तड़-तड़ाहट से गूंजने लगा। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी PLA के करीब तीन हजार जवानों ने रेजांगला पोस्ट पर धावा बोल दिया। चीन के सैनिकों के पास भारी मात्रा में गोला-बारूद था। सेमी आटोमेटिक रायफल था और आर्टिलरी सपोट भी था।

    भारत की छोटी टुकड़ी

    भारत की ओर से मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में चुशुल घाटी में 13 कुमाऊं रेजिमेंट की एक बेहद छोटी टुकड़ी मौजूद थीं। भारतीय सैन्य टुकड़ी में मात्र 120 जवान थे। वह भी थ्री-नॉट-थ्री रायफल के सहारे। थ्री-नॉट-थ्री रायफल को फायर करने से पहले प्रत्येक गोली लोड करना पड़ता था और खोखा को खींच कर निकालना पड़ता था। भारतीय सैनिक को उस वक्त यहां कोई आर्टिलरी सपोर्ट भी नहीं था। ऐसे में चीन के तीन हजार की विशाल फौज और जवाब में भारत के मात्र 120 जवान…। वह भी थ्री-नॉट-थ्री रायफल के सहारे। दूसरी ओर चीन के पास आधुनिक हथियारों का जखीरा मौजूद था। चुशुल घाटी की खतरनाक चोटियों पर उस वक्त भारत की ओर से आर्टिलरी का सपोर्ट भेजना मुमकिन नहीं था। क्योंकि, भारत की ओर से वहां तक रास्ता नहीं था।

    टूट गया रेडियो संपर्क

    इधर, सेंट्रल कमान ने  रेजांगला के जवानो को उनके अपने विवेक पर छोड़ दिया। जरूरत पड़ने पर पोस्ट छोर कर पीछे हटने का आदेश भी था। किसी को उम्मीद नहीं थीं कि चीन की सेना रेजांगला में इतना जबरदस्त हमला कर देगा। ऐसे में रेजांगला के पोस्ट पर मौजूद मेजर शैतान सिंह को निर्णय लेना था। बताते चलें कि खराब मौसम की वजह से रेजांगला में मौजूद सैनिको का अपने बेस कैंप से रेडियो संपर्क टूट चुका था। इस बीच मेजर शैतान सिंह ने पोस्ट पर डटे रहने और पोस्ट की रक्षा करने का निर्णय कर लिया। फिर जो हुआ, वह कल्पना से परे है। बेशक हमारे सैनिक कम थे, साजो-सामान का घोर अभाव था। किंतु, उनके बुलन्द हौसलों की दास्तान इतिहास में दर्ज होने वाला था। कुमाउं रेजिमेंट के इन वीर जाबांजो को अंजाम पता था। वह जान रहे थे कि युद्ध में उनकी हार तय है। लेकिन इसके बावजूद बेमिसाल बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने अपने बेमिसाल शौर्य का प्रदर्शन करना मुनासिब समझा। मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी ने आखिरी आदमी, आखिरी राउंड और आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ने का हुंकार भर दिया।

    दो घंटे की निर्णायक युद्ध

    13 कुमाऊं के 120 जवानों ने युद्ध के पहले दो घंटे में ही चीन के 1,300 सैनिकों को मार गिराये। बाकी के चीनी सैनिक भारतीय पराक्रम के सामने टिक नहीं पाये और मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए। तीन- तीन गोली लगने के बाद भी मेजर शैतान सिंह ने पोस्ट नहीं छोरा। हालांकि, बाद में वे शहीद हो गये। इस लड़ाई में भारत के 117 सैनिक शहीद हुए और बंदी बने एक सैनिक भी चीन की सरहद को पार करके भागने में कामयाब हो गया था। मेजर शैतान सिंह को मरनो-परान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। बाद में कुमाउं रेजिमेंट के इस सैन्य टुकड़ी को पांच वीर चक्र और चार सेना पदक से सम्मानित किया गया। सैन्य इतिहास में किसी एक बटालियन को एक साथ बहादुरी के इतने पदक पहले कभी नहीं मिला था।

    सिपाही की दास्तान

    रेजांगला के उस युद्ध में जिन्दा बचे रामचन्द्र यादव को बाद में मानद कैप्टन की उपाधि दी गई। बतादें कि रामचंद्र यादव 19 नवंबर को कमान मुख्यालय पहुंचे थे। इसके बाद 22 नवंबर तक उनको जम्मू के एक आर्मी हॉस्पिटल में रखा गया। रामचन्द्र यादव ने अपने सैनिक अधिकारियों को युद्ध की जो कहानी बताई। दरअसल, वह रोंगटे खड़ी करने वाला है। रामचन्द्र यादव ने बताया कि मेजर शैतान के आदेश पर वे इस लिए जिन्दा बचे, ताकि पूरे देश को 120 जवानों की वीरगाथा का पता चल सके। उनके मुताबिक युद्ध के दौरान चीन की सेना दो बार पीछे हटी और री-इनफ्रोर्समेंट के साथ फिर से धावा बोल दिया। शुरू में चीन की ओर से काफी उग्र हमला हुआ था। किंतु, भारत की ओर से की गई जवाबी फायरिंग से चीन के सैनिकों की हिम्मत टूट गई। वे पीछे हटे और दुबारा हमला किया। इधर, भारतीय सैनिकों का गोला-बारूद खत्म होने लगा था।

    पटक- पटक कर मारा

    मेजर शैतान सिंह ने बैनेट के सहारे और खाली हाथों से युद्ध लड़ने का फैसला कर लिया था। उस वक्त वहां एक सिपाही मौजूद था। उसका नाम राम सिंह था। दरअसल, वह रेसलर रह चुका था। मेजर शैतान सिंह से आदेश मिलते ही सिपाही राम सिंह दुश्मन पर टूट पड़ा। उसने एक साथ दो-दो चीनी सैनिक को पकड़ा और उसका सिर आपस में टकरा कर दोनों को एक साथ मौत के घाट उतारने लगा। राम सिंह ने आधा दर्जन से अधिक चीनी सैनिकों को थोड़ी देर में ही मौत के घाट उतार दिया। इस बीच चीन के एक सैनिक ने राम सिंह के सिर में गोली मार दी। शहीद होने से पहले रमा सिंह के रौद्र रूप को देख कर चीनी खेमा में हड़कंप मच गया था।

    रेजांगला शौर्य दिवस

    13 कुमाऊं के यह सभी 120 जवान दक्षिण हरियाणा के रहने वाले थे। इनमें से अधिकांश गुड़गांव, रेवाड़ी, नरनौल और महेंद्रगढ़ जिला के थे। रेवाड़ी और गुड़गांव में रेजांगला के वीरों की याद में भव्य स्मारक आज भी मौजूद है। इतना ही नहीं बल्कि, रेवाड़ी में हर साल रेजांगला शौर्य दिवस मनाया जाता है। यह बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। किंतु देश के अधिकांश लोग रेजांगला के इन बहादुर सैनिक और उनके कारनामों को ठीक से नहीं जानते हैं।

    चुशुल घाटी में है रेजांगला

    पहाड़ की बिहरो में हुई इस युद्ध को रेजांगला का युद्ध क्यों कहा जाता है? दरअसल, लद्दाख के चुशुल घाटी में एक पहाड़ी दर्रा है। इसको स्थानीय लोग रेजांगला का दर्रा बोलते है। चूंकि, इसी दर्रा के समीप वर्ष 1962 में 13 कुमाउं का अंतिम दस्ता मौजूद था और इसी के समीप यह भीषण युद्ध हुआ था। लिहाजा, इसको रेजांगला का युद्ध कहा जाने लगा। लद्दाख की दुर्गम बर्फीली चोटी पर चीनी सेना के साथ हुए रेजांगला युद्ध की गौरव गाथा अद्वितीय है।

    चीन का धोखा

    रेजांगला का यह युद्ध 18 नवम्बर की सुबह में शुरू हुई थीं। किंतु, भारतीय सेना के सामने परीक्षा की घड़ी 17 नवंबर की रात में ही शुरू हो चुकीं थीं। दरअसल, 17 नवम्बर की रात इस इलाके में जबरदस्त बर्फिला तूफान आई थी। इस तूफान के कारण रेजांगला की बर्फीली चोटी पर मोर्चा संभाल रहे भारतीय जवानों का संपर्क अपने बटालियन मुख्यालय से टूट चुका था। तेज बर्फीले तूफान के बीच 18 नवम्बर की सुबह साढ़े 3 बजे चीनी सैनिक इलाके में घुस चुके थे। अंधेरे में हमारे बहादुर सैनिकों ने चीनी टुकड़ी पर फायर झोक दिया। करीब एक घंटे के बाद पता चला है कि चीनियों ने याक के गले में लालटेन लटका कर हमारे सैनिक को चकमा देने का काम किया है। दरअसल, चीनी सैनिक उस बेजबान जानवर को ढाल बना कर पीछे से भारतीय फौज पर हमला कर रहे थे।

    झुंड में किया हमला

    सुबह करीब 5 बजे में मौसम थोड़ा ठीक होते ही भारत के सैनिक इस चाल को समझ गए। हालांकि, उन्हें सम्भलने का मौका मिलता, इससे पहले ही चीनी सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी सामने आ गई और झुंड में हमला करना शुरू कर दिया। हालांकि, भारत के जवाबी फायरिंग के सामने वे टिक नहीं सके। पीछे हटे और थोड़ी देर बाद दुबारा से हमला कर दिया।

    पराक्रम पर मुहर

    सुबह के करीब 8 बजने को था। भारतीय सेना के पास गोली नहीं बचा था। बावजूद इसके हमारे बहादुर सैनिको ने हार नहीं मानी। लड़ाई जारी रहा। बैनेट से लड़े। खुले हाथों से लड़े। उन्हीं का बन्दूक छिन कर उन्हीं से लड़े। तबतक लड़ते रहे, जबतक शहीद नहीं हो गये। कहतें हैं कि इस लड़ाई में चीन का इतना जबरदस्त नुकसान हो गया कि चीन के सैनिक रेजांगला से एक कदम भी आगे बढ़ नहीं पाया। चीन को यह करारी शिकश्त शायद आज भी याद हो। यह सच है कि 62 में रेजांगला का युद्ध हम हार गये। पर, इससे भी बड़ा सच ये है कि चीन के दिलों दिमाग पर भारतीय पराक्रम का मुहर भी लगा गये।

  • प्रार्थना पर प्रहार क्यों

    प्रार्थना पर प्रहार क्यों

    तेज आवाज की चपेट में है गांव

    KKN न्यूज ब्यूरो। चार रोज से चल रहा लोकआस्था का महापर्व संपन्न हो गया। पर्व के अंतिम रोज सोमवार की सुबह गांव में ध्वनि प्रदूषण का स्तर 60 डेसिवल और एअर इंडेक्स 210 बता रहा था। जबकि, पर्व से ठीक पहले और बाद में ध्वनि का स्तर करीब 40 डेसिवल और एअर इंडेक्स 170 के आसपास था। यह स्थिति करीब- करीब सभी गांवों का एक जैसा ही है।

    सवाल उठता है कि जो पर्व बेहतर स्वास्थ्य के लिए बनाया गया था। उसको हमने इतना खतरनाक क्यों बना दिया? पूजा का मतलब शांति से होता है। ऐसे में पूजा के मौके पर लाउडस्पीकर और डीजे बजाने का बढ़ता प्रचलन कितना उचित है? मानव के शरीर पर होने वाले इसके खतरनाक दुष्परिणाम से लोग अनजान क्यों है? यदि लोगो को इसकी जानकारी नहीं है, तो जागरूक करने वाली संस्था चुप क्यों है? सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों की जिम्मेदारी कौन तय करेगा? ऐसे और भी कई सवाल है, जो पर्व के दिनों में अकसर मुंह खोले खुलेआम जीवन पर संकट बन कर खड़ा हो जाता है। बड़ा सवाल ये कि गांव की शांति कहां चली गई?

    इनदिनों गांव में देर रात तक लाउडस्पीकर और डीजे बजाने का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। मौका या बेमौका तेज आवाज से गांव में बच्चों की पढ़ाई और रोजमर्रा का कामकाज बुरी तरीके से प्रभावित हो रहा है। नींद नहीं आने या कम सोने की वजह से लोग चिर- चिरे हो रहें हैं। लोग तनाव की वजह से बीपी की चपेट में आने लगें हैं। अनजाने में कुछ लोगों की गलती का खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ रहा है। सार्वजनिक समारोह के दौरान यह समस्या बेहद ही खतरनाक स्तर को पार कर जाती है। क्या हम बिना लाउडस्पीकर के पर्व या समारोह नहीं कर सकते हैं? यह बड़ा सवाल है और इस पर गंभीरता से विचार करने का वक्त आ गया है।

  • महापर्व छठ का खगोलीय महत्व

    महापर्व छठ का खगोलीय महत्व

    KKN न्यूज ब्यूरो। लोक आस्था का महापर्व छठ कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। यह एक खगोलीय घटना है। इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। सूर्य के पराबैगनी किरण के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा के लिए इस पर्व को मनाने की परंपरा रही है।

    आयन मंडल

    सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। सूर्य का प्रकाश, जब पृथ्वी पर पहुंचता है, तो यहां इसको पहला वायुमंडल मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयन मंडल मिलता है। पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है।

    पराबैगनी किरण

    सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्य या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है। अत: सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। अपितु, इससे वायुमंडल की हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं और इससे जीवन को लाभ होता है। किंतु, छठ के रोज खगोलीय कारणो से चंद्रमा और पृथ्वी पर सूर्य की पराबैगनी किरणो का कुछ अंश चंद्र की सतह से परावर्तित तथा कुछ अपवर्तित होती हुई पहुंचती है। कभी कभी यह पृथ्वी तक सामान्य से अधिक मात्रा में पहुंच जाती हैं। सूर्यास्त तथा सूर्योदय के वक्त यह और भी सघन हो जाती है।

    साल में दो बार

    ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है। यह घटना वर्ष में दो बार होता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। लिहाजा छठ भी वर्ष में दो बार मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिक छठ कहा जाता है।

    उषा और प्रत्यूषा

    धर्मग्रंथो में सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना की जाती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।

    वैदिक काल

    भारत में सूर्योपासना का यह महापर्व ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण और ब्रह्म वैवर्त पुराण में विस्तार से की मिलता है। मध्य काल में सूर्योपासना का यह पर्व लोक आस्था का रूप लेने लगा था। देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् एवं आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से की गई है। उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी थी। यही आस्था, कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। इसी कालखंड में अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाये गये।

    आरोग्य का देवता

    पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता माना जाता था। कहतें हैं कि सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी जाती है। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में वर्ष में दो बार इसका विशेष प्रभाव बताया है। सम्भवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही होगी।

    षष्ठी का अपभ्रंश है छठ

    सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों मनाया जाता है। प्रायः हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते हैं। धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो चुका है। नहाय-खाय से आरंभ हो कर चार रोज तक चलने वाले इस महापर्व का समापन उषा अर्ध्य के साथ होता है। इस बीच दूसरे रोज छठब्रती के द्वारा खरना और तीसरे रोज संध्या अर्ध्य का उपासना होता है। छठ पर्व, षष्ठी का अपभ्रंश है। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है।

    कर्ण का अर्घदान

    कथाओं के मुताबिक भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गयी, जिसके लिए शाक्य द्वीप से जानकार ब्राह्मणों को बुलाया गया था। एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। एक अन्य मान्यता के अनुसार आधुनिक छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की थी और अर्घदान किया था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की पद्धति प्रचलित है।

  • इलाहाबाद क्यों गये थे चन्द्रशेखर आजाद

    इलाहाबाद क्यों गये थे चन्द्रशेखर आजाद

    KKN न्यूज ब्यूरो। बात वर्ष 1920 की है। अंग्रेजो के खिलाफ सड़क पर खुलेआम प्रदर्शन कर रहे एक 14 साल उम्र के किशोर को पुलिस अधिकारी 15 कोड़े मार कर छोड़ देने का आदेश देते हैं। दरअसल, यही से शुरू होता है असली कहानी। कोड़े मारने से पहले अंग्रेज का एक अधिकारी उस किशोर से पूछता है- तुम्हारा नाम क्या है? जवाब मिला- आजाद…। तुम्हारे बाप का नाम क्या है? जवाब मिला- स्वतंत्रता…। अंग्रेज अधिकारी ने पूछा- घर का पता बताओं? उस किशोर ने बिना डरे कहा- जेल…। जवाब सुन कर अंग्रेज अधिकारी चौक गये थे। बात यहीं नही रुकी। बल्कि, जब सिपाहियों ने कोड़े मारने शुरू किए। तब प्रत्येक कोड़े पर वह चिल्लाने की जगह। भारत माता की जय… बोलने लगा।

    मुझे छोड़ कर गलती कर रहे हो

    कहतें है कि कोड़े मारने का यह सिलसिला तबतक चला, जबतक वह किशोर बेहोश नहीं हो गया। कुछ घंटो के बाद जब किशोर को होश आया। तब अंग्रेज अधिकारी ने उसको रिहा कर दिया। अब उस किशोर की हिम्मत देखिए। जाने से पहले वह अंग्रेज अधिकारी के सामने खड़ा होकर मुस्कुराने लगा। जब अधिकारी ने मुस्कुराने की वजह पूछी। तो उसका जवाब था- मुझे छोड़ कर बड़ी गलती कर रहे हो…। कयोंकि, आज के बाद तुम लोग मुझे कभी पकड़ नही पाओगे। अंग्रेज अधिकारी ने किशोर की कही बातों को गंभीरता से नही लिया। पर, यह बात आगे चल कर बाकई सच साबित हो गया और आगे चल कर वह किशोर कभी अंग्रेजो की पकड़ में नही आया।

    देश के लिए दिया प्राणो की आहूति

    दरअसल, यही वो लड़का था। जो, आगे चल कर चन्द्रशेखर आजाद के नाम से जाना गया। चन्द्रशेखर आजाद एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने आजादी की खातिर युवा अवस्था में अपने प्राणो की आहूति दे दी। वे अक्सर कहा करते थे- “मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा”। उनकी यह कथन भी सच साबित हो गया। मात्र 24 साल की उम्र में अंग्रेजो से लड़ते हुए वे खुद की गोली से शहीद हो गए। पर, जिन्दा रहते हुए कभी पकड़े नहीं गए। कहतें है कि यह वो उम्र है, जब युवा पीढ़ी अपनी जिंदगी के सपने देखती है। उसको पूरा करने की हसरत लिए कोशिश करती है। ठीक उसी उम्र में देश की खातिर निस्वार्थ भाव से शहीद होना। मामुली घटना नही है।

    क्यों चुनी क्रांति की कठिन राह

    कहतें है कि असयोग आंदोलन में प्रदर्शन करते हुए नन्हे चन्द्रशेखर को अंग्रेजो से कोड़े की मार पड़ी थी। उसी आंदोलन को सन 1922 में महात्मा गांधी ने अचानक स्थगित कर दिया था। इस घटना का चन्द्रशेखर आजाद के बाल मन पर गहरा असर पड़ा और चन्द्रशेखर आजाद ने महात्मा गांधी से अलग होकर क्रान्तिकारी विचारधारा की ओर मुड़ गये। उन्होंने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ से जुड़ कर आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उनदिनो महान क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल इसके सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। इसके अतिरिक्त शचीन्द्रनाथ सन्याल और योगेशचन्द्र चटर्जी सरीखे क्रांतिकारी इस संगठन के सदस्य हुआ करते थे।

    काकोरी के बाद आजाद को मिला कमान

    काकोरी कांड के आरोप में वर्ष 1927 में जब इनमें से कई क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। तब, चन्द्रशेखर आजाद ने इसका कमान अपने हाथो में ले लिया। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद ने पहली बार उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारियों को एक जुट करके ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ का गठन किया था। बाद में भगत सिंह भी इस संगठन से जुडे और अंग्रेज अधिकारी सांण्डर्स की हत्या करके लाहौर में हुई लाला लाजपत राय के मौत का बदला लिया था। कहतें है कि दिल्ली के असेम्बली बम काण्ड के बाद यह संगठन काफी चर्चा में आ गया था।

    काकोरी की है दिलचस्प कहानी

    काकोरी कांड की दिलचस्प कहानी है। कहतें है कि 9 अगस्त 1925 को काकोरी में ट्रेन रोक कर सरकारी खजाना लूटा गया था। किंतु, इससे पहले शाहजहां पुर में चन्द्रशेखर आजाद ने मीटिंग बुलायी थीं। अशफाक उल्ला खां ने इसका विरोध किया था। बावजूद इसके धन जुटाने के लिए काकोरी कांड को अंजाम दिया गया। हालांकि, क्रांतिकारियों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेज अधिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद को नहीं पकड़ सके। पर, काकोरी के आरोपी पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रौशन सिंह को अंग्रेजो ने 19 दिसम्बर 1927 को फांसी पर चढ़ा दिया था। इसके मात्र दो रोज पहले ही राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को अंग्रेजो ने फांसी पर लटका दिया था।

    साधु के भेष में कांतिकारियों को एकजुट किया

    लाख कोशिशों के बाद भी चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजो के हाथ नही आ रहे थे। कहतें हैं कि काकोरी काण्ड के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने साधु का भेष धारण कर लिया था। साधु के बन कर चन्द्रशेखर आजाद गाजीपुर पहुच गए और वहां एक मठ में रह कर यही से आंदोलन का संचालन करने लगे थे। अपने चार बहादुर साथी के फांसी और 16 को कैद की सजा होने के बाद भी चन्द्रशेखर आजाद का हौसला कमजोर नहीं हुआ था। उन्होंने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र करके 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा करके अंग्रेजो को चकमा दे दिया। इसी सभा में यह तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारियों को एकजुट होना चाहिए और ऐसा हुआ भी। इसी सभा में चन्द्रशेखर आज़ाद को कमाण्डर इन चीफ बना दिया गया था।

    जब पुलिस के सामने से निकल गये थे आजाद

    इसके बाद की एक घटना बड़ा दिलचस्प है। ब्रिटिश पुलिस से बचने के लिए चन्द्रशेखर अपने एक मित्र के घर छिपे हुए थे। ठीक उसी समय अचानक किसी की तलाश में पुलिस वहां पहुंच गई। मित्र की पत्नी ने चन्द्रशेखर आजाद को एक धोती और अंगरखा पहना कर सिर में साफा बांध दिया और टोकड़ी में अनाज भर कर खुद उनकी पत्नी बन गई। समान बेचने का बहाना बना पुलिस के सामने ही चन्द्रशेखर आजाद को अपने साथ लेकर वह महिला चली गई। थोड़ी दूर पहुंचकर चन्द्रशेखर आजाद ने अनाज से भरा टोकड़ी एक मंदिर की सीढ़ियों पर रख दिया और मित्र की पत्नी को धन्यवाद देकर वहां से चले गए। पुलिस को बाद में पता चला कि टोकड़ी लेकर जाने वाला वह कोई मामुली किसान नहीं, बल्कि, चन्द्रशेखर आजाद थे।

    ओरछा के जंगल को बनाया ठिकाना

    अध्ययन करने से पता चला कि अंग्रेजो को चकमा देने के लिए चंद्रशेखर आजाद ने झांसी से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगल को अपना ठिकाना बना लिया था। पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से इसी जंगल में रहते हुए उन्होंने अपने साथियों के साथ निशानेबाजी का अभ्यास किया था। कहतें है कि चन्द्रशेखर आजाद का  निशाना अचूक था। उन्हों गाड़ी चलाना भी आता था। अब एक घटना पर गौर करीए। क्रांतिकारियों के मन में लाला लाजपत राय के मौत का बदला लेने का जुनून सवार हो चुका था। तय हुआ कि जे.पी. सांडर्स को मार देना है।

    अचूक निशाना लगा कर बचाई भगत की जान

    योजना के तहत 17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु ने लाहौर के पुलिस सुपरिटेडेंट के कार्यालय के समीप घात लगा दिया था। संध्या का समय था। जैसे ही जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल से बाहर निकला। सबसे पहले राजगुरू ने गोली चला दी। पहली गोली सांडर्स के सिर में लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर गया। इसके बाद भगत सिंह आगे बढ़े और दनादन चार गोलियां उसके जिस्म में उतार कर भागने लगे। इस बीच सांडर्स के बॉडीगार्ड ने भगत सिंह को निशाने पर ले लिया। हालांकि, वह फायर करता। इससे पहले ही चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपने अचूक निशाना से बॉडीगार्ड का काम तमाम कर दिया। इसके बाद क्रांतिकारियों ने पोस्टर लगा कर लाला लाजपत राय के मौत का बदला पूरा होने का ऐलान कर दिया। इससे अंग्रेज बौखला गए थे।

    दुर्घटना की वजह से नही हुआ जेल ब्रेक

    कहतें है कि भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए चन्द्रशेखर आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा था। किंतु, गांधीजी इसके लिए तैयार नही हुए। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद ने भगत सिंह को छुराने के लिए जेल ब्रेक करने की योजना बानाई। इसके लिए तैयारी शुरू हो गई। किंतु, अंतिम चरण में बम बनाने के दौरान भूलबस एक विस्फोट हो गया और इसमें भगवती चरण वोहरा की मौत हो गई। इस घटना के बाद क्रांतिकारियों के जेल ब्रेक की योजना पर पानी फिर गया।

     कॉग्रेस नेता का मदद से इनकार

    इधर, चन्द्रशेखर आजाद अपने साथियों को फांसी से हर हाल में बचाना चाहते थें। इसके लिए उन्होंने भेष बदल कर उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल पहुंच गए और जेल में बंद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी के परामर्श पर चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद चले गये। यहां 20 फरवरी को उन्होंने आनन्द भवन जाकर जवाहरलाल नेहरू से भेंट की। आजाद चाहते थे कि पण्डित जी अपने साथ गांधीजी को लेकर लॉर्ड इरविन से मिले और तीनो की फांसी को उम्रकैद में बदलने का अनुरोध करें। किंतु, जवाहरलाल नेहरू इसके लिए तैयार नहीं हुए।

    पुलिस से लड़ते हुए खुद को मारी गोली

    निराश होकर चन्द्रशेखर आजाद इधर उधर भटक रहे थे। इसी दौरान 27 फरबरी को चन्द्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क चले गए। वहां उनकी मुलाकात अपने एक पुराने मित्र सुखदेव राज से हो गई। दोनो मिल कर मंत्रणा कर ही रहे थे। तभी सी.आई.डी. का एस.पी. नॉट बाबर जीप से वहां अचानक पहुंच गया। उसके पीछे कर्नलगंज थाने की पुरी पुलिस टीम थी। दोनो ओर से जोरदार फायरिंग शुरू हो गया। चन्द्रशेखर आजाद अकेले ही पुलिस टीम से घंटो लड़ते रहे। किंतु, बाद में गोली कम पड़ गयी और अंतिम गोली उन्होंने स्वयं को मार कर शहीद हो गये।

    समीप जाने की अंग्रेजो में नही थी हिम्मत

    कहतें है चन्द्रशेखर आजाद के शहीद होने के बाद भी अंग्रेज अधिकारी उनके करीब पहुंचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। घंटो बाद पुलिस ने उनके पैर में गोली मारी और कोई हरकत नहीं होने पर पुलिस के अधिकारी उनके करीब पहुंचने की साहस जुटा सके। इसके बाद पुलिस ने गुपचुप तरीके से चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार करने की तैयारी शुरू कर दी। हालांकि, थोड़ी देर में ही यह खबर इलाहाबाद (प्रयागराज) में फैलने लगी। लोगों की भारी भीड़ अलफ्रेड पार्क में उमड़ गई।

    अंग्रेजो के खिलाफ फुट पड़ा गुस्सा

    जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे थे। लोग उस जगह की मिट्टी को पवित्र मान कर अपने घरो में ले जाने लगे। शहर में अंग्रेजो के खिलाफ जब‍रदस्त आक्रोश भड़कने लगा। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले शुरू हो गये। लोग बड़ी संख्या में सडकों पर आ गये और अंग्रेजो के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गया। गौर करने वाली बात ये है कि यह सभी कुछ स्वत: स्फुर्द था। कोई नेतृत्वकर्ता नहीं था।

    अंतिम दर्शन को पहुंची थी कमला नेहरू

    इधर, आज़ाद के बलिदान की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू तक पहुंच गई। कमला नेहरू ने तत्काल ही कई वरिष्ट कॉग्रेसी नेताओं को इसकी सूचना दिया। पर, किसी ने भी इस घटना को गंभीरता से नहीं लिया। इसके बाद कमला नेहरू ने वहां मौजूद पुरुषोत्तम दास टंडन को साथ लेकर इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर चली गई। यही पर अंग्रेजो ने आजाद का दाह संस्कार किया था। अगले रोज युवाओं की टोली ने आजाद की चिता से अस्थियां चुन कर एक जुलूस निकाला। कहतें है कि इस जुलूस में पूरा इलाहाबाद इखट्ठा हो गया। इलाहाबाद की सभी मुख्य सडकों पर जाम लग गया।

    घटना से कॉग्रेस ने किया किनारा

    जुलूस के बाद एक सभा हुई। इस सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित किया था।  इस सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया था। इस घटना से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चन्द्रशेखर आजाद का व्यक्तित्व कम उम्र में ही कितना विराट रुप धारण कर चुका था। पर, उस समय कॉग्रेस के कोई भी बड़ा नेता इस घटना को बड़ी घटना मानने को तैयार नही था और कॉग्रेस ने चन्द्रशेखर आजाद की मौत पर शोक संवेदना देना भी उचित नही समझा।

    झाबुआ के आदिवासियों का था गहरा असर

    चन्द्रशेखर आजाद का आज जन्म 23 जुलाई 1906 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी तथा माता का नाम जगरानी देवी था। चन्द्रशेखर आजाद की शुरुआती पढ़ाई मध्यप्रदेश के झाबुआ जिला में हुआ था। किंतु, बहुत ही कम उम्र में संस्कृत पढ़ने के लिए उनको वाराणसी की संस्कृत विद्यापीठ में दाखिल करा दिया गया। झाबुआ में रहते हुए आजाद का बचपन आदिवासी इलाकों में बीता था। यही पर उन्होंने अपने भील बालकों के साथ धनुष बाण चलाना सीख लिया था। इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है।

    भील बालको से सीखा धनुष चलाना

    कहतें है कि उनदिनो भारी अकाल पड़ा था। उन्हीं दिनो आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर मध्य प्रदेश चले गए। वहां अलीराज पुर रियासत में नौकरी करने लगे और वहीं समीप के भंबरा गांव में बस गये। यहीं पर बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। यह आदिवासी बाहुल्य इलाका था। नतीजा, बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाना सीख लिया था।

    बनारस में हुआ था क्रांति का बीजारोपण

    बनारस में रहते हुए चन्द्रशेखर आजाद का संपर्क क्रांतिकारी मनमंथ नाथ गुप्ता और प्रणवेश चटर्जी से हो गया। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद ने क्रान्तिकारी दल ज्वाइन करके भारत माता की आजादी के लिए अपने प्राणो की आहूति दे दी। कहतें है कि जैसा नाम वैसा काम। यानी चन्द्रशेखर आजाद जब तक जिन्दा रहे आजाद ही रहे। लाख कोशिशो के बाद भी अंग्रेज उनको गिरफ्तार नही कर सका।

  • प्लासी में ऐसा क्या हुआ कि भारत को अंग्रेजो का गुलाम होना पड़ा

    प्लासी में ऐसा क्या हुआ कि भारत को अंग्रेजो का गुलाम होना पड़ा

    इन दिनो भारत में आजादी का अमृत महोत्सव चल रहा है। यह बात हम सभी लोगो के लिए खुशी के साथ गौरव की अनुभूति कराता है। पर, मेरे मन में कई सवाल है। अव्वल तो ये कि व्यापार करने वाले मुट्ठी भर अंग्रेजो के हम गुलाम कैसे हो गए? सिर्फ गुलाम नहीं हुए। बल्कि, करीब 200 वर्षो तक गुलाम रहे। 200 वर्ष… एक बड़ा कालखंड होता है। ऐसे में यह समझना जरुरी हो जाता है कि उस समय, यानी जब अंग्रेज हमको गुलाम बना रहे थे। तब भारत की राजनीतिक और समाजिक परिस्थितियां कैसी थीं? इसको समझने के लिए इतिहास के पन्ना पलटना जरुरी हो जाता है। इसको समझने के लिए प्लासी के मैदान में हुए युद्ध को समझना होगा। प्लासी की लड़ाई क्यों और किन हालातो में हुई और इसका परिणाम क्या हुआ? यही पर सभी सवालो का जवाब मिल जाता है।

    प्लासी के मैदान में हुआ था युद्ध

    KKN न्यूज ब्यूरो। आपने इतिहास में पढ़ा होगा कि प्लासी में इस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाब के बीच सबसे पहला युद्ध हुआ था। उस समय सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब हुआ करते थे। जबकि, इस्ट इंडिया कंपनी रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में युद्ध करने उतरी थी। यह युद्ध प्लासी के मैदान में हुआ था। इसलिए इसको प्लासी का युद्ध कहा जाता है। पश्चिम बंगाल में भागरीथी नदी के पूर्वी इलाके को प्लासी का इलाका कहा जाता है। यह लड़ाई वर्ष 1757 में हुआ था। सिराजुद्दौला इस लड़ाई में पराजित हुए और यही से भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नींब पड़ गई थी। कहानी इतनी भर नहीं है। बल्की असली कहानी तो इसी युद्ध की पृष्टभूमि में छिपा है। नवाब के पास 50 हाजार सैनिक थे। जबकि क्लाइव के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना में मात्र 3 हजार सैनिक थे। बावजूद इसके नवाब पराजित क्यों हुए? इस सवाल का जवाब आगे बतायेंगे।

    बंगाल से व्यापार करने की अनुमति

    पहले यह जान लेना जरुरी है कि उनदिनो भारत पर मुगलो का शासन हुआ करता था। यह बात 16वीं शताब्दी के मध्य की है। मुगल भारत पर निर्बाध शासन कर रहे थे। हालांकि, शासन पर मुगलो की पकड़ कमजोर पड़ने लगा था। कहतें हैं कि मुगल काल में बंगाल प्रांत को सबसे उपजाऊ या अमीर प्रांत माना जाता था। इस्ट इंडिया कंपनी बंगाल से नमक, चावल, नील, काली मिर्च, चीनी, रेशम के वस्त्र, सूती वस्त्र और हस्तशिल्प के कई अन्य वस्तु बंगाल से यूरोप ले जाते थे। यानी इन वस्तुओं का व्यापार करते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने वर्ष 1690 में मुगल बादशाह के साथ एक समझौता किया था। इस समझौता के तहत बंगाल से व्यापार करने की उन्हें अनुमति मिल गई थीं। यहां आपको बतादें उनदिनो बंगाल का मतलब सिर्फ पश्चिम बंगाल नहीं था। बल्कि, पश्चिम बंगाल के अतिरिक्त आज का बांग्लादेश, बिहार और ओडिशा भी बंगाल प्रांत का हिस्सा हुआ करता था।

    अमीर प्रांत हुआ करता था बंगाल

    इस्ट इंडिया कंपनी के लिए बंगाल का कितना महत्व था। इसको समझने के लिए कंपनी के टर्न ओवर को समझना होगा। दरअसल, एशिया में इस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार का करीब 60 फीसदी हिस्सा अकेले बंगाल से होता था। उनदिनो ब्रिटिश कंपनी बंगाल से करीब 50 हजार पाउंड का कारोबार करती थी। सिर्फ कर के रूप में मुगल शासक को करीब 350 पाउंड या तीन हजार रुपये कर यानी टैक्स मिलता था। उनदिनो यह बड़ी रकम हुआ करती थीं। इससे आप बंगाल के समृद्धि को समझ सकते है। यह गुलामी से पहले का बंगाल था। कहतें है कि इसी समृद्धि की वजह से बंगाल पर अंग्रेजो की गिद्ध दृष्टि पड़ी और इन्हीं कारणो से बंगाल पर कब्जा करने के लिए इस्ट इंडिया कंपनी ने रणनीति बनाना शुरू कर दिया।

    आपसी कलह बना कारण

    बात तब कि है जब बंगाल के नवाब हुआ करते थे अलीवर्दी खान। अलीवर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला को उनका उत्तराधिकारी बाना कर नवाब की गद्दी पर बैठा दिया गया। सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब तो बन गए। पर, उनके दरबार में शामिल कई दरबारियों को यह पसंद नही था। दरअसल, अलीवर्दी खान से पहले मुर्शिद कुली खान बंगाल के दिवान हुआ करते थे। कायदे से मुर्शिद कुली खान के बड़े पुत्र सरफराज खान को बंगाल की दिवानी मिलनी थी। किंतु, अलीवर्दी खान ने सरफराज खान की हत्या करके गद्दी पर कब्जा कर लिया था। इस घटना के बाद मुर्शिद कुली खान के समर्थको में असंतोष था। अलीवर्दी खान ने उस असंतोष को दबा दिया और शासन करने लगे। अलीबर्दी खान के मृत्यु के बाद जब सिरजुद्दौला को विरासत में गद्दी मिला तो असंतोष एक बार फिर से सिर उठाने लगा। इस बीच इस्ट इंडिया कंपनी ने कर्नाटक के नवाब को अपना कटपुतली बना कर अपनी ताकत बढ़ा रहे थे। अब बारी बंगाल की थी। कंपनी के अधिकारी बंगाल में मनमानी करने लगे और कलकत्ता की किलाबंदी शुरू कर दी।

    कलकत्ता का ब्लैक होल कांड

    इधर, सिराजुद्दौला बंगाल को कर्नाटक नहीं बनने देना चाहते थे। नतीजा, नवाब अपनी सेना लेकर कलकत्ता की ओर कूच कर गए। जून 1756 में नवाब की सेना ने कंपनी की सेना को खदेड़ दिया और फोर्ट विलियम को कंपनी के कब्ज़ा से मुक्त करा लिया। इस लड़ाई में 146 ब्रिटिश सैनिक को नवाब की सेना ने कैद कर लिया था। जिसको नवाब के आदेश पर 20 जून 1756 को कलकत्ता की एक छोटे सी काल कोठरी में कैद कर लिया गया। यह कोठरी बहुत ही छोटी थी। नतीजा, 123 कैदियों की दम घुटने से मौत हो गई। इस घटना को इतिहास में कलकत्ता ब्लैक होल कांड के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश सैनिको की दमघोटू मौत की खबर मिलते ही कंपनी के अधिकारी बौखला गए और नवाब से बदला लेने की योजना बनाने लगे। अभी तक यह तय हो गया था कि आमने-सामने की लड़ाई में रिराजुद्दौला को हराना कंपनी के लिए आसान नही था। नतीजा, अंग्रेजो ने रिराजुद्दौला को पराजित करने के लिए छल का सहारा लिया।

    अंग्रेजो ने लिया छल का सहारा

    कंपनी ने मद्रास में तैनात अपने सबसे चतुर सैनिक अधिकारी रॉबर्ट क्लाइव को बंगाल बुला लिया। बंगाल पहुंचते ही रॉबर्ट क्लाइव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। उसने सबसे पहले सिराजुद्दौला के सैनिक अधिकारी मीर ज़ाफर से संपर्क किया और मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाने की ऑफिर दे दी। मीर जाफर को यह ऑफर पसंद आया और उसने रॉबर्ट क्लाइव से एक गुप्त समझौता कर लिया। इधर, सिराजुद्दौला इस पुरे घटनाक्रम से बेखबर थे। नतीजा, 1757 में प्लासी के मैदान में हुए युद्ध में सिराजुद्दौला की बुरी पराजय हुई। जब सिराजुद्दौला मैदान छोड़ कर भागने लगे। तो, मीर ज़ाफर के पुत्र मीरन ने सिराजुद्दौला पर पीछे से वार करके उनकी हत्या कर दी। इस तरह इस्ट इंडिया कंपनी ने प्लासी की लड़ाई जीत ली। यह युद्ध भारत में अंग्रेज़ों के लिए ऐतिहासिक साबित हुआ। इसके बाद बंगाल में अंग्रेज़ों की राजनीतिक और सैन्य सर्वोच्चता स्थापित हो गई। यही से भारत में अंग्रेजो की गुलामी का दौर भी शुरू हो गया, जो अगले 200 वर्षो तक हमारा शोषण करता रहा। हालांकि, इसमें अभी कुछ रुकाबटे थीं।

    अपनो की गद्दारी बना हार का कारण

    दरअसल अंग्रेजो की यह जीत हमारे ही कुछ अपनो की गद्दारो की वजह से हुई। गौर करने वाली बात ये है कि कालांतर में हम सभी गुलाम हो गए। आजादी के 75 वर्षो बाद आज भी यह सिलसिला थमा नहीं है। आज भी हमारे बीच के कुछ लोग विदेशी ताकतो के प्रलोभन में आकर अपने ही देश के खिलाफ चल रही साजिश का हिस्सा बन रहें हैं। कई बार यह काम हम अनजाने में भी कर देते है। प्लासी के युद्ध में हमारे लिए बहुत बड़ी सीख छिपा है। इसको सिर्फ अंग्रेजो की धोखेबाजी समझना, नादानी होगा। दरअसल, हर वो दुश्मन मुल्क इसी तरह की चालें चलती है। झांसे में आने वाला राष्ट्र बर्बाद हो जाता है।

    बर्तमान भी इससे अछूता नही है

    इतिहास ऐसे उदहरणो से भरा पड़ा है। इतिहास को छोड़िए। आप वर्तमान में यूक्रेन को देख लीजिए। युद्ध शुरू होने से पहले अमेरिका समेत नाटो के 30 देश यूक्रेन को सैनिक मदद का भरोसा दे रहे थे। इसी के दम पर यूक्रेन जैसा छोटा देश रूस जैसी महाशक्ति को आंख दिखाने लगा। आज यूक्रेन करीब- करीब बर्बाद हो चुका है। अब अमेरिका क्या कर रहा है? दरअसल, अमेरिका अपने लिए हथियार का बाजार तलाश रहा है। कच्चे तेल पर एकछत्र राज कायम करने के लिए आर्थिक प्रतिबंध लगा रहा है। इससे यूक्रेन को क्या मिलेगा? यूक्रेन तो बर्बाद हो रहा है या बर्बाद हो चुका है। इसके बाद भी हम नहीं समझ पाए। तो, शायद देर हो जायेगी।

    जमींदारी पर किया कब्जा

    आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि मीर जाफर का क्या हुआ? बेशक, प्लासी का युद्ध जीतने के बाद रॉबर्ट क्लाइव ने शर्तो के साथ मीर ज़ाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। पर, नवाब को अपनी सेना रखने के अधिकार से बंचित कर दिया गया। ताकि, वह भविष्य में इस्ट इंडिया कंपनी का कटपुतली बना रहे। इसके अतिरिक्त रॉर्बट क्लाइव ने प्लासी के युद्ध में कंपनी को हुए खर्चा की भरपाई करने के लिए बंगाल के 24 परगना की जमींदारी अपने पास रख ली। कंपनी इतने से संतुष्ठ नहीं थी। धीरे-धीरे कंपनी की मांग बढ़ने लगी। मांगे इतनी बढ़ गई कि मीर ज़ाफर के लिए उसकी भरपाई करना मुश्किल होने लगा। जब मीर जाफर ने कंपनी की मांगो को पूरा करने से इनकार किया तो कंपनी बहादुर ने तत्काल ही मीर जाफर को गद्दी से उतार दिया और उसी के दामाद मीर कासिम को गद्दी पर बैठा दिया गया। यानी बंगाल की स्थिति अब कर्नाटक से भी बदतर होने लगा था।

    मुर्शिदावाद से मुंगेर का सफर

    मतलब साफ है कि नवाब चाहे कोई हो। हुकूमत इस्ट इंडिया कंपनी की चलेगी। मीर कासिम इस बात को समझ गया था। नतीजा, उसने भी वहीं चाल चलनी शुरू कर दी। बंगाल के प्रशासन में बदलाव करने शुरू कर दिए। सबसे पहले वर्ष 1762 में मीर कासिम ने बंगाल की राजधानी को मुर्शिदाबाद से हटा कर मुंगेर शिफ्ट कर दिया। मुंगेर आज के बिहार का हिस्सा है। उनदिनो बंगाल का हिस्सा हुआ करता था। मीर कासिम को लगा कि मुंगेर पर नजर रखना अंग्रेजो के लिए आसान नहीं होगा। मुंगेर पहुंचते ही मीर कासिम ने गुपचुप तरिके से सेना इखट्ठा करनी शुरू कर दी। उसको पता था कि आगे चल कर कंपनी से टकराव होना तय है। हालांकि, सेना अभी पूरी तरिके से तैयार नहीं हुआ था। इस बीच मीर कासिम ने एक गलती कर दी। जल्दीबाजी में उसने कंपनी को व्यापार कर देने का फरमान जारी किया। इससे रॉबर्ट क्लाइव भड़क गया। रॉबर्ट क्लाइव ने मीर कासिम पर हमला बोल दिया।

    बक्सर के युद्ध में मिली पराजय

    कंपनी की सेना ने कटवा, मुर्शिदाबाद, गिरिया, सूटी होते हुए मुंगेर पर धावा बोल दिया। इधर, मीर कासिम इसके लिए तैयार नहीं थे। नतीजा, मीर कासिम ने अपनी जान बचाने के लिए मैदान छोड़ दी और मुंगेर से भाग कर अवध पहुंच गया। उनदिनो शुजा-उद-दौला अवध के नवाब हुआ करते थे। उनकी मदद से मीर कासिम ने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय से संपर्क किया और बंगाल पर फिर से कब्जा करने की रणनीति बनाई। मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बंगाल को इस्ट इंडिया कंपनी से आजाद कराने के लिए शाही सेना की एक टुकड़ी, बंगाल के लिए रवाना कर दिया। आगे चल कर इस टुकड़ी में अवध की सेना भी शामिल हो गई। इधर, इस्ट इंडिया कंपनी को इस बात की भनक मिल गई थी। कंपनी ने हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अपनी सेना को इखट्ठा करके युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। यह बात वर्ष 1763 की है। बक्सर के समीप दोनो सेना के बीच घनघोर युद्ध हुआ। हेक्टर मुनरो ने चालाकी से लड़ते हुए मुगल सेना को पराजित कर दिया। इस युद्ध को इतिहास में बक्सर के युद्ध के नाम से जाना जाता है। इसी के साथ बंगाल में कटपुतली नवाब रखने की परंपरा का अंत हुआ और भारत में कंपनी हुकूमत की शुरूआत हो गई।

    इलावाद समझौता हुआ घातक

    रही सही कसर 1765 में पुरा हुआ। बक्सर के युद्ध के बाद 1765 में शांति की वहाली के लिए मुगल सम्राट ने इलाहावाद यानी आज के प्रयागराज में इस्ट इंडिया कंपनी से एक समझौता किया। इस समझौता के तहत मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बंगाल को इस्ट इंडिया कंपनी के हवाले कर दिया। इसके बाद इस्ट इंडिया कंपनी ने रॉबर्ट क्लाइव को बंगाल का पहला गर्वनल जनरल नियुक्त किया और बंगाल में इस्ट इंडिया कंपनी की वैध हुकूमत की नींब पड़ गई। यही से भारत में कंपनी राज की शुरूआत हो गई। जो, आगे चल कर धीरे- धीरे पूरे भारत को अपनी गिरफ्त में लेता चला गया।

    कुछ लोगो की लालच से पूरा देश हुआ गुलाम

    कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि मीर जाफर लालच में नहीं आया होता और सिराजुद्दौला के साथ धोखा नहीं हुआ होता तो, बंगाल की सत्ता कभी भी इस्ट इंडिया कंपनी के हाथो में नही गई होती। शायद भारत भी गुलाम नहीं होता। पर, यह सभी कुछ हुआ और लालच की वजह से हुआ। अब लालच का परिणाम देखिए। बेशक थोड़े दिनो के लिए मीर जाफर बंगाल का नवाब बना। पर, जल्दी ही सत्ता से बेदखल हो गया। दूसरी ओर अंग्रेजो ने बड़ी ही चलाकी से पहले बंगाल और बाद में धीरे- धीरे पूरे भारत पर कब्जा कर लिया। चंद लालची लोगो की वजह से पूरा भारत गुलाम हो गया। ऐसे लालची लोग आज भी हमारे बीच मौजूद है। जो, क्षणिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पूरे देश को बर्बाद करने पर तुले हुए है। समय रहते ऐसे लोगो की पहचान नहीं हुई तो खामियाजा हम सभी को भुगतना पड़ेगा।

  • फेक न्यूज की पहचान का आसान तरिका

    फेक न्यूज की पहचान का आसान तरिका

    सूचनाएं भ्रामक हो तो गुमराह होना लाजमी हो जाता है। सोशल मीडिया के इस जमाने में जाने अनजाने हम सभी अक्सर इसके शिकार होते रहतें है। आज के समय में झूठी खबरों का नेटवर्क इतना बड़ा हो गया है कि हम पहचान नहीं पाते हैं कि कौन सी खबर झूठी है और कौन सही? कुछ झूठी खबरें ऐसी होती हैं जो, समाज में किसी विशेष समुदाय के प्रति नफरत फैलाती हैं। कभी-कभी तो इनके कारण कई स्थानों पर दंगे, झगड़े, मारपीट और हत्या तक हो जाती है। मॉब लिंचिंग या समाजिक तनाव, आम हो गया है। ऐसे में यह जान लेना बहुत जरूरी हो गया है कि हम इन झूठी खबरों को कैसे पहचाने? कैसे पहचाने कि फेक न्यूज क्या है?

    माहौल खराब होने का खतरा

    KKN न्यूज ब्यूरो। इंटरनेट मानव जाति के लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही खतरनाक भी है। अगर इसका सही इस्तेमाल किया जाए तो यह आपको समृद्ध बना सकता है। लेकिन, इसका गलत इस्तेमाल हुआ तो गुमराह होना तय है। आज की दौर में स्मार्टफोन और लैपटॉप मानव जीवन का एक अहम हिस्सा बन चुका है। इन डिवाइस की मदद से यूजर अपने खूबसूरत पलों को कैद कर सकता है। एक दूसरे से साझा भी कर सकता है। जानकारी शेयर करना आज बहुत ही आसान हो गया है। इन्हीं डिवाइसो की मदद से अपना बिजनेस या कारोबार को भी बढ़ाया जा सकता है। इनका इस्तेमाल जितना आसान है। उतना ही आसान है, इन्हीं डिवाइसो की मदद से फेक न्यूज या भ्रामक जानकारी को फैलाना। इससे देश और समाज का माहौल खराब करना भी आसान हो गया है। लोगो के दिलो में नफरत या घृणा भर देना। घर बैठे दंगा फैला देना, आज बहुत आसान हो गया है। अक्सर राजनीतिक स्वार्थ और घृणा फैलाने के लिए फेक न्यूज का सहारा लिया जाता है। यह तेजी से फैलता है।

    फोटोशॉप तस्वीर की पहचान

    इंटरनेट पर कई ट्रिक्स उपलब्ध है। जिसकी मदद से आप चाहे तो खुद ही फैक्ट चेक कर सकते हैं। आप पता लगा सकते है कि जो खबर, फोटो या वीडियो आपके सामने पड़ोसी गई है। दरअसल, वह सच है या झूठ? आपके पास कोई खबर किसी तस्वीर के साथ आती है। तो, सबसे पहले उस तस्वीर को ध्यान से देखें। क्योंकि, फेक न्यूज में इस्तेमाल की गई तस्वीर फोटोशॉप हो सकता है। यह फोटो कई बार असली की तरह या उससे भी अच्छा दिखता है। पर, यदि वह तस्वीर सनसेशन फैला रही हो, तो आप गूगल के रिवर्स सर्च इमेज में जाकर उस तस्वीर की सच्चाई का पता लगा सकते है। रिवर्स सर्च के माध्यम से उस तस्वीर की सच्चाई सामने आ जायेगी। कई बार फेक न्यूज की पुष्टि के लिए पुराना तस्वीर लगा दिया जाता है। ऐसा भी सम्भव है कि वह तस्वीर किसी दूसरे देश या दूसरे परिस्थिति की हो। फोटोशॉप से तस्वीर के साथ छेड़छाड़ करना आज की दौर में बहुत ही आसान हो गया है। यह इतना बारीक होता है कि आसानी से इसको समझना मुश्किल हो जाता है। ऐसी तस्वीर को अक्सर लोग सच मान कर गुमराह हो जातें हैं।

    कतरन से छेड़छाड़ की सम्भावनाएं

    फेक न्यूज को बड़ी चालाकी से परोसा जाता है। सरसरी तौर पर फेक न्यूज में पत्रकारिता के सभी मापदंड पढ़ने को मिल जाता है। इसको इतनी चालाकी से लिखा जाता है कि कई बार मान्यता प्राप्त पत्रकार भी धोखा खा जाये। समझने की बात ये है कि दंगे वाली खबर में पीड़ित की पहचान को उजागर नही किया जाता है। क्योंकि, इससे दंगा के और भड़कने का खतरा रहता है। इसी प्रकार यौन उत्प्रीड़न की शिकार हुई महिला की पहचान को उजागर नहीं किया जाता है। यह एक गाइडलाइन है और मान्यता प्राप्त मीडिया संस्थान या न्यूज पोर्टल इसका पालन करतें हैं। दूसरी ओर आप गौर से देखें तो फेक न्यूज फैलाने वाले सबसे पहले पीड़ित की पहचान को ही उजागर कर देता है। क्योंकि, उनका मकसद समाज में तनाव फैलाना होता है। फेक न्यूज को पहचानने की यह सबसे प्रबल कारणो में से एक है। इन दिनो फेक न्यूज के लिए अखबार के कतरन का सहारा लेने का प्रचलन काफी बढ़ गया है। अखबार का कतरन देख कर लोग आसानी से फेक न्यूज पर यकीन कर लेते है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि ऐसा कतरन अक्सर दूसरे प्रदेश का होता है या बहुत पुराना होता है। ताकि, आसानी से उसके सच होने पर यकीन कर लिया जाये।

    वेबसाइट पर करें जांच

    जिस अखबार का कतरन आपके सामने आया है। आप उसी अखबार के वेबसाइट पर जाकर स्वयं सच्चाई का पता लगा सकते है। ज्यादेतर मामले में आप पायेंगे कि मूल अखबार में वह खबर है ही नहीं। यानी कतरन के साथ छेड़छाड़ हुआ है। दरअसल, आज कई प्रकार के डिजाइन सॉफ्टवेयर या एप्लिकेशन इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसकी मदद से कुछ लोग अखबार का नकल करके, ठीक उसी डिजाइन में अपने एजेंडा को खबर बना कर प्लांट कर देते है। इसको विभिन्न सोशल साइट के माध्यम से फैला दिया जाता है। इसका असर होता है और लोग आसानी से गुमराह हो जाते है। इससे बचने के लिए सबसे आसान तरिका है कि आप उसी अखबार के वेबसाइट पर जाकर खुद ही सच का पता लगा सकते है।

    यूआरएल की करें जांच

    फेक न्यूज की पहचान के लिए आप यू.आर.एल की मदद ले सकते है। मान्यता प्राप्त यू.आर.एल से खबर आई है तो इसको समझा जा सकता है। पर, मिलता-जुलता यू.आर.एल से आने वाली खबरें अक्सर भ्रामक होती है। ऐसा कई वेबसाइट है, जो मूल वेबसाइट के यू.आर.एल में मामूली बदलाव करके फेक न्यूज का सोर्स मुहैय्या करा रही है। यानी खबरो की सोर्स की पड़ताल कर लेना चाहिए। किसी खबर के असली या नकली होने का सबसे बड़ा पहचान उसका सोर्स होता है। लिहाजा, सोर्स की जांच कर लेना चाहिए। सोर्स की जांच के लिए आप उसी वेबसाइट की अबाउट सेक्सन में जाकर देख सकते है। यदि सोर्स मौजूद नहीं है या अनाम एक्सपर्ट के हवाले से खबर दी गई है, तो इसके फेक होने की प्रबल संभावना है। ऐसी खबरो पर यकीन करना घातक हो सकता है।

    सनसनी वाला हेडलाइन

    गौर से देखिए तो ऐसे वेबसाइट पर उपलब्ध खबरो का हेडलाइन बहुत ही आकर्षक होता है। ऐसी हेडिंग पर यकीन करने की जगह आप गूगल के जरिए सही जानकारी हासिल कर सकतें हैं। इससे फर्जी खबर की पहचान करना आसान हो जायेगा। कोई भी सम्मानित मीडिया संस्थान ऐसा लेआउट इस्तेमाल नहीं करता है। आजकल इंटरनेट पर नकली समाचार वेबसाइट की भरमार हो गई है। ऐसी वेबसाइट अक्सर झूठी और भ्रामक खबरें प्रकाशित करती है। छोटी-छोटी बातों को इतना बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता हैं कि लोगो के मन में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होना स्वभाविक है। ऐसे लोग अनावश्यक रूप से किसी की बहुत ज्यादा तारीफ कर देतें हैं या फिर किसी के बारे में अत्यधिक अपमानजनक लेख प्रकाशित कर देते है। इनका मकसद एजेंडा पड़ोसना होता है। ऐसे लोगो से सावधान रहने की जरुरत है। मेन स्ट्रीम मीडिया इस मामले में आज भी अधिक भरोसेमंद है।

    व्हाटृसएप पर करें फैक्ट चेक

    वर्तमान में फेक न्यूज का सबसे बड़ा या पसंदीदा प्लेटफार्म व्हाट्सएप या फेसबुक बन गया है। व्हाट्सएप के माध्यम से सबसे ज्यादा झूठी खबरें फैलाई जाती हैं। अखबार का कतरन, वीडियो लींक या पीडीएफ फॉर्मेट में व्हाट्सएप पर खबरो की भरमार लगी रहती है। बड़ा सवाल ये कि इसमें कौन खबर सच है और कौन झूठ? पहचान पाना मुश्किल हो जाता है। दरअसल, व्हाट्सएप एक ऐसा प्लेटफार्म है, जो अपने यूजर की मुश्किलो को आसान बनाने के लिए फैक्ट चेक करता है। इसके लिए व्हाट्सएप ने कई नंबर जारी किया हुआ है। इसमें से कोई भी एक नंबर आप अपने स्मार्ट फोन के कॉन्टेक्ट लिस्ट में शामिल कर लें। इसके बाद व्हाट्सएप टेकप्वाइंट टिपलाइन के इस नंबर पर आप उस लिंक, वीडियो या फोटो को सेंड कर दीजिए। मैसेज सेंड करने के बाद व्हाट्सएप चेकप्वाइंट की ओर से आपको एक मैसेज आएगा। आपसे कंफर्म करने के लिए कहा जाएगा। कंफर्मेशन मिलते ही व्हाट्सएप उस न्यूज की सत्यता की जांच करके आपको बता देगा। इस प्रक्रिया को पूरा करके आप व्हाट्सऐप पर फेक न्यूज और रियल न्यूज की आसानी से पहचान कर सकते हैं।

    वारफेयर का हिस्सा है इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी

    इन्फॉर्मेशन टेक्नलॉजी, मौजूदा समय में वार फेयर का हिस्सा बन चुकी है। सोशल मीडिया इसका सबसे बड़ा हथियार है। हमारे पड़ोसी चीन और पाकिस्तान में बैठे, कई हैंडलर दिन रात इसी काम में लगे हुए है। सोशल मीडिया के माध्यम से भारत में समाजिक और धार्मिक उन्माद फैलाना चाहतें हैं। ताकि, भारत में गृहयुद्ध की स्थिति बन जाये। इसके लिए एक बड़ी साजिश के तहत भ्रामक और तथ्यहीन जानकारी को भारत में फैलाया जाता है। अनजाने में ही सही। पर, इस कार्य में हममें से कई लोग उन्हीं की मदद कर रहें है। बिना सोचे समझे तथ्यहीन मैसेज को फॉरवार्ड करके दुश्मन के मंसूबे को आकार देने में हम उनकी मदद कर देते है। भ्रमक सूचनाओं को सच मान कर हम आपस में लड़ते है और मौका मिलते ही वही दुश्मन हम सभी को अपना गुलाम बनाने की साजिश रचता है। समय आ गया है, सच को पहचानिए और गुमराह होने से बचिए।

  • इन कारणो से है मुजफ्फरपुर के लीची की विशिष्ट पहचान  

    इन कारणो से है मुजफ्फरपुर के लीची की विशिष्ट पहचान  

    अपनी खास सांस्कृतिक विरासत के लिए दुनिया में विशिष्ट पहचान रखने वाले भारत की अधिकांश बड़ी शहरो की पहचान, वहां मिलने वाले किसी न किसी फल से जुड़ी हुई है। मिशाल के तौर पर जब हम हिमाचल प्रदेश या कश्मीरर की बात करते हैं। तो, हमारे जेहन में वहां मिलने वाली सेब की आकृतियां उभरने लगती है। यही बात केरल के संदर्भ में करें, तो नारियल और काजू का फल बरबस ही जेहन में आ जाता है। संतरा के लिए मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश का नाम कौधता है। केला की बात होते ही महाराष्ट्र की याद आने लगती है। कहतें हैं कि जलवायु और भूमि की उपयोगिता के कारण इन राज्यों की अर्थ व्यवस्था में फलों की महत्वूमपर्ण भूमिका से इनकार नही किया जा सकता है। इसी प्रकार उत्तर बिहार का एक प्रमुख शहर है मुजफ्फरपुर। इसको यानी मुजफ्फरपुर को देश दुनिया में लीची जोन के रूप जाना जाता है। मुजफ्फरपुर की लीची इतना प्रसिद्ध क्यों है?

    उपयुक्त जलवायु है कारण

    KKN न्यूज ब्यूरो। मुजफ्फरपुर और इसके निकटवर्ती क्षेत्र की भूमि और जलवायु लीची के लिए उपयुक्त माना जाता है। यही कारण है कि आज समूचे भारत में लीची उत्पादन का 90 प्रतिशत पैदावार उत्तर बिहार में होता है। इसमें 80 प्रतिशत लीची का उत्पादन अकेले मुजफ्फरपुर में होता है। लीची के 10 प्रतिशत उत्पादन चंपारण, सीतामढ़ी, समस्तीतपुर, वैशाली और भागलपुर में होता है। वैसे भारत के पश्चिम बंगाल के मालदह, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का देहरादून और सहारनपुर तथा पंजाब के कुछ हिस्सों  में लीची का थोड़ा-बहुत उत्पादन होता है। विगत तीन दशक में लीची के उत्पादन में डेढ़ से दो गुणा की वृद्धि हुई है। हालांकि, कोरोना की वजह से पिछले दो वर्षो में लीची उत्पादक किसान घाटे में है।दूसरा ये कि लीची पर आधारित उद्योग नहीं होने से यहां के लीची उत्पादक किसान मन मसोस कर रह जातें है। लीची के स्टोरेज व ट्रांसपोटेशन की दिशा में भी सरकार की बेरूखी से किसान हतोत्साह होने लगें हैं।

    स्पेडेंसी परिवार का है लीची

    लीची का वैज्ञानिक नाम ‘चाई नेसिंस नेनंस’ है। बनस्पति शास्त्र में इसको स्पेडेंसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। इसकी उत्पत्ति चीन से हुई माना जाता है। जानकार बतातें है कि पहली शताब्दी के आसपास लीची की खेती सर्वप्रथम दक्षिण चीन में हुई थी। इसका पेंड़ उष्ण कटिबंधियो क्षेत्र में पाया जाता हैं। पहली शताब्दी में दक्षिण चीन से प्रारंभ होने वाली लीची की खेती आज उत्तर भारत की प्रमुख पैदावर बन चुका है। इसके अतिरिक्त थाइलैंड, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका, और फ्लोरिडा में भी लीची की खेती होती है। हालिया दशका में पाकिस्तान, दक्षिण ताइवान, उत्तरी वियतनाम, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलीपींस और दक्षिण अफ्रीका में के कुछ हिस्से में लीची की खेती होने लगी है।

    लूचू से लीची का सफर

    विशेषज्ञ इस लुभावने फल की जन्मिस्थंली चीन को मानते हैं, कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि किसी पर्यटक के माध्यकम से लीची, चीन से भारत में आयी होगी। चीन के लूचू द्वीप में इसका अत्यधिक उत्पादन होता था। लगता है लूचू से ही इस फल का नाम लीची पड़ा होगा। इसके पेड़ की ऊंचाई 4 से 12 मीटर तक होती है। फरवरी में पेड़ पर मंजर निकल आती है और मार्च में फल दिखाई पड़ने लगते हैं। वैसे यह रस भरी लीची 15 मई तक पकना शुरू हो जाता हैं।

    पारिवारिक संबंधो का प्रतीक है लीची

    लीची को शर्बत, सलाद और आइसक्रीम के साथ खाने का रिवाज़ रहा है। चीन में इसे कई मांसाहारी व्यंजनों के साथ खाने की परंपरा रही है। चीनी संस्कृति में लीची का महत्वपूर्ण स्थान है। चीन में यह घनिष्ठ पारिवारिक संबंधों की प्रतीक माना जाता है। अन्य फलो की तरह लीची में कई पौष्टिक तत्वों का भंडार है। इसमें विटामिन सी, पोटेशियम और प्राकृतिक शक्कर पाया जाता है। इसमें प्रयाप्त मात्रा में पानी पाया जाता है। गौर करने वाली बात ये है कि यह फल गर्मी का फल है और गर्मी के समय शरीर में पानी के अनुपात को संतुलित रखने में लीची की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक मोटो अनुमान के मुताबिक करीब दस लीची से हमें लगभग 65 कैलोरी उर्जा मिलती हैं। इसके अतिरिक्त लीची में कैल्शियम, फोस्फोरस व मैग्नीशियम जैसे मिनरल्स पाया जाता हैं। जो हमारे शरीर की हड्डियों के विकास के लिए आवश्यक माना गया हैं। लीची का प्रमुख पोषक तत्व कार्बोहाइट्रेट है।

    लीची में पाए जाने वाला तत्व

    लीची के पके फलो का विश्लेषण करने पर पाया गया है कि इसमें औसतन 15.3 प्रतिशत चीनी, 1.15 प्रतिशत प्रोटीन और 116 प्रतिशत अम्ल पाया जाता है। इसके अतिरिक्त यह फल फासफोरस, कैल्शियम, लोहा, खनिज-लवण और विटामिन ‘सी’ का अच्छा स्त्रोत होता है। लीची में जल की मात्रा अत्यशधिक होती है। इसके एक फल में 77. 30 प्रतिशत गुद्दा होता है। गुद्दा में 30. 94 प्रतिशत जल पाया जाता है। लीची में विटामिन C अधिक पाया जाता है। यह हमारे त्वचा और हमारे शरीर की प्रतिरक्षा तन्त्र को मजबूत करता है। इतना ही नही बल्कि लीची खाने से शरीर का रक्त बिकार कम होने लगता है। रीसर्च से पता चला है कि लीची में ब्रेस्ट कैंसर को रोकने की विशेषता पाई जाती है। लीची में डाएट्री फाइबर अच्छी मात्रा में पाया जाता हैं। यह हमारे पाचनतंत्र को दुरुस्त करता है। लीची एक प्रकार का एंटी ऑक्सीडेट भी होता हैं। जो हमारे शरीर को बिमार होने से रोकता है। लीची खाने से शरीर का ब्लड प्रेशर स्थिर रहता है। लीची ह्रदय की धड़कन को मजबूती देता है।

    लीची की किस्में

    लीची की अनेक किस्मे हैं। मुजफ्फरपुर में रोज सेंटेड, शाही, चाइना और बेदाना किस्म की लीची मिलता हैं। मुजफ्फरपुर में लीची को देशी रसगुल्ला भी कहा जाता है। व्यांपारिक दृष्टि से लीची की बागवानी बहुत ही लाभप्रद है। जानकार बतातें हैं कि लीची के बगिचो से किसान को प्रति हेक्टेरयर बीस हजार रुपये से अधिक का शुद्ध लाभ प्राप्त हो जाता है। कहतें हैं कि 70 के दशक में मुजफ्फरपुर के करीब 1,330 हैक्टेयर में लीची का बगान हुआ करता था। चालू दशक में यह बढ़ कर 12,667 हैक्टेयर तक पहुंच चुका है। किंतु, इस क्रम में उत्पादन का नही बढ़ना चिंता का कारण है। जानकार बतातें हैं कि 70 के दशक में जहां तकरीबन 5,320 मिट्रिक टन सालाना लीची का उत्पादन होता था। वही, चालू दशक में यह बढ़ कर एक लाख 50 हजार मिट्रिक टन तक पहुंच चुका है।

    फलो की छटनी करती महिलाएं

    लीची का कारोबार

    मुजफ्फरपुर में लीची का बाजार उपलब्ध नही होने से किसान इसके व्यापार के नाम पर मिडल मैन के हाथो पिसने को मजबूर हैं। व्यापार के नाम पर ऐसे लोग अक्सार किसानों को चकमा देकर स्वयं अधिक मुनाफा कमा लेते है। कई बार किसानो को जल्दी बाजी के कारण अधिक नुकसान उठाना पड़ जाता है। क्योंकि लीची पकने के बाद इसका स्टोर करने की सुविधा यहां उपलब्ध नही है। बतातें है कि 90 के दशक में मुजफ्फरपुर से लीची का विदेशो में निर्यात शुरू हुआ था। इस क्रम में यहां की लीची इंगलैंड, नीदरलैंड, फ्रांस, स्पेन, दुबई व अन्य कई गल्फ कंट्री सहित नेपाल को भेजी जाती थी। किंतु, हाल के दिनो में कतिपय कारणो से इसमें कमी आई है और अब विदेश के नाम पर नेपाल और बंगनादेश तक ही मुजफ्फरपुर की लीची सीमट कर रह गई है।

  • माउंट एवरेस्ट का एक रोचक रहस्य जो हमसे छिपाया गया

    माउंट एवरेस्ट का एक रोचक रहस्य जो हमसे छिपाया गया

    हिमालय पर्वत माला की सबसे उंची चोटी है माउंट एवरेस्ट। इस नाम को लेकर एक बड़ा रहस्य है, जो हमसे छिपाया गया। बतादें कि दुनिया के कई देशो में माउंट एवरेस्ट को अलग-अलग नाम से जाना जाता है। आपको जान कर हैरानी होगी कि हमारे पड़ोसी देश नेपाल में माउंट एवरेस्ट को सागरमाथा के नाम से जाना जाता है। वहीं, तिब्बत में हिमालय के इस चोटी को चोमो लुंगमा के नाम से जाना जाता है। भारत के प्रचीन ग्रंथो में इसको देवगिरि पर्वत कहा गया। पश्चिम में इसको पीक फिप्टिन के नाम से जाना जाता था। अब सवाल उठता है कि इस पर्वत शिखर का नाम माउंट एवरेस्ट कैसे हो गया?

    देवगिरि पर्वत से माउंट एवरेस्ट का सफर

    KKN न्यूज ब्यूरो। ब्रिटिश इंडिया की गुलामी से पहले भारत में हिमालय के इस पर्वत शिखर को देवगिरि पर्वत के नाम से जाना जाता था। जबकि, पश्चिम के लोग इसको पीक फिप्टिन के नाम से जानते थे। नेपाल में माउंट एवरेस्ट को सागरमाथा के नाम से जाना जाता है। वहीं, तिब्बत में हिमालय के इस चोटी को चोमो लुंगमा के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश शासन काल के दौरान हिमालय के इस पर्वत चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया। आज हम इसको माउंट एवरेस्ट के नाम से जानते थ। यह जानकारी बहुत ही दिलचस्प है।

    उचाई मापने के लिए जानकार की तलाश

    बात वर्ष 1830 की है। वह जून का महीना था। एक अंग्रेज अधिकारी जिनका नाम जॉर्ज एवरेस्ट था। वह सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया बन कर भारत आया। जॉर्ज एवरेस्ट ट्रिकोणमेट्री का जानकार था। वह हिमालय के पीक फिप्टिन की उंचाई का  पता लगाना चाहता था। इसके लिए भारत के देहरादून के सर्वे ऑफिस को चूना गया। उनदिनो देहरादून में गणक का एक पद खाली था। भारत आते ही र्जार्ज एवरेस्ट ने इस पद पर किसी जानकार को नियुक्त करने का आदेश दे दिया। सर्वे ऑफ इंडिया के ऑफिस में उनदिनो जॉन टाइटलर नाम का एक अंग्रेज अधिकारी हुआ करता था। जॉर्ज एवरेस्ट ने जॉन टाइटलर को अपना सलाहाकार बनाया और देहरादून के ऑफिस में गणक की बहाली के लिए स्फेरिकल ट्रिकोणमेट्री के किसी जानकार को नियुक्त करने का आदेश दे दिया।

    कौन थे राधानाथ सिकदर

    जॉन टाइटलर ने अपने मातहत के साथ मिल कर खोजबीन शुरू की। इस दौरान उनकी मुलाकात बंगाल के राधानाथ सिकदर से हो गई। राधानाथ सिकदर को ट्रिकोणमेट्री में महारथ हासिल था। जॉर्ज एवरेस्ट ने 19 दिसम्बर 1831 को राघानाथ सिकदर को देहरादून में पदस्थापित कर दिया। इस पद के लिए राधानाथ सिकदर को उनदिनो 40 रुपये की तनख्वाह पर रखा गया था। दिलचस्प बात ये है कि सिकदर को कम्प्यूटर के पद पर नियुक्त किया गया था। यह बात तब की है, जब कम्प्यूटर का आविष्कार नहीं हुआ था। ऐसे में तेज गणना करने वाले इंसान को ही कम्प्यूटर कहा जाता था।

    एन्ड्रू स्कॉटवा के समय हुई मापी

    काम शुरू हुआ और लम्बा चला। हिमालय की सबसे उंची चोटी की उंचाई मापने का काम शुरू हो चुका था। इस बीच जॉर्ज एवरेस्ट रिटायर हो गए और उनकी जगह पर सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया के पद पर एन्ड्रू स्कॉटवा को नियुक्त कर दिया गया। यहां आपको जान लेना जरुरी है कि जॉर्ज एवरेस्ट और स्कॉटवा के बीच गुरू-शिष्य का रिश्ता हुआ करता था। इधर, राधानाथ सिकदर अपने काम में लगे थे और उनके काम से खुश होकर स्कॉटवा ने वर्ष 1849  में राधानाथ सिकदर को चीफ कम्प्यूटर बना दिया। उनदिनो राधानाथ सिकदर पीक फिप्टिन की उचांई मापने में जुटे थे। वर्तमान के माउंट एवरेस्ट को उनदिनो अंग्रेजो ने पीक फिप्टिन का सिम्बोलिक नाम दिया था। स्मरण रहें कि उनदिनो दुनिया में कंचजंघा पर्वत चोटी को सबसे उंचा चोटी माना जाता था।

    जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर बना माउंट एवरेस्ट

    राधानाथ सिकदर ने अपनी काबिलियत और गणना की जोर पर करीब 800 मीटर दूर से थियोडोलाइट मशीन लगाकर वर्ष 1852 में ही पीक फिप्टिन को माप लिया था। सिकदर ने अपना रिपोर्ट स्कॉटवा को सौप दिया। हालांकि, स्कॉटवा ने इसकी सार्वजनिक घोषणा करने में चार साल की देरी कर दी। वर्ष 1856 में इसकी सार्वजनिक घोषणा की गई। तब इसकी उचांई 29 हजार 2 फीट बताई गई थी। यानी 8 हजार 840 मीटर। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इसकी ऊंचाई प्रतिवर्ष 2 सेंटी. मीटर. के हिसाब से बढ़ रही है।  इसी के साथ  स्कॉटवा ने पीक फिप्टिन का नाम बदल दिया। स्कॉटवा ने अपने गुरु जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर इसका नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया। तब से आज तक लोग हिमालय के इस चोटी को माउंट एवरेस्ट के नाम से जानते है।

    राधानाथ सिकदर को हासिए पर धकेल दिया

    सच्चाई यह है कि इसकी उंचाई मापने में जॉर्ज एवरेस्ट की कोई भूमिका नही थी और इसका संपूर्ण श्रेय राधानाथ सिकदर को मिलना चाहिए था। पर, गुलामी की वजह से ऐसा नही हो सका। इस तरह दुनिया की सबसे ऊंची चोटी को मापनेवाले राधानाथ सिकदर को इतिहास में हासिए पर धकेल दिया गया। कायदे से जिस चोटी का नाम माउंट सिकदर होना चाहिए था। उसको माउंट एवरेस्ट बना दिया गया। कहतें है कि नेपाल जब इसको सागरमाथा कह सकता है। तिब्बत के लोग इसको चोमो लुंगमा कह सकते है। तो हम भारत के लोग इसको माउंट सिकदर क्यों नहीं कह सकते?

  • फंदा गले में पहन कर भगत सिंह ने मजिस्टेट से क्या कहा

    फंदा गले में पहन कर भगत सिंह ने मजिस्टेट से क्या कहा

    उन्हें यह फ़िक्र है, हरदम… नई तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है? हमें यह शौक है, देखें… सितम की इन्तिहां क्या है? इस पंक्ति के रचनाकार, शहिदे आजम भगत सिंह आज भी सियासी सितम के शिकार है। आजादी के सात दशक बाद भगत सिंह को शहीद का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है। कहतें हैं कि वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक अनमोल हीरा थें। सवाल उठता है कि भगत सिंह को तय समय से पहले ही फांसी क्यों दे दिया गया? जिस रात फांसी पर चढ़ाया गया, ठीक उससे पहले जेल में ऐसा क्या हुआ कि ब्रटिश हुकूमत की चूलें हिल गई? गले में फंदा पहने भगत सिंह ने वहां मौजूद मजिस्टेट को ऐसा क्या कह दिया… जो, इतिहास बन गया। शहीदे आजम भगत सिंह से जुड़ी, ऐसे और भी कई सवाल है।

    23 मार्च की शाम चुपके से दिया फांसी

    KKN न्यूज ब्यूरो। वह 24 मार्च 1931 की सुबह थी। सूरज की पहली किरण के साथ फिजां में एक अजीब सी बेचैनी महसूस होने लगी थी। एक खबर लोग को परेसान करने लगा था। खबर की सच्चाई को जानने के लिए लोग उतावले हो रहे थे। दरअसल, लोगो को पता चला था कि 23 मार्च की शाम को शहीदे आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दिया गया है। कहतें हैं कि जंगल में लगी आग की तरह यह खबर चंद पलो में भी पूरे देश में फैल गया। सच को जानने के लिए लोग यहां-वहां भागे जा रहे थे। तभी कुछ लोगो की नजर अखबार पर पड़ी। काली पट्टी वाली हेडिंग के साथ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 की शाम 7.33 पर फांसी देने की बात अखबार में छपी हुई थी। वह सोमवार का दिन था। लोगो में घोर निराशा छा गया। ऐसा लगा मानो उसका कोई अपना खो गया है।

    क्यों डर गए थे अंग्रेज

    सवाल उठता है कि तय समय से पहले ही आजादी के दिवानो को फांसी पर क्यों चढ़ा दिया गया? दरअसल, केंद्रीय असेम्बली में बम फेंकने के जिस मामले में भगत सिंह को फांसी की सजा हुई थी, उसकी तारीख 24 मार्च तय थी। जबकि, ब्रिटिश हुकूमत ने 23 मार्च की शाम को ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को चुपके से फांसी पर चढ़ा दिया। बताया जाता है कि फांसी को लेकर उस समय पूरे भारत में जिस तरह से विरोध प्रदर्शन हुए, इससे ब्रिटिश हुकूमत डर गई और उसी का नतीजा हुआ कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तय तारीख से एक दिन पहले ही फांसी दे दी गई।

    भगत सिंह ने मजिस्टेट से क्या कहा

    ठीक फांसी के वक्त लाहौर के सेंट्रल जेल में ऐसा क्या हुआ था, जिससे अंग्रेज अधिकारी के भी होश उड़ गए? दरअसल, फांसी के समय उस वक्त वहां यूरोप से आये एक डिप्टी कमिश्नर मौजूद थे। जितेन्द्र सन्याल ने अपनी पुस्तक ‘भगत सिंह’ में लिखा है कि फांसी के फंदा को आलिंगन करने से ठीक पहले भगत सिंह ने वहां मौजूद मजिस्टेट को संबोधित करते हुए कहा… ‘मिस्टर मजिस्ट्रेट, आप बेहद भाग्यशाली हैं। क्योंकि, आपको यह देखने का मौका मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी, किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर झूल जाते हैं…।’ भगत सिंह के इस अल्फाज को सुन कर वहां मौजूद सभी अधिकारी सकते में आ गए। कहतें हैं कि भगत सिंह के मुंह से निकला, यह आखरी वाक्य था। इसके तुरंत बाद उनको फांसी पर चढ़ा दिया गया।

    फांसी से ठीक पहले क्या कर रहें थें भागत सिंह

    भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत से कुछ देर पहले लाहौर सेंट्रल जेल का नजारा रोमांच करने वाला था। किताबो का अध्ययन करने से पता चलता है कि 23 मार्च 1931 की शाम फांसी पर चढ़ने से चंद मिनट पहले भगत सिंह, लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फांसी का वक्त आ गया है, तो उन्होंने कहा- ‘ठहरिये…! अभी एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है…।’ भगत सिंह के इस आत्मविश्वास को देख कर जेल के अधिकारी हैरान थे। अचानक एक मिनट बाद, किताब को छत की ओर उछाल कर भगत सिंह बोले- ‘ठीक है… अब चलो…।’

    जब इंकलाब के नारो से गूंज उठा सेंट्रल जेल

    जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु अपने वार्ड से फांसी घर की ओर जाने लगे, जेल के सभी कैदी, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। करीब 15 मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद की गूंज से लाहौर सेंट्रल जेल का कोना- कोना गूंज उठा। आलम ये था कि अंग्रेज के अधिकारी भी सहम गए। इधर, फांसी पर जाते समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू के चेहरे पर खौफ की जगह मस्ती का आलम था। वह तीनो मस्ती में झुमते हुए गीत गा रहे थे- ‘मेरा रंग दे बसंती चोला, माए, रंग दे बसंती चोला…।’

    शहीद के शव को जलाने का क्यों किया प्रयास

    भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के बाद अंग्रेज अधिकारी इतने डर गए कि फांसी के बाद अंग्रेजों ने शहीद के शरीर के टुकड़े- टुकड़े करके, बोरियों में भरा और चुपके से उन बोरियों को दूसरे दरबाजे से निकाल कर फिरोजपुर ले गए। योजना के मुताबिक अंग्रेज अधिकारी आंदोलन भड़कने के भय से तीनो शव पर मिट्टी का तेल डालकर उसको जलाने लगे। किंतु, आग की लपटो को देख कर समीप के ग्रामीणो की भीड़ इखट्ठा हो गई। भीड़ बढ़ते देख अंग्रेज अधिकारी इतने डर गए कि लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंक कर वहां से भाग निकले। बाद में गांव वालों ने मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित किया और तीनो शहीद का विधिवत दाह संस्कार किया। हुसैनीवाला में तीनों का शहीद स्मारक आज भी मौजूद है।

    क्या परिवार को फांसी के बारे में बताया गया था

    भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी को लेकर आज भी कई तरह की विवाद मौजूद है। इस बारे में अलग- अलग जगहो पर अलग- अलग जानकारियां मिलती है। हालांकि, कई किताब और फिल्मों में यह जानकारी दी गई है कि 23 मार्च 1931 की शाम को ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी दे दी गई थीं। आपको याद होगा जब वर्ष 2002 में राजकुमार संतोषी की एक फिल्म आई थीं। फिल्म का नाम था ‘द लीजेंड ऑफ सिंह’। इसमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी की तारीख 23 मार्च की शाम, बताया गया था। फिल्म में यह दिखाया गया है कि भगत सिंह के परिवार को इस बात की जानकारी मिल जाती है कि तीनों क्रांतिकारियों को तय तारीख से एक रोज पहले ही फांसी दी जा रही है। यदि आपको फिल्म का दृष्य याद हो तो, आपको याद ही होगा कि परिवार के लोग लाहौर सेंट्रल जेल के बाहर प्रदर्शन कर रहे होते हैं। जबकि, अंदर उन्हें फांसी दे दी जाती है। फांसी की खबर पर उग्र हुए लोग जेल के अंदर घुसने की कोशिश भी करते हैं।

    पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूट बिल क्या है

    सवाल उठता है कि आखिर किस आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दिया गया था? इस सवाल को  समझने के लिए पीछे का पन्ना पलटना होगा। दरअसल, ब्रिटिश इंडिया की सरकार दिल्ली की असेंबली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिसप्यूट बिल’ लाने की तैयारी कर चुकी थी। यह दोनो ही दमनकारी बिल था। इसके कानून बन जाने के बाद भारत के आजादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगो को कठोरता से कुचलने अधिकारी अंग्रेज अधिकारी को मिलने वाला था। जनता में क्रांति का बीज पनपने से  पहले ही, अंग्रेज उसको कुचलने की तैयारी कर लेना चाहते थे।

    क्रांतिकारियों ने पर्चा में क्या लिखा था

    भगत सिंह और उनके साथियों ने ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिसप्यूट बिल’ का विरोध दर्ज कराने का निर्णय लिया। तय हुआ कि दमनकारी बिल पर विचार-विमर्श के समय ही सेंट्रल असेंबली में धमाका किया जाए। इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त को जिम्मा मिला। मकसद किसी को हानि पहुंचाना नहीं था। लिहाजा तय हुआ कि असेम्बली के खाली स्थान को चिन्हित करके बम फेंका जाये और ऐसा ही हुआ भी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को असेंबली में बम विस्फोट करके धमाका कर दिया। बम फेकने के बाद भगत सिंह वहां से भागे नहीं, बल्कि स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दे दी। क्रांतिकारियों ने गिरफ़तारी से पहले वहां पर्चा बांट कर अपनी मांगे रख दी। पर्चा में लिखा था- बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊंचे शब्द की आवश्यकता होती है। कालांतर में ‘लाहौर षड़यन्त्र’ केस के नाम से मुकदमा चला और परिणाम क्या हुआ? यह किसी से छिपा नहीं है। जूरी ने राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी की सज़ा दी। जबकि, बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावाज की सजा सुनाई गई।

    भगत सिंह ने क्रांति की मुश्किल राह क्यों अपनाई

    खेलने और मौज मस्ती करने की उम्र में भगत सिंह के मन में क्रांति के बीज कैसे पनप गया? बात उस वक्त की है, जब भगत सिंह की उम्र महज बारह वर्ष की थीं। उस वक्त जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। बतातें चलें कि भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर के जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को रौलेट एक्ट के विरोध में एक सभा हो रही थीं। तभी अचानक अंग्रेज अधिकारी जनरल डायर ने अकारण ही भीड़ पर गोलियां चलवा दीं। इसमें 400 से अधिक लोगो की मौत हो गई। घटना की सूचना मिलते ही नन्हें भगत अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुंच गये थे। नन्हें भगत पर इस घटना का इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने अंग्रेजो से बदला लेने की ठान ली। उस वक्त के महान क्रांतिकारी पंडित चन्द्रशेखर आजाद से मिलें और आजादी की लड़ाई में कूद गए।

     साइमन कमिशन और जालियांवाला बाग का कनेक्शन

    ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में संविधान सुधार के लिए वर्ष 1927 में साइमन आयोग का गठन कर दिया। यह सात ब्रिटिश सांसदो का एक समूह था। इधर, चौरी- चोरा की घटना के बाद आजा़दी की लड़ाई में ठहराव आ गया था। लिहाजा, 1927 में कॉग्रेस ने अपने मद्रास अधिवेशन में साइमन कमीशन के बहिष्कार का फैसला लिया। मुस्लिम लीग ने भी साइमन के बहिष्कार का समर्थन किया था। इस बीच 3 फरवरी 1928 को कमीशन भारत पहुंच गया। कोलकाता, लाहौर, लखनउ, विजयवाड़ा और पुणे सहित देश के अधिकांश हिस्सो में साइमन को जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों ने साइमन कमीशन को काले झंडे दिखाए और गो बैक साइमन के नारे लागए। इस बीच 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन का विरोध करने के लिए जालियांवाला बाग में सभा बुलाई गई। शांति पूर्वक सभा कर रहे युवाओं पर पुलिस ने लाठी बरसा दी और भीड़ पर अंधा-धूंध गोलिया बरसाई गई। सहायक पुलिस अधीक्षक जे.पी. सांडर्स के आदेश पर पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं। वह बुरी तरह से जख्मी हो गए। बाद में 17 नवंबर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई।

    जब सांडर्स से लिया बदला

    इस घटना की सूचना मिलते ही भगत सिंह ने सांडर्स को मारने की योजना बनाई। योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर के कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि उनका साइकिल ख़राब हो गयी हो। समीप के ही एक स्कूल की चहारदीवारी की आर लेकर चन्द्रशेखर आज़ाद इन लोगो को कवर देने के लिए घात लगा कर बैठे थे। वह 17 दिसम्बर 1928 का दिन था और दोपहर बाद ठीक सवा चार बजे सांडर्स अपने ऑफिस से जैसे ही बाहर निकला, राजगुरु ने सांडर्स पर गोली चला दी। गोली सांडर्स के सिर में लगी और व जमीन पर लुढ़क गया। इसके बाद भगत सिंह ने ताबड़तोड़ फायरिंग करते हुए सांडर्स के सीने में चार और गोली उतार दी। गोली की आवाज सुन कर सांडर्स के एक वॉडीगार्ड, चनन सिंह ने भगत सिंह को अपने निशाने पर ले लिया। किंतु, इससे पहले कि वह फायर करता, चन्द्रशेखर आजाद ने बड़ी ही फुर्ती से अपना पिस्तौल निकाला और एक ही गोली में चनन सिंह का काम तमाम कर दिया। लाला लाजपत राय की मौत का बदला पूरा हो चुका था।

    काकोरी कांड का कैसे हुआ असर

    जाट परिवार में भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था। हालांकि इसको लेकर विवाद है। कई अभिलेखो में जन्म की तारीख 19 अक्टूबर 1907 बताया गया है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। कहतें हैं कि जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना कर दी। इसी दौरान काकोरी कांड हो गया। इस आरोप में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित चार क्रान्तिकारियों को ब्रिठिश हुकूमत ने फांसी दे दी। राम प्रसाद विस्मिल के फांसी की खबर से भगत सिंह इतने उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद की पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन।

    भगत सिंह का लिखा पत्र बना दस्ताबेज

    यहां आपको बताना जरुरी है कि जेल में भगत सिंह करीब दो साल रहे। आपको बता दें कि जेल में रहते हुए ब्रिटिश हुकूमत के ख्रिलाफ भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 रोज तक भूख हडताल किया था। इस दौरान उनके एक साथी यतीन्द्र नाथ दास की भूख हड़ताल से मौत हो गई। जेल में रहते हुए भगत सिंह ने कई लेख लिखे और परिजनो को कई पत्र लिखे थे। आज यही पत्र भगत  सिंह के विचारो का दर्पण बन चुका हैं। एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा है- ‘हीरे, इमारत की खुबसूरती को बढ़ा सकता है। देखने वालों में चकाचौध भर सकता है। लेकिन वह इमारत की बुनियाद नहीं बन सकता…।’ इसी प्रकार अपने आखरी पत्र में भगत  सिंह ने अपने बड़े भाई को लिखा- ‘मेरे जीवन का अवसान समीप है। प्रात:कालीन प्रदीप के समान मेरा जीवन भोर के प्रकाश में विलिन हो जायेगा। किंतु, मेरा विचार बिजली की तरह हमेशा चमकता रहेगा। ऐसे में महज मुट्ठी भर राख के विनष्ट होने का दुख करने की कोई आवश्यकता नहीं है…।’

  • यूक्रेन संकट का बुडापेस्ट मेमोरंडम ऑन सिक्योरिटी अश्योरेंस कनेक्शन है क्या

    यूक्रेन संकट का बुडापेस्ट मेमोरंडम ऑन सिक्योरिटी अश्योरेंस कनेक्शन है क्या

    बात 5 दिसंबर 1994 की है। हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में यूक्रेन का भविष्य तय होने वाला था। रूस अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया की कई शक्तिशाली देशो के प्रतिनिधि वहां पहले से मौजूद थे। तय हुआ कि यूक्रेन अपने परमाणु हथियार का बड़ा जखिरा नष्ट कर दे या रूस को दे दे। इसको बुडापेस्ट मेमोरंडम ऑन सिक्योरिटी अश्योरेंस का नाम दिया गया। बदले में दुनिया ने यूक्रेन को सुरक्षा की गांरटी दी। तय हुआ कि भविष्य में कभी भी यूक्रेन पर हमला हुआ तो रूस और अमेरिका समेत पूरी दुनिया उसके साथ खड़ी होगी। इसके बाद यूक्रेन ने करीब तीन हजार परमाणु बम रूस को लौटा दिया और बाकी नष्ट कर दी। वहीं यूक्रेन आज युद्ध की तबाही झेल रहा है। बिडम्बना देखिए, सुरक्षा का भरोसा देने वालों में से एक रूस आज यूक्रेन पर ताबड़-तोड़ हमला कर रहा है और मदद का भरोसा देने वाला अमेरिका समेत दूसरे अन्य देश आर्थिक प्रतिबंध के नाम पर उछल कूद कर रहा है। यूं कहें कि गाल बजा रहा है। इस बीच यूक्रेन बर्बाद हो रहा है। यूक्रेन का आधुनिक इन्फ्रास्ट्क्चर मलबा बन रहा है। लाशो की ढ़ेर लगी है। लोग घर-बार छोड़ कर पलायन कर रहें हैं। यह सभी कुछ सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि यूक्रेन ने दुनिया की बात मान ली। यदि आज यूक्रेन के पास परमाणु हथियार होता तो उसकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती। दरअसल, यह अन्तर्राष्ट्रीय समझौते का एक स्याह सच है।

    जब यूक्रेन ने रूस को सौपा था परमाणु जखिरा

    एक समय था जब यूक्रेन सोवियत संघ का हिस्सा दुआ करता था। वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन एक आजाद देश बन गया। यहां आपको समझ लेना जरुरी है कि सोवियत संघ के जमाने में परमाणु हथियार का बड़ा जखिरा इसी यूक्रेन के चेर्नेबल में हुआ करता था। वर्ष 1986 के आसपास चेर्नेबल परमाणु त्रासदी आपको याद होगा। जब एक परीक्षण के दौरान गलती से रेडियसन हो गया था और एक लाख से अधिक लोगो को अपनी जाने गवांनी पड़ी थीं। यूक्रेन के आजाद होने के बाद परमाणु हथियार का बड़ा जखिरा यूक्रेन के हिस्से में आ गया। कहतें हैं कि वर्ष 1993 तक अमेरिका और रूस के बाद सबसे ज्यादा परमाणु हथियार यूक्रेन के पास था। लेकिन बेहतर रिश्तों की चाह में यूक्रेन ने एटमी हथियार का वह जखीरा रूस को दे दिया। यही यूक्रेन से बड़ी भूल हो गई। आज यहीं बात युक्रेन को सबसे अधिक परेसान कर रहा होगा। क्योंकि, यदि आज वह परमाणु शक्ति राष्ट्र होता तो शायद उसको अपनी बर्बादी का यह मंजर देखना नहीं पड़ता।

    2014 से रूस के निशाने पर है यूक्रेन

    अब रूस और यूक्रेन के बीच उत्पन्न तनाव को समझिए। दरअसल, विवाद का बीजारोपण वर्ष 2013 के नवम्बर में हो गया था। उनदिनो विक्टर यानुकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति हुआ करते थे। विक्टर यानुकोविच रूस समर्थक माने जाते थे। अमेरिका और ब्रिटेन के उसकाने पर यूक्रेन की राजधानी कीव में विक्टर यानुकोविच के विरोध में प्रदर्शन शुरू हो गया। प्रदर्शन इतना उग्र था कि वर्ष 2014 के फरबरी महीने में यानुकोविच को देश छोड़ कर भागना पड़ा और यूक्रेन में पश्चिम समर्थक सरकार बन गई। यहीं वह टर्निंग प्वाइंट है, जहां से यूक्रेन का रूस के साथ टकराव शुरू हो गया। इस घटना से आहत होकर रूस ने दक्षिणी यूक्रेन के क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और वहां के अलगाववादियों को समर्थन देना शुरू कर दिया। इधर, रूस समर्थक अलगाववादियों ने पूर्वी यूक्रेन के बड़े हिस्से पर कब्जा करके आग में घी डाल दिया। इसका असर ये हुआ कि वर्ष 2014 के बाद यूक्रेन के डोनबास में रूस समर्थक अलगाववादी और यूक्रेन की सेना के बीच संघर्ष होने लगा। हालांकि, फ्रांस और जर्मनी के हस्तक्षेप से वर्ष 2015 में बेलारूस की राजधानी मिनिस्क में दोनों के बीच संघर्ष विराम हो गया। किंतु, अंदरखाने आग सुलगता रहा।

    नाटो को अपने लिए खतरा मानता है रूस

    इधर, यूक्रेन अब नाटो के करीब आने लगा था। आपको बता दे कि उस दौर के सोवियत संघ से निपटने के लिए अमेरिका की अगुवाई में वर्ष 1949 में नाटो का गठन हुआ था। नाटो यानी ‘नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑरगेनाइजेशन’। यूक्रेन का नाटो के करीब जाना रूस को नागवार गुजरा। क्योंकि, यूक्रेन में नाटो की मौजूदगी को रूस अपने लिए खतरा मानता है। रूस के लगातार आपत्ति को दरकिनार करके यूक्रेन का नाटो से नजदिकी बढ़ाना आखिरकार युद्ध का कारण बन गया। रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की वजह नाटो कैसे बन गई? अब इसको समझिए। वर्ष 1945 की बात है। दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो चुका था। विश्व युद्ध के बाद दुनिया के दो देश महाशक्ति बन कर उभरे थे। इनमें से एक था सोवियत संघ और दूसरा था संयुक्त राज्य अमेरिका। सोवियत संघ साम्यवाद का नेतृत्व कर रहा था और संयुक्त राज्य अमेरिका पूंजीवाद का। दोनो अपने- अपने विचारधारा का विस्तार करना चाहते थे। जाहिर है जल्दी ही दोनो के बीच वैचारिक मतभेद उभरने लगा। इतिहास में इसको शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस बीच वर्ष 1948 में सोवियत संघ ने बर्लिन पर कब्जा कर लिया। अमेरिका को लगा कि स्टालिन के साम्यवाद की इस लहर को रोका नहीं गया तो इसकी तपीश में पूरा यूरोप झुलस जायेगा।

    नाटो को रोकने के लिए हुआ था वारसा पैक्ट

    सोवियत संघ की चुनौती से निपटने के लिए अमेरिका ने 1949 में नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑरगेनाइजेशन यानी ‘नाटो’ का गठन कर दिया। इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, फ्रांस, बेल्जियम और नीदरलैंड समेत कुल 12 देश शामिल थे। समझौता के तहत नाटो के किसी भी देश पर हमला को सभी पर हमला माना गया और तय हुआ कि सभी एक साथ मिल कर हमलावर के साथ युद्ध लड़ेंगे। इधर, नाटो के जवाब में सोवियत संघ ने 1955 में ‘वारसा पैक्ट’ की स्थापना कर दी। यह कम्युनिस्ट देशों का साझा सुरक्षा संगठन था। इसमें सोवियत संघ के अतिरिक्त अल्बेनिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैंड और रोमानिया शामिल हो गया। यह वो दौर था, जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध शुरू हो चुका था। इस बीच एक बड़ी घटना हुई। दरअसल, मिखाइल गोर्वाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने और उन्होंने दो नए कानून बना दिए। ‘ग्लास्तनोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोआइका’। जानकार मानते है कि इसका असर ये हुआ कि 90 का दशक खत्म होते-होते सोवियत संघ विघटन की राह पर चल पड़ा। हालांकि, इसके और भी कई कारणो से इनकार नहीं किया जा सकता है।

    जब टूट गया था सोवियत संघ

    वर्ष 1988 में सोवियत संघ का विघटन शुरू हो गया था और 26 दिसंबर 1991 तक सोवियत संघ टूटकर 15 देशों में बंट गया। इसमें रूस सबसे बड़ा देश बना। इस बीच एक और बड़ी घटना हो गई। वर्ष 1990 में पश्चिम और पूर्वी जर्मनी का एकीकरण हो गया। अब पश्चिम के देश वारसा पैक्ट को खत्म करना चाहते थे। यही हुआ भी। वर्ष 1991 में वारसा पैक्ट खत्म कर दिया गया। कहा जाता है कि इसके बदले अमेरिका ने रूस को यकीन दिलाया था कि वह पूर्वी यूरोप में नाटो का विस्तार नहीं करेगा। हालांकि, आगे चल कर अमेरिका, अपनी बातो से मुकर गया और नाटो का विस्तार जारी रहा। आज 30 देश नाटो के सदस्य है। सोवियत संघ के सदस्य रहे बाल्टिक के देश लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया को नाटो में शामिल कर लिया गया। इससे रूस को बड़ा झटका लगा और वह ठगी महसूस करने लगा। हालांकि, रूस ने इसका पुरजोर विरोध किया था। पर अमेरिका पर इसका कोई असर नहीं हुआ और नाटो का विस्तार जारी रहा। हद तो तब हो गई, जब पश्चिम के बहकावे में आकर यूक्रेन भी नाटो में शामिल होने की जिद पर अर गया। यूक्रेन के नाटो में शामिल होने का मतलब था कि नाटो की सेना का रूस के सीमा पर तैनात होना। इधर, वर्ष 1999 में येल्तसिन के राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र देने के बाद पुतिन के मजबूत हाथो में रूस की कमान आ गई। पुतिन किसी भी सूरत में नाटो को रूस के करीब आते देखना नहीं चाहते है।

    यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की जिद से हुआ युद्ध

    रूस का मानना है कि वारसा पैक्ट के साथ ही नाटो को भी खत्म कर देना चाहिए था। क्योंकि, जिसके खिलाफ नाटो का गठन हुआ था। जब वहीं नहीं रहा तो नाटो की जरुरत स्वत: ही समाप्त हेनी चाहिए। पर, हुआ उल्टा। नाटो के विस्तार की भूख ने यूक्रेन को युद्ध की आग में झोंक दिया है। हालात ऐसे बन गया है कि यदि नाटो इस युद्ध का हिस्सा बना तो तिसरा विश्व युद्ध् के साथ परमाणु युद्ध के भड़कने का खतरा है। यदि ऐसा हुआ तो पूरी दुनिया तबहा हो सकती है। वैसे भी इस युद्ध का असर पूरी दुनिया को भुगतना ही होगा। अव्वल तो पेट्रौल और डीजल का दाम बहुत बढ़ेगा और पूरी दुनिया मंहगाई की मार से कराह उठेगी। यूक्रेन संकट केवल सामरिक शक्ति या क्षेत्रीय आधिपत्य की उपज नहीं है। बल्कि, यह रूस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़ा मुद्दा हैं। इसको नाटो और पश्चिमी देशों ने और अधिक उलझा दिया है। अमेरिका की अगुवाई में पश्चिम के देश यूक्रेन में कठपुतली सरकार चाहतें है। जैसा कि उन्होंने सीरिया, इराक, लीबिया, लेबनान और वेनेजुएला में कर चुकें है। फिलहाल, यूक्रेन बर्बाद हो रहा है और बाकी के देश इसमें अपना-अपना फायदा तलाश रहें हैं।

  • जब देशी रियासत ने विलय से इनकार किया तब आजाद भारत ने लॉच कर दिया था ऑपरेशन पोलो

    जब देशी रियासत ने विलय से इनकार किया तब आजाद भारत ने लॉच कर दिया था ऑपरेशन पोलो

    बात वर्ष 1947 की है। ब्रिटिश हुकूमत भारत को आजाद करने का मन बना लिया था। इधर, कई देशी राजे- रजवाड़े भारत में विलय को लेकर मुश्किलें खड़ी कर रहे थे। इधर, जवाहर लाल नेहरू आजाद भारत में राजशाही को खत्म करना चाहते थे। इससे चिढ़ कर कई देशी रजवाड़ा भारत में विलय से इनकार कर दिया और खुद को आजाद मुल्क होने का दंभ भरने लगा। इस बीच वायसराय का एक आदेश, आग में घी का काम कर गया। दरअसल हुआ ये कि वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने राजे रजवाड़ो को अपनी स्वेच्छा से भारत या पाकिस्तान में विलय करने की छूट दे दी। इतना ही नहीं, वायसराय ने रियासत को अपनी इच्छा से आजाद रहने का अधिकार भी दे दिया। यह एक ऐसा अधिकार था, जिससे आजाद भारत के सैकड़ो टूकड़ो में बंटने का रास्ता खुल गया। आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर आजादी की पृष्टभूमि को समझना आज के युवाओं के लिए जरुरी हो गया है।

    आजाद रहना चाहते थे चार रियासत

    KKN न्यूज ब्यूरो। वह 25 जुलाई 1947 का दिन था। वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने दिल्ली में राजे-रजवाड़ों की बैठक बुलाई। इसमें करीब 75 राजा और नवाबो ने हिस्सा लिया। इसके अतिरिक्त करीब 74 राजा ने बैठक में अपने प्रतिनिधि भेजे। हालांकि, बैठक में कोई ठोस निर्णय नहीं हुआ। उल्टे, बैठक से निकल कर भोपाल, हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर के राजा ने भारत में शामिल होने से साफ-साफ इनकार करते हुए खुद को आजाद मुल्क घोषित कर दिया। इससे आजाद भारत के स्वरुप को लेकर असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। सवाल उठने लगा कि देशी रियासत का विलय नहीं हुआ तो अखंड भारत का क्या होगा? स्मरण रहें कि उनदिनो करीब 562 राजा और नवाबों की अपनी रियासत थीं। समस्या ये कि यदि ये सभी रियासतें आजद हो गई। तो देश खंड-खंड में बंट जायेगा।

    मात्र 136 रियासत के साथ आजाद हुआ था भारत

    इधर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने हिम्मत नहीं हारी और प्रयास शुरू कर दिया। उन्होंने 6 मई 1947 को वरिष्ठ नौकरशाह बी.के. मेनन को अपना मुख्य सचिव नियुक्त किया। इसके तुरंत बाद देशी रियासत के भारत में विलय का मुश्किल काम शुरू हो गया। सरदार पटेल ने विलय के बदले राजाओं के सामने प्रिवीपर्स के माध्यम से उन्हें आर्थिक मदद देने का प्रस्ताव रखा। इसका असर हुआ और आजादी के दिन यानी 15 अगस्त तक करीब 136 राजाओं ने अपनी रियासत को भारत में शामिल कर दिया। सहमती पत्र पर सबसे पहला हस्ताक्षर त्रिपुरा की महारानी कंचन प्रभा देवी ने किया। उन्होंने 13 और 14 अगस्त 1947 की दरम्यानी रात हस्ताक्षर कर दिया था। हालांकि संविधान सभा में शामिल होने वाला पहला राज्य बड़ौदा था। वह फरवरी 1947 में ही संविधान सभा का हिस्सा बन चुका था। आपको जान कर हैरानी होगी कि 15 अगस्त को मिली आजादी के बाद इंदौर स्टेट भी भारत का हिस्सा नहीं था। लेकिन, आजादी के कुछ घंटों बाद ही महाराजा होलकर का संदेशा आया और इंदोर का भारत में विलय हो गया।

    आजादी से ठीक पहले त्रावणकोर ने चौकाया

    भारत को गुलामी से मुक्त होने में अब सिर्फ एक रात का फासला शेष बचा था। इस बीच त्रावणकोर के महाराजा उथरादोम तिरुनल मार्तंड वर्मा ने भारत में विलय से इनकार करते हुए खुद को आजाद मुल्क घोषित कर दिया। आजाद भारत में उनको अपना बंदरगाह और यूरेनियम का भण्डार छिन जाने का डर था। उधर, त्रावणकोर के महराजा के इस घोषणा का मो. अली जिन्ना ने स्वागत किया और त्रावणकोर के राजा को पत्र भेजकर उनको पाकिस्तान से रिश्ते बनाने की पेशकश कर दी। इधर, केरल के प्रदर्शकारी ने त्रावणकोर के दीवान सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर पर जानलेवा हमला कर दिया। माना जाता था कि अय्यर ही त्रावणकोर के असली शासक थे। वहां के महाराजा उनके हाथों की कठपुतली हुआ करते थे। इस घटना से महाराजा इतने डर गए कि उन्होंने 14 अगस्त को भारत में विलय पर हस्ताक्षर कर दिया।

    जब लॉच हुआ था ऑपरेशन पोलो

    हैदराबाद के निजाम विलय की राह में सबसे बड़ा अरचन खड़ा कर रहे थे। निजाम मीर उस्मान अली बहादुर ने 12 जून 1947 को हैदराबाद को आजाद देश घोषित कर दिया था। उन्होंने रजाकार के नाम से अपनी निजी सेना बना लिया और किसी भी सूरत पर भारत में विलय को तैयार नही थे। खबर आई कि निजाम ने हैदराबाद को पाकिस्तान में विलय करने की योजना बना ली है। इधर, सरदार पटेल ने 13 सितंबर 1948 को ‘ऑपरेशन पोलो’ लॉच कर दिया। तीन रोज तक चली मामुली लड़ाई के बाद निजाम ने अपने हथियार डाल दिए और हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।

    पाकिस्तान में विलय होने पर अमादा था जूनागढ़

    जूनागढ़ के नबाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में विलय करने की तैयारी कर ली थी। इस बीच भारतीय सेना ने जूनागढ़ रियासत को चारो ओर से घेर लिया। घबरा कर नबाब पाकिस्तान भाग गए और जूनागढ़ को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। इधर, पटेल ने जूनागढ़ की सीमाओं पर फौज की नाकेबंदी कर दिया। आखिरकार 7 नवंबर 1947 को जूनागढ़ का भारत में विलय हो गया।

    भोपाल के नवाब बेटी को सौपना चाहते थे सत्ता

    भोपाल के नवाब हमीदुल्ला खान ने भारत सरकार के सामने शर्त रखी कि उन्हें या तो एक आजाद मुल्क बनने दिया जाए या सेक्रेटरी जनरल बनकर पाकिस्तान जाने दिया जाए। वह भोपाल की कमान अपनी बेटी को सौपना चाहते थे। हालांकि, उनकी बेटी ने इससे इनकार कर दिया। इसके बाद 1948 में नवाब ने भोपाल को आजाद मुल्क घोसित कर दी। विरोध में लोगो ने प्रदर्शन शुरू कर दिया। नबाब ने आंदोलनकारियो को कुचलने के लिए बल प्रयोग किया और गोली चलावा दी। इससे प्रदर्शनकारी और भड़क गये और आखरिकार 30 अप्रैल 1949 को नवाब ने हार मान ली। इसके बाद 1 जून को भोपाल का भारत में विलय हो गया।

    कश्मीर पर हुआ कबायली हमला

    इधर, कश्मीर को लेकर अभी भी असमंजश बनी हुई थी। महाराजा हरि सिंह कश्मीर को आजाद रखना चाहते थे। उधर, पाकिस्ता की नजर कश्मीर पर थी। इस बीच 24 अक्टूबर 1947 की तड़के पाकिस्तान की सह पर कबायली पठानों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। कबायली जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की ओर तेजी से बढ़ने लगा। महाराजा हरि सिंह की फौज में बगावत हो गयी। अधिकांश मुस्लिम सिपाही कबायली के साथ हो गए। संकट बढ़ता देख महराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी और 26 अक्टूबर 1947 को हरि सिंह ने जम्मू कश्मीर का भारत में विलय कर दिया। इसके बाद भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर में फौज उतार दी। बाजी पलटने लगा। इस बीच जम्मू कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। आज भी उस हिस्से पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। यह भारत और पाकिस्तान के बीच आज भी विवाद का विषय बना हुआ है।

    विलय पर पाकिस्तान की मुश्किलें

    ऐसा नहीं था कि विलय की समस्या सिर्फ भारत को परेसान कर रहा था। उधर,  पाकिस्तान के हुक्मरान भी इस बाबत खासे परेसान थे। पाकिस्तान के हिस्से में कुल नौ प्रिंसली स्टेट गया था। बहावलपुर स्टेट के नवाब मो. सादिक ने ठीक 15 अगस्त 1947 को खुद को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया। इस घोषणा के बाद मो. अली जिन्ना सकते में आ गए थे। हालांकि, उनदिनो उनकी दिलचस्पी भारत के रियासत पर अधिक हुआ करता था। वो पाकिस्तान के रियासत को तबज्जो नहीं दे रहे थे। भारत के मोर्चे पर मुहंकी खाने के बाद पाकिस्तान को अपनी रियासत की समस्या सुलझाने में काफी वक्त लग गया। वर्ष 1955 तक इसके लिए पाकिस्तान को मशक्कत करना पड़ा था।

  • रूस को परमाणु हथियार लौटाना यूक्रेन की बड़ी भूल साबित हुई

    रूस को परमाणु हथियार लौटाना यूक्रेन की बड़ी भूल साबित हुई

    यूक्रेन पर रूसी हमला सिर्फ एक युद्ध नही। बल्कि, अन्तर्राष्ट्रीय समझौता की विश्वसनियता को सवालो के घेरे में ला दिया है। यूक्रेन ने समझौता का सम्मान किया और परमाणु हथियार रूस को लौटा दिया। आज वहीं रूस यूक्रेन पर हमला कर रहा है और अमेरिका समेत बाकी के देश तमाशबीन बने बैठे है। यूक्रेन ने दुनिया की बात नहीं मानी होती और परमाणु हथियार रूस को नहीं लौटाया होता तो आज हमला नहीं झेल रहा होता। इस युद्ध ने दुनिया को सबक दिया है कि अपनी सुरक्षा से समझौता करने वाले देश की रक्षा करने कोई नहीं आयेगा। यानी जो कमजोर रह जायेगा। उसको मिटा दिया जायेगा और अन्तर्राष्ट्रीय नियम काम नही आयेगा। यह एक संदेश है और भारत समेत पूरी दुनिया को इससे सबक लेना होगा। अन्तर्राष्ट्रीय विश्वसनियता सवालो के घेरे में है।

    यूक्रेन को मुंह चिढ़़ा रहा है बुडापेस्ट समझौता

    वह 5 दिसंबर 1994 का दिन था। हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में यूक्रेन, बेलारूस, कजाखस्तान, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका के नेताओ ने एक साथ् मिल कर कर एक समझौता किया था। इसको बुडापेस्ट मेमोरंडम ऑन सिक्योरिटी अश्योरेंस कहा गया था। छह पैराग्राफ के इस मेमोरंडम में स्पष्ट तौर पर लिखा गया था कि यूक्रेन, बेलारूस और कजाखस्तान की स्वतंत्रता, संप्रभुता और मौजूदा सीमाओं का सम्मान किया जाएगा। विदेशी शक्तियां इन देशों की क्षेत्रीय संप्रुभता या राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए कभी खतरा नहीं बनेंगी। मेमोरंडम के चौथे प्वाइंट में यह जिक्र है कि अगर परमाणु हथियारों वाला कोई देश यूक्रेन, बेलारूस और कजाखस्तान के लिए खतरा बनेगा तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इन देशों की मदद करेगी। बदले में यूक्रेन को अपने यहां मौजूद करीब पांच हजार परमाणु हथियार रूस को लौटाने थे। यूक्रेन ने समझौते के तहत परमाणु हथियार रूस को लौटा दिया और आज वहीं रूस आज यूक्रेन पर हमला कर रहा है। बारूद की आग में हर ऐ पल यूक्रेन का अस्तित्व नष्ट हो रहा है। आधुनिक यूक्रेन का इन्फ्रास्ट्क्चर मलबा के ढ़ेर में तब्दिल हो रहा है। इंसान, लाशो की ढ़ेर बन रहा है। इधर, अमेरिका समेत बाकी के देश यूक्रेन के बर्बादी का तमाशा देख रहा है। यह सभी कुछ सिर्फ इसलिए हो रहा है, क्योंकि, यूक्रेन ने समझौते के तहत अपना परमाणु हथियार रूस को लौटा दिए। बर्ना, आज तस्वीर दूसरी होती।

    तिसरा बड़ा परमाणु शक्ति देश हुआ करता था यूक्रेन

    1993 तक अमेरिका और रूस के बाद सबसे ज्यादा परमाणु हथियार यूक्रेन के पास था। लेकिन बेहतर रिश्तों की चाह में यूक्रेन ने एटमी हथियार का सारा जखीरा रूस को दे दिया। यही यूक्रेन से बड़ी भूल हो गई। आज यहीं बात युक्रेन को सबसे अधिक परेसान कर रहा होगा। क्योंकि, यदि आज वह परमाणु शक्ति राष्ट्र होता तो उसको बर्बादी की इस मंजर को देखना नहीं पड़ता। हालांकि कई जानकारों ने उसी समय ये कह दिया था कि यूक्रेन जल्दबाजी कर रहा है। सोवियत दौर में न्यूक्लियर बेस के कमांडर रह चुके वोलोदिमीर तोबुल्को बाद में यूक्रेन के सांसद बने थे। उन्होंने 1992 में यूक्रेनी संसद में कहा था कि खुद को परमाणु हथियार मुक्त देश घोषित करना जल्दबाजी होगी। तोबुल्को का तर्क था कि लंबी दूरी की मारक क्षमता के साथ कुछ परमाणु हथियार यूक्रेन के पास होने चाहिए। भविष्य में यह विदेशी आक्रमण को रोकने के काम आयेगा। अमेरिका की शिकागो यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर रह चुके जॉन मेयर्सहाइमर ने 1993 में एक आर्टिकल लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा कि परमाणु हथियारों के बिना यूक्रेन, भविष्य में रूस के आक्रामक रुख का शिकार बन सकता है। उस वक्त ऐसी बात कहने वालों को शांति विरोधी कहा जाता था। पर, आज उनकी कही बातें सच साबित हो रही है।

    सोवियत संघ में ताकतवर था युक्रेन

    सोवियत संघ ने शीत युद्ध के दौरान यूक्रेन में एटम बम और उन्हें ढोने वाली  मिसाइलें तैनात की थीं। उनदिनो यूक्रेन उसी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था। सुरक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक उस वक्त यूक्रेन में करीब पांच हजार परमाणु हथियार हुआ करता था। वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पश्चिम और रूस के संबंध सुधरने लगे थे। सोवियत संघ के सदस्य रहे देश आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका था। उन्हें पश्चिम से आर्थिक मदद और कारोबारी सहयोग की दरकार थी। बदले में शांति व लोकतंत्र का रास्ता चुनना था। रूस समेत ज्यादातर देश इस राह पर निकल पड़े थे। उसी दौर में यूक्रेन ने परमाणु हथियारों को खत्म करने की तैयारी शुरू कर दी। कीव और मॉस्को दोनों को उम्मीद थी कि इस फैसले से आपसी रिश्ते अच्छे बने रहेंगे। इसी दौर में बुडापेस्ट समझौता हुआ और 1996 आते आते यूक्रेन ने सारे परमाणु हथियार रूस को दे दिए। वहीं परमाणु शक्ति संपन्न रूस आज यूक्रेन को तबाह कर रहा है और उसी परमाणु शक्ति की डर से अमेरिका समेत नाटो के अन्य देश खुल कर यूक्रेन के साथ खड़ा होने में हिचक रहा है।

  • लता मंगेशकर का आनंदघन के साथ रहस्यमयी रिश्ता का हकीकत चौकाने वाला है

    लता मंगेशकर का आनंदघन के साथ रहस्यमयी रिश्ता का हकीकत चौकाने वाला है

    जब कोई आवाज सरगम बन कर रूह में उतरने लगे… अंतरमन की गहराई को झंकृत करने लगे… अरमान हिलोरे मारने लगे। तब, बरबस ही लता दीदी की सुरमई आवाज की यादें मन को शीतल कर जाता जाता है। बहुत मुश्किल है, यह कहना कि लता मंगेशकर अब हमलोगो के बीच नहीं है। वह 6 फरबरी 2022 की मनहूस शाम थीं। मुंबई के शिबाजी पार्क में चिता की तेज लपटो के साथ दीदी का पार्थिव शरीर ब्रम्हांड की अंनत कणो में विलिन हो रहा था …। तभी, खामोशी को चिरती हुई एक स्वर लोगो के जेहन में बरबस ही हिलोरे मारने लगा…। नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा। मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे…। लताजी की सुरिली आवाज अंतरमन की गहराई में उतरता चला गया। कहतें हैं कि वर्ष 1977 की फिल्म किनारा के लिए दीदी ने इस गीत को स्वर दिया था। तब किसी ने नहीं सोचा था कि एक रोज यही गीत उनके चाहने वालों को रूला जायेगा। दीदी को चाहने वाले करोड़ करोड़ लोगो की आंखे नम कर जायेगा।

    हेमा के लता बनने की सफर

    बचपन के हेमा की किशोरावस्था में कदम रखने से पहले ही लता बनने की कहानी बड़ा ही दिलचस्प है। दरअसल, बचपन में उनका नाम हेमा मंगेशकर था। हालांकि, किशोरावस्था की दहलिज पर कदम रखने से पहले ही नाम बदल कर लता मंगेशकर रख दिया गया। गयाकी का हूनर लता को विरासत में मिली थ। हालांकि, लता के गायकी की इस हुनर को सबसे पहले पहचाना उस्ताद गुलाम हैदर खान ने। मात्र ग्यारह साल की उमं में लता को सुरो में गुनगुनाते हुए सुन कर उस्ताद गुलाम हैदर साहेब इतने सम्मोहित हो गए कि उन्होंने एक रोज लता को अपने पास बुलाया और उसको अपने साथ लेकर फिल्म निर्माता एस. मुखर्जी के पास पहुंच गए। उनदिनो एस मुखर्जी एक फिल्म बना रहे थे। फिल्म का नाम था ‘शहीद’। हैदर साहेब ने इस फिल्म के लिए लता से गीत गबाने की गुजारिश की। पर, एस. मुखर्जी को लता की आवाज पसंद नहीं आई और उन्होंने लता को अपनी फिल्म में लेने से इंकार कर दिया। इस बात से गुलाम हैदर काफी गुस्सा हो गए। उन्होंने कहा यह लड़की आगे चल कर बड़ी गायिका बनेगी और निर्माता निर्देशक उसे अपनी फिल्मों में गाने के लिए कतार में खड़े दिखेंगे।

    30 हजार से अधिक गीत गाने का बनाया रिकार्ड

    गुलाम हैदर की भविष्यवाणी सच साबित हो गई। वर्ष 1974 आते-आते लताजी का नाम दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने के लिए ‘गिनीज़ बुक रिकॉर्ड’ में दर्ज हो चुका था। अपने करियर में लता मंगेशकर ने तीन दर्जन से अधिक भाषा में करीब 30 हजार से अधिक गीत गाये। ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’…। ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम…’। ‘अजीब दास्तान है ये’…। ‘प्यार किया तो डरना क्या’…। ‘नीला आसमां सो गया’… ‘हमको हमी से चुरा लो…’और ‘रैना बीती जाए’ जैसे अनगिनत सुपरहीट गीत उनके नाम पर दर्ज हो चुका था। फिल्म मधुमती के गाने- ‘आजा रे परदेसी… के लिए वर्ष 1959 में लताजी को पहला मिक्सड वर्ग का अवॉर्ड मिला था। इसके बाद गायिकी के सफर में लता मंगेशकर को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। जिनमें चार फिल्म फेयर पुरस्कार, तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार शामिल हैं। वे राज्य सभा की सदस्य भी रह चुकी हैं। लता मंगेशकर को वर्ष 1969 में पदमभूषण, 1997 में राजीव गांधी सम्मान, 1999 पद्म विभूषण, 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार और 2001 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 2009 में फ्रांस सरकार ने उन्हें ‘ऑफिसर ऑफ फ्रेंच लीजियो ऑफ ऑनर’ से सम्मानित किया था।

    गायक और गायिका को पुरस्कार दिलाने का श्रेय

    बात तब कि है, जब गायक और गायिका को फिल्मफेयर अवार्ड देने का प्रचलन नहीं था। उसी दौर में वर्ष 1957 में शंकर जयकिशन को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिलने वाला था। इस समारोह में लता मंगेशकर को गीत गाने के लिए बुलाया गया। नसरीन मुन्नी कबीर ने अपने किताब ‘इन हर ओन व्याइस’ में लिखती है कि लताजी ने समारोह में गाने से इनकार कर दिया। उन्होंने गायक और गायिका के लिए अवार्ड देने की घोषणा होने तक, ऐसे किसी भी समारोह में गायन करने से मना कर दिया। आगे चल कर लताजी की मांगो के सामने इंडस्ट्री को झुकना पड़ा और गायक-गायिका को भी पुरस्कार मिलने लगा। वैसे तो लता मंगेशकर के जीवन पर आधारित कई पुस्तक उपलब्ध है। पर, लता मंगेशकर को समझने के लिए आप दो पुस्तको का अध्ययन कर सकते है। नसरीन मुन्नी कबीर की लिखी- ‘इन हर ओन व्याइस…’ और दूसर पुस्तक यतिन्द्र मिश्र का लिखा है- ‘लता एक सुर गाथा’…। यह दोनो पुस्तक लताजी के बेहतरीन सफर और खूबसूरत नगमो की जीवित दस्ताबेज है।

    रॉयल्टी को लेकर हुआ था विवाद

    रॉयलटी के मुद्दे पर एक बार वह मो. रफ़ी से भिड़ गई। शोमैन राज कपूर और एच.एम.वी कंपनी से एक साथ पंगा ले लिया। दरअसल 60 के दशक तक गायक को अपने गीत पर रॉयल्टी नहीं मिलती थी। लता ने रिकॉर्डिंग कंपनी एच.एम.वी और प्रोड्यूसर्स से रॉयल्टी की मांग की। लेकिन उनकी मांगो को अनसुनी कर दी गई। इसके बाद लताजी ने एच.एम.वी के लिए गाना रिकॉर्ड करना बंद कर दिया। लता के इस स्टैंड का मो. रफी ने मुखर विरोध किया। विवाद इतना बढ़ गया कि लता ने मो. रफी के साथ गीत गाने से मना कर दिया और करीब तीन साल तक दोनो अलग रहे। इसी मुद्दे पर राजकपूर से भी लता भिड़ गईं और उनके साथ काम करने से मना दिया। हालांकि, 70 के दशक में राज कपूर से दूबारा समझौता हुआ और लता ने फिल्म बॉबी के लिए गाने गये। उन्होंने बॉलीवुड की तीन पीढ़ियो के लिए गीत गाये। इसमें नामचीन एक्ट्रेसेस रेखा, राखी, हेमा मालिनी, साधना, रीना रॉय, मीना कुमारी, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, करीना कपूर, प्रिटी जिंटा, जया बच्चन और काजोल जैसे नाम भी शामिल है।

    जहर देकर मारने की हुई कोशिश

    नसरीन मुन्नी कबीर ने ‘इन हर ओन व्याइस…’ में लिखा है कि लताजी को इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कई दुष्बारियों का भी सामना करना पड़ा। उनको जहर देकर मारने की कोशिश हुई। बात वर्ष 1962 की है। उनदिनो लताजी अचानक बीमार हो गई। जांच में पता चला कि उनको धीमा ज़हर दिया गया है। भोजन में जहर होने का खुलाशा होते ही घर में काम करने वाला नौकर बिना किसी को बताए, अचानक गायब हो गया। उनदिनो नौकर का रिकार्ड रखने का प्रचलन नहीं था। लिहाजा, यह राज हमेशा के लिए राज ही रह गया। एक वाकया और सुनाता हूं। बात वर्ष 1943 की है। कोल्हापुर में एक फ़िल्म की शूटिंग चल रही थी। उस समय की मशहूर गायिका नूर जहां एक गाने की रिकॉर्डिंग के लिए वहाँ आई थीं। उसी फ़िल्म में लता एक छोटी बच्ची की रोल कर रही थी। फ़िल्म के निर्माता ने नूर जहां से बच्ची का परिचय करवाते हुए बोला कि ये लता है और यह गाती भी है। छोटी बच्ची को देख कर नूर जहां उत्सुकता से भर गई और गाने की फरमाइस कर दी। नन्हीं लता ने शास्त्रीय संगीत का ऐसा तान छेड़ कि नूर जहां सुनती ही रह गई। तब नूरजहां ने कहा था कि यह बच्ची एक रोज बहुत आगे जायेगी। वहीं बच्ची आगे चल कर सुरों की मल्लिका यानी लता मंगेशकर बनीं। यहां बतादें कि बंटबारा के बाद नूरजहां पाकिस्तान चली गई और इसका भरपुर लाभ लता मंगेशकर को मिला।

    13 साल की उम्र में पिता का हुआ निधन

    लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर 1929 को मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ था। उनके पिता का नाम दीनानाथ मंगेशकर था। वह एक अच्छे शास्त्रीय गायक थे और नाटकों में भी अभिनय किया करते थे। लता मंगेशकर अपने पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। लता मंगेशकर ने पांच वर्ष की अल्प आयु में शास्त्रीय संगीत और क्लासिकल संगीत की साधना शुरू कर चुकी थी। पिता दीनानाथ मंगेशकर उनके पहले गुरू थे। लताजी अपने पिता के साथ नाटक में काम करने लगी थीं। पिता के निधन के बाद लताजी ने अमान अली खान और अमानत खां से गायकी सीखा। जब लता मंगेशकर मात्र 13 वर्ष की थी तो उनके पिता का निधन हो गया था। परिवार का बोझ लताजी के कांधे आ गई। उन्होंने गायकी को ही अपने कमाई का जारिया बनाया। वर्ष 1942 में एक मराठी फिल्म ‘पहली मंगला गौर’ में एक छोटा सा रोल किया। इस फिल्म में उन्होंने एक गीत भी गाया था। हिन्दी फिल्म में पहला मौका वर्ष 1943 में मिला। उनके पिता के मित्र हुआ करते थे। उनका नाम था विनायक दामोदर। उन्होंने ने ही लताजी को पहला मौका दिया था। हालांकि, यहां लताजी को कोई सफलता नहीं मिली। पहली सफलता मिली कमाल अमरोही की फ़िल्म महल से। गीत के बोल है- ‘आएगा आने वाला…।’ इसके बाद लताजी को कभी फ़िल्मों की कमी नहीं हुई।

    किशोर कुमार से पहली मुलाकात

    मसहूर पार्श्व गायक किशोर कुमार से लता की पहली मुलाकात के किस्से बड़ा ही रोचक है। कहतें है कि 40 के दशक में लता ने गायकी का सफर शुरू किया था। सफर के शुरुआती दिनो में वह अपने घर से लोकल ट्रेन पकड़कर मलाड जाती थी। वहां से कभी पैदल और कभी तांगा से स्टूडियो जाती थी। एक रोज रास्ते में किशोर दा मिल गए। दोनो लोकल से मलाड उतरे और फिर जिस तांगे पर लता बैठी उसी तांगे पर किशोर दा भी बैठ गए। लता जब स्टूडियो की तरफ बढ़ी तो किशोर दा भी साथ चलने लगे। तब दोनो एक दूसरे को नहीं पहचानते थे। लता को उनकी यह हरकतें अजीब लगा। उनदिनो लताजी खेमचंद प्रकाश की एक फिल्म में गाना गा रही थी। लता ने खेमचंद से इसकी शिकायत कर दी। लता को लगा कि कोई मनचला उनका पीछा कर रहा है। तब खेमचंद ने पहली बार दोनो को एक दूसरे से परिचय कराया। इसके बाद दोनो ने एक साथ कई फिल्मो में एक साथ यादगार गीत गाये। लता मंगेशकर ने अपने दम पर इंडस्ट्री में अपना मकाम बनाया। सभी बड़े संगीतकारों के साथ गीत गाये।

    कुछ यादगार नगमे

    वर्ष 1964 में एक फिल्म आई थीं। फिल्म का नाम था ‘वो कौन थी’ इस फिल्म में लताजी ने एक गीत गाया था- लग जा लगे..। यह गीत खूब फेमस हुआ था। इस गीत को साधना और मनोज कुमार पर फिल्माया गया था। इसी प्रकार वर्ष 1966 की फिल्म- मेरा साया… इंडस्ट्री की बेस्ट फिल्मों में से एक मानी जाती है। इस फिल्म का एक गाना है- ‘मेरा साया साथ होगा..।‘ यह गीत साधना और सुनील दत्ता पर फिल्माया गया था। वर्ष 1979 में अमिताभ बच्चन और रेखा अभिनित फिल्म- ‘मिस्टर नटवरलाल’ में- लता की गाई- ‘परदेसिया ये सच है पिया। सब कहते हैं मैंने तुझको दिल दे दिया…।‘ आज भी इस गीत को लोग सुनना पसंद करतें हैं। वर्ष 1980 में फिल्म आशा के लिए- ‘शीशा हो या दिल हो, आखिर टूट जाता है…। आज भी मसहूर है। वर्ष 1994 की ब्लॉकबस्टर फिल्म- हम आपके है कौन- इस फिल्म के लिए ‘दीदी तेरा देवर दीवाना…।‘ और वर्ष 1997 में ‘दिल तो पागल है… । इस गीत को कौन भूल पायेगा? इसी प्रकार वर्ष 2001 में आई फिल्म कभी खुशी कभी गम के लिए ‘मेरी सांसों में तू है समाया…।‘ ऐसे करीब 30 हजार से अधिक गीत गा कर 92 साल की उम्र में लता मंगेशकर हमसे रुख्सत हो गई।

    गीत के जज़्बात और नज़ाकत की समझ

    करियर के आरंभिक दिनों में लताजी रेडियो के पास इस उम्मीद में बैठी रहती थी कि शायद उनके गाये गीत का कोई फरमाइस करें और वह गीत रेडियो पर सुनने को मिल जाये। हालांकि, बाद के दिनो में तो रेडियो पर लता मंगेशकर के गीतो ने धूम मचा दिया था। लता मंगेशकर ने रागों पर आधारित गीत को बहुत ही सहजता से गाएं हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने भजन और गजल भी सहजता से गाए हैं। उन्होंने कुछ चुनिंदा फिल्मो में कव्वाली, मुजरा और कैबरे भी गाये है। स्वयं लताजी को क्लासिकल गीत बहुत पसंद था। कहतें हैं कि लताजी को सुर की साधना में महारथ हासिल हो गया था। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ने एक बार कहा था कि लता कभी बेसुरा नही होती है। लता मंगेशकर ने अपने फिल्मी व्यावसायिक जीवन में हजारों एकल और युगल गीत गाए। उन्होंने लगभग हर गायक के साथ गीत गाए। इसमें किशोर कुमार, मन्ना डे, मुकेश, मोहम्मद रफी, महेंद्र कपूर, कुमार सानू, एस.पी बालासुब्रमण्यम, मोहम्मद अजीज, सोनू निगम और उदित नारायण जैसे गायक का नाम शामिल है। कहतें है कि लता मंगेशकर गीत के जज़्बात और नज़ाकत को अपनी आवाज़ में ऐसे पिरो देती थी कि उसकी खनक सीधे दिल में उतर जाता था। तभी तो स्वर कोकिला और सुर साम्राज्ञी जैसे शब्द भी उनके लिए छोटे पड़ जातें हैं।

    आनंदघन और लता मंगेशकर का रहस्यमयी रिश्ता

    60 की दशक में मराठी फिल्मो में एक म्यूजिक डायरेक्टर आनंदघन का नाम तेजी से उभरा था। करीब चार मराठी फिल्मो के लिए आनंदघन ने संगीत का निर्देशन किया। इसमें से एक मराठी फ़िल्म ‘साधी माणस’ का सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन का पुरस्कार के लिए चयन हुआ था। जिस समय पुरस्कार की घोषणा हो रही थीं। लता मंगेशकर वहां मौजूद थी और अपनी सीट पर बिल्कुल शांत बैठी रही। लोगो को बाद में पता चला कि यह आनंदघन कोई और नहीं, स्वयं लता मंगेशकर ही है। ऋषिकेश मुखर्जी को इसकी जानकारी थीं। जब ऋषिकेश मुखर्जी ने पुरस्कार लेने के लिए आनंदघन उर्फ लता मंगेशकर के नाम की घोषणा की तो सभी अवाक रह गए। हालांकि, लताजी ने पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया था। बाद में लता मंगेशकर ने कई अन्य फिल्मो में अपने नाम से संगीत का निर्देशन किया था। शुरुआती दिनो में उन्होंने कई फिल्मो में अभिनय भी किया था।

    वर्ष  1963 में लताजी को राष्ट्र ने पहचाना

    सुर के इस मल्लिका को मुकम्मल पहचान वर्ष 1963 में मिला। ‘ए मेरे वतन के लोगो, जरा आंख में भर लो पानी। जो शहीद हुए है, उनकी जरा याद करो कुर्बानी…।‘ वर्ष 1963 में इसी गीत के माध्यम से लता मंगेशरक राष्ट्रीय फलक पर स्थापित हो गई थीं। इस गीत को प्रदीप ने लिखा था। वर्ष 1962 में चीन से पराजय के बाद पूरा देश व्यथित था। उसी दौर में प्रदीप के लिखे इस गीत को नई दिल्ली के एक समारोह में जब लता मंगेशकर ने अपने सुरो से सवांरा तो वहां बैठे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आंखों से आंसू छलक गए। कालांतर में यह गीत भारत के लोगों की जुबान पर चढ़ गया और आज भी इस गीत को राष्ट्रप्रेम का मिशाल माना जाता है। उनकी गायिकी किसी एक विधा की मुहताज नहीं रही। मोरा गोरा अंग लइलो…। ऐ दिले नादान…और बाहो में चले आओ…। फेहरिस्त बहुत लम्बा है और इसको शब्दो में समेटना बहुत मुश्किल…। आरडी वर्मन के लिखे गीत- ”बीती न बिताई रैना…।” और ”इन्हीं लोगों ने, ले लिना दुपट्टा मेरा…।” स्वयं स्वयं लता मंगेशकर को बहुत पसंद था। लताजी का एक गीत है- फूल खिलते रहेंगे दुनिया में,
    रोज़ निकलेगी बात फूलों की…। लता मंगेशकर की गायकी को शब्दो में समेटना आसान नहीं है। दीदी आज हमारे बीच नहीं है। पर, उनकी मधुर आवाज हमेशा- हमेशा के लिए दिलो में रहेगा।

  • मीनापुर के लाल ने माउंट यूनाम पीक पर फहराया तिरंगा

    मीनापुर के लाल ने माउंट यूनाम पीक पर फहराया तिरंगा

     हिन्दुस्तान एडवेंचर फाउंडेशन की मदद से ऋतिक ने की 19 हजार फीट की चढ़ाई

    KKN न्यूज ब्यूरो। बिहार के मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर का लाल ऋतिक पटेल ने 19 हजार फीट ऊंची माउंट यूनाम पीक पर 15 अगस्त को तिरंगा फहराने वालों में अपना नाम दर्ज करा लिया है। वह अली नेउरा गांव का रहने वाला है और मार्शल आर्ट में नेशनल अवार्ड प्राप्त कर चुका है। माउंट यूनाम पीक पर तिरंगा फहराने वाले ऋतिक पटेल का अब गांव में बेसब्री इंतजार हो रहा है। ऋतिक ने अपनी उपलब्धि से जिला ही नहीं बल्कि सूबे का नाम रौशन किया है। लिहाजा, उसके गांव पहुंचने पर जोरदार स्वागत करने की तैयारी शुरू हो गई है।

    अलीनेउरा के ग्रामीण और समाजिक कार्यकर्ता हिमांशू गुप्ता के नेतृत्व में ग्रामीणों ने बैठक करके गांव पहुंचने पर ऋतिक के जोरदार स्वागत करने की तैयारी शुरू कर दी है। हिमांशू ने ऋतिक को गांव का गौरव बताया है। गांववाले उसकी उपलब्धियों पर फूले नहीं समा रहें है। कहतें है कि मार्शल आर्ट में नेशनल मेडल प्राप्त करने वाला ऋतिक अब माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करना चाहता है।

    बिहार के चार लड़को के साथ ऋतिक ने की चढ़ाई

    हिन्दुस्तान एडवेंचर फाउंडेशन ने माउंट यूनाम की चढ़ाई के लिए बिहार के ऋतिक समेत कुल चार लड़को का चयन किया था। चयनित लोगों ने 10 अगस्त को चढ़ाई शुरू की और बर्फीली तेज हवाओं के बीच 15 अगस्त को अपने डेस्टिनेशन पर पहुंच कर तिरंगा फहरा कर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। अलीनेउरा के मुखिया रामप्रीत राम, अमन पटेल, रंजन गुप्ता, सोनू कौसिक, विक्की सिंघानिया, अखलाख अहमद, रतन राज, पीयूष वर्मा समेत बड़ी संख्या में लोगो ने ऋतिक को मीनापुर का शान बतातें हुए उसके उज्जवल भविष्य की कामना की है।

  • बाढ़ की समस्या का क्यों नहीं हो रहा है स्थायी समाधान

    बाढ़ की समस्या का क्यों नहीं हो रहा है स्थायी समाधान

    खैरात की आर में मरहम लगाने की कोशिश

    KKN न्यूज ब्यूरो। मानसून की पहली बारिश हुई और पूर्वी भारत का बड़ा इलाका बाढ़ की चपेट में आ गया। खबर नई नहीं है। बल्कि, साल दर साल की एक कड़बी हकीकत बन चुकी है। दरअसल, बिहार सहित भारत के कई अन्य राज्यों में प्रत्येक साल आने वाली बाढ़ की समस्या, जीवन का हिस्सा बन चुकी है। गुलामी के दिनो में लोगो को उम्मीद थीं, कि आजादी मिलते ही इस समस्या से छुटकारा मिल जायेगा। किंतु, आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद, आज भी हम बाढ़ की विभिषिका को झेल रहे है। आखिर क्यों…? आज यह बड़ा सवाल बन चुका है। सवाल यह भी कि हमारी सरकारें कब तक खैरात की आर में जख्म पर मरहम लगाती रहेगी? प्रत्येक साल तबाही मचाने वाली इस बाढ़ का कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं होता? एसे और भी कई सवाल है। .

    खैरात

    सालो भर रहता है तबाही के निशान

    बिहार की कोसी, गंगा और बागमती नदी के बेसिन में बसे गांवों में तबाही के निशान सालो भर देखा जा सकता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी गंगा किनारे वाले इलाके में तबाही के निशान सालो भर देखा जा सकता है। कमोवेश यही हाल ब्रह्मपुत्र बेसिन का है। जो, असाम के बड़े इलाके में तबाही का कारण बन चुकी है। दक्षिण भारत में कावेरी और कृष्णा नदी के इलाके भी बाढ़ की चपेट में है। मध्य प्रदेश में नर्मदा और छत्तीसगढ़ की कुछ नदियां भी प्रत्येक साल भारी तबाही मचाती हैं। इसके अतिरिक्त और भी कई छोटी छोटी नदियां देश के अन्य इलाको में तबाही का कारण बन चुकी है। सवाल उठता है कि बाढ़ की रोकथाम के लिए सरकार क्या कर रही है? ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सरकार ने बाढ़ की समस्या की रोकथाम के लिए कुछ नहीं किया हो। इस रिपोर्ट में हम सरकारी प्रयासो को आंकड़ो की मदद से समझने की कोशिश करेंगे।

    केन्द्रीय बाढ़ नियंत्रण आयोग के कार्य

    भारत सरकार ने 1978 में ही केन्द्रीय बाढ़ नियंत्रण आयोग का गठन करके बाढ़ की रोकथाम के दिशा में पहल शुरू कर दी है। इस आयोग ने अपने एक रिपोर्ट में सरकार को बताया है कि देश में प्रत्येक साल औसत 4 हजार बिलियन घनमीटर बारिश होती है। इसमें मानसून के दौरान होने वाली बारिश के साथ बर्फबारी के बाद बनने वाला पानी को भी शामिल किया गया है। केन्द्रीय बाढ़ नियंत्रण आयोग ने सरकार को जो जानकारी दी है। इसके मुताबिक भारत का करीब 40 मिलियन हेक्टेयर भूभाग पर प्रत्येक साल बाढ़ के पानी फैलने का खतरा बना रहता है। इस सब के बीच आंकड़े खुद गवाही दे रहें कि भारत में बाढ़ पर काबू पाने में सरकारें कितनी कारगर साबित हुई हैं। दरअसल, आयोग के ही एक रिपोर्ट पर गौर करें तो इसमें बताया गया है कि बाढ़ के खतरे वाले 40 मिलियन हेक्टेयर इलाके में से अभी तक मात्र 16.45 हेक्टेयर को ही बाढ़ से संरक्षित किया जा सका है। अब इस आंकड़ा को आप क्या कहेंगे?

    बाढ़ की बड़ी वजह

    भारत में बाढ़ आने की कोई एक वजह नहीं है। असम समेत पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ की बड़ी वजह चीन है। चीन के उपरी इलाकों में भारी बारिश होने से वह पानी निचले इलाका में प्रवेस करके प्रत्येक साल तबाही मचा देता है। इसी प्रकार नेपाल के तराई में भारी बारिश होने की वजह से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रत्येक साल बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो जाता है। बिहार के सीमांचल को सर्वाधिक नुकसान भुगतना पड़ रहा है। हालांकि, तिरहुत, सारण और मिथिलांचल इससे अछूता नहीं है। कोसी नदी का उदगत स्थल तिब्बत और नेपाल से होकर आता है। कहतें हैं कि चीन इन दिनों तिब्बत में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य करा रहा है। इसलिए वहां की नदियों के जरिए भूमि क्षरण की मिट्टी बहती हुई सीमांचल के इलाके में गाद बन कर उपजाउ मिट्टी को बर्बाद कर रही है। इसके अतिरिक्त नदी के मैदानी इलाको में प्रवेस करतें ही वहीं गाद नदियों के पेटी में सिल्ट बन कर जमा हो जाती है। इससे नदी की गहराई प्रत्येक साल कम होती जा रही है। यह बाढ़ का एक बड़ा कारण बनने लगा है।

     

    क्लाइमेट चेंज का असर

    क्लाइमेंट चेंज को भी बाढ़ से जोड़ कर देखा रहा है। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज के एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के तापमान में करीब 0.78 डिग्री की वृद्धि हो गई है। इसके चलते ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगा है। इन ग्लेशियरों के पिघलने से कई बार प्रलयंकारी बाढ़ आ जाता है। अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेयर रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने नदी के धारा की बनाबट में आ रही बदलाव को बाढ़ के लिए बड़ा कारण बताया है। वैज्ञानिको ने अपने अध्ययन में पाया है भारत में गंगा नदी और ब्रह्मपुत्र नदी की धारा में कई बदलाव आया है। वैज्ञानिकों ने 1948 से 2004 के बीच धाराओं के प्रवाह पर विस्तार से अध्ययन किया है। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि दुनिया की करीब एक तिहाई बड़ी नदियों के जल प्रवाह में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इस दौरान कुछ नदियों की प्रवाह में बढ़ोतरी हुई है। वहीं, अधिकांश नदियों की प्रवाह सिकुड़ गई है। वैज्ञानिको ने पाया है कि उत्तर चीन की पीली नदी और भारत की गंगा नदी सहित पश्चिम अफ्रीका की नाइजर और अमेरिका की कोलोराडो में बहने वाली कई प्रमुख नदियो की प्रवाह में अश्चर्यजनक कमी आ गई है।

    करोड़ो रुपये का होता है नुकसान

    भारत में बाढ़ की समस्या कितना विकराल है। इसका अन्दाजा वर्ष 2008 में आई कोसी की बाढ़ से कर सकतें है। कोसी की इस बाढ़ में करीब एक हजार 500 करोड़ के नुकसान होने का अनुमान लगाया गया था। बाढ़ नियंत्रण आयोग के अनुमान के मुताबिक 1951 से 2004 तक देश में आई बाढ़ से करीब साढ़े 800 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है।

    चार स्तर पर जारी है प्रयास

    बाढ़ रोकने के लिये सरकारी स्तर पर चार तरह से काम किये जा रहें हैं। इसमें बाढ़ प्रभावित इलाकों में बांध का निर्माण करना और कटाव की रोकथाम करना शामिल है। इसके अतिरिक्त पानी की तेजी से निकासी हेतु नदियों की सफाई करके सिल्ट को बाहर निकालने की योजना है। सरकार नदी के तलहटी में बसे गांवों को उचाई पर बसाने का भी काम कर रही है। यहां आपको बताना जरुरी है कि भारत के अधिकांश शहर नदियों के किनारे बसे हैं और उनका सीवर ज्यादातर नदियों में गिरता है। लेकिन बारिश और बाढ़ के दिनों में उनकी राह बदल जाती है और ये सीवर ही शहर में जल भराव की वजह बन जाता हैं। पटना, वाराणसी, भागलपुर, गोरखपुर और विशाखापत्तनम में इन्हीं सीवर के सहारे अक्सर पानी का भराव होता है। कोलकाता शहर भी इससे अछूता नहीं है। लिहाजा, सरकार अब इन सीवरों की सफाई पर विशेष ध्यान दे रही है और इसको वनवे बनाने का काम किया जा रहा है।

    जल का संवैधानिक अधिकार

    आपको जान कर हैरानी होगी कि भारत एक ऐसा देश है, जहां जल को भी संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। आज की दौर में जल की यही हैसियत बाढ़ की वजह बन गई है। दरअसल, संविधान में पानी की समस्या को राज्य सूची में रखा हुआ है। यानी इस पर केन्द्र की सरकार चाहे जितनी भी योजना बना लें। किंतु, उस पर अमल करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी होती है। लिहाजा, कई बार बाढ़ नियंत्रण के लिए बनी योजनाएं, राजनीतिक कारणो से धरातल पर उतरने से पहले ही दम तोड़ देती है।

    पेंड़ो की कटाई

    भारत सहित पूरी दुनिया में जिस तरह से पेड़ो की अंधाधूंध कटाई हो रही है। वह भी बाढ़ की बड़ी वजह बन गई है। दरअसल, जंगलो को काटकर मैदान बनाए जा रहे हैं। कंकरीट की कॉलोनियां खड़ी हो रही हैं। इससे प्राकृतिक असंतुलन उत्पन्न हो गया है। इसका खतरनाक पहलू ये कि इससे जल प्रबन्धन का संतुलन भी तेजी से बिगड़ने लगा है। इससे भारत सहित पूरी दुनिया में बाढ़ का खतरा बढ़ने लगा है। इस सब के बीच एक सच यह भी है कि बाढ़ को स्थायी तौर पर रोका नहीं जा सकता है। क्योंकि बारिश और सूखा इंसान के हाथों में नहीं होता है। वर्ष 2005 की जुलाई में मुम्बई में और 2006 में सूरत में हुई बारिश की घटना इसके सबसे बड़े मिशाल है। यहां बाढ़ से नहीं, बल्कि बारिश से तबाही मची थी। हालांकि, यहां एक सच यह भी है कि हम बारिश को भले ही रोक नहीं सकते हो। पर, हम कटाव को जरुर रोक सकते हैं और हमें इस दिशा में इमानदरी से काम करना चाहिए।

    अन्तर्राष्ट्रीय नोडल एजेंसी

    संयुक्त राष्ट्र संघ ने दक्षिण पूर्व एशिया में पानी के प्रबंधन के लिए एक नोडल एजेंसी बनाया हैं। इसके तहत वाटर मैनेजमेंट के लिए एक नॉलेज हब बनाने की योजना है। ताकि, पानी के प्रबंधन से जुड़ी सूचनाएं, बाढ़ और सूखा से जुड़े अध्ययन, और इससे प्राप्त सभी आंकड़े, एक ही मंच पर उपलब्ध हो सके। मेरा मानना है कि बाढ़ पर काबू पाने के लिये सरकार को एक साथ दो मोर्चा पर काम करना होगा। पहला मोर्चा इंजीनियरिंग समाधान की है। जिसके तहत बाढ़ प्रभावित इलाकों में बांधो का निर्माण और कटाव की रोकथाम की कोशिश जारी रखना चाहिए। जबकि, दूसरे मोर्चा पर लोगों को बाढ़ के प्रति जागरूक बनाना होगा। ताकि, आम आवाम पारिस्थिति की सन्तुलन को बनाए रखने की दिशा में खुदसर सजग हो सकें। क्योंकि, अपने भौगौलिक बनाबट की वजह से भारत के लोग कही सूखा तो कहीं बाढ़ की समस्या से अमूमन प्रत्येक साल जूझते है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा के समय नुकसान को न्यूनतम करने के लिए आवाम का जागरुक होना अब बहुत जरुरी है।

  • आसमान से झपट्टा मारती मौत, यानी ठनका… कैसे बनता है

    आसमान से झपट्टा मारती मौत, यानी ठनका… कैसे बनता है

    वायु मंडल में बढ़ता प्रदूषण इसके लिए कितना जिम्मेदार

    KKN न्यूज ब्यूरो। आसमानी बिजली, या यूं कहें कि ठनका…। जो कुछ साल पहले तक कहानियों में हुआ करती थीं। आज आसमान से झपट्टा मारने लगी है। पठारी इलाका में गिरने वाला ठनका अब मैदानी इलाको में मौत बन कर कहर बरपाने लगा है। कैसे बनता है, मौत का बादल और इंसान कैसे इसके चपेट में आ जाता है? इससे बचने का कोई उपाए है? ऐसे और भी कई सवाल मन में उठना स्वभाविक है। आप याद करीये, बड़े-बूढ़े कहा करते थे,  कि जब बारिश हो रही हो, तो बाहर मत निकलो। बारिश के दौरान पेड़ के नीचे या ऊंची इमारत से सट कर खडा होने से रोका जाता था। दरअसल, यह आसमानी बिजली के सीधे असर से बचने के लिए कहा जाता था। हालिया वर्षो में आसमानी बिजली खतरनाक रुप धारण करने लगा है। इसको वायुमंडल में बढ़ते प्रदूषण से जोड़ कर देखा जा रहा है। बहरहाल, अमेरिका में आसमानी बिजली के इंसानों पर असर की स्टडी जारी है। आसमानी बिजली की पहले से भविष्यवाणी करने में विज्ञान को अभी और वक्त लग सकता है।

    प्रत्येक साल 27 हजार लोगो की होती है मौत

    आसमानी बिजली या ठनका की चपेट में आ कर प्रत्येक साल तकरीबन 27 हजार लोग की मौत हो जाती है। बावजूद इसके आसमानी बिजली की भविष्यवाणी आजतक इंसान क्यों नहीं कर सका है? यह बड़ा सवाल है।  सच तो ये है कि वैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं कि आसमानी बिजली का फंडा उनकी समझ और विज्ञान के आम सिद्धांतों से परे है। अभी तक के शोघ से पता चला है कि आसमानी बिजली पांच तरीके से गिरती है और इंसान को मार देती है।

    1- डायरेक्ट स्ट्राइक-  यानी सीधे इंसान के सिर पर बिजली का गिरना। खुले इलाके में काम कर रहे लोग इसके ज्यादा शिकार बनते हैं। ऐसी घटनाएं कम होती हैं, लेकिन ये जानलेवा होती हैं। क्योंकि इंसान का शरीर करीब एक लाख वोल्ट वाली इस आसमानी बिजली को झेल नहीं पाता है। अमेरिका के रहने वाले माइकल अटली के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था। एक तूफानी दिन वो गोल्फ कोर्स में गोल्फ स्टिक हाथ में लेकर शॉट लगाने वाले थे। उसी वक्त अचानक एक धमाका हुआ और फिर उन्हें कुछ याद न रहा। कहतें है कि माइकल, डायरेक्ट स्ट्राइक के शिकार बन गये थे। भारत में मरने वालों में अधिकांश लोग डायरेक्ट स्ट्राइक के शिकार बनतें रहें हैं।

    डायरेक्ट स्ट्राइक, दो तरह से हमारे शरीर पर असर दिखाता है। इंसान के रीढ़ की हड्डी के भीतर कुछ नर्व होता है। दरअसल, यह शरीर का एक पावर हाउस होता है। यहीं से सारी इलेक्ट्रिक तरंगें शरीर के अंगों को संचालित करती है। इसका हमारे दिल पर सीधा असर होता हैं। दिल को धड़कने के लिए हमारे शरीर में बेहद महीन इंपल्स लगे होते हैं। जो आसमानी बिजली के हाई वोल्टस को झेल नही पाता और चॉक कर जाता है। नतीजा हमारे दिल की धड़कने थम जाती है।

    दूसरा ये कि बिजली जब इंसानी खून में प्रवेश करती है। तो, खून में मौजूद इलेक्ट्रोलाइट्स, हमारे शरीर में मौजूद एसिड और सॉल्ट से होते हुए मांसपेशियों को रौद देती है। इसके असर से हमारे खून में मौजूद आरबीसी, डब्लूबीसी और प्लाज्मा की कणो में टूटन होने लगता हैं। हमारा नर्वसिस्टम अचानक काम करना बंद कर देता है और शरीर को लकवा मार जाता है। आसमानी करंट के तेज चमक की चपेट में आने से हमारे आंख की रेटीना मांसपेशी से अलग हो जाता है और कुछ भी दिखाई नही देता है। इसके अतिरिक्त कान का चदरा फट जाने से सुनने की ताकत चली जाती है। कई बार इंसानों के सिर पर बिजली गिरने से ब्रेनहेम्ब्रेज हो जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि त्वचा पर बिजली के आने जाने का निशान भी बन जाता है। जिसको बोलचाल की भाषा में झुलसना कहा जाता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे रिक्टर्न बर्ग स्कार्रस कहते है।

    2- आइड फ्लैस- यह तब होता है जब आसमानी बिजली किसी ऊंची चीज पर गिरती है और उसका एक हिस्सा छिटक कर किसी इंसान पर आ जाता है। ऐसे हालात में वह इंसान उस बिजली के लिए शॉर्ट सर्किट का काम करता है। ऐसा तब होता है जब वह इंसान बिजली गिरने की जगह के एक या दो फुट के फासले पर होता है। ये वो लोग होते हैं जो बारिश में किसी पेड़ के नीचे शरण लिये होते हैं।

    3- ग्राउंड करंट-  जब किसी चीज पर बिजली गिरती है तो वो सीधे धरती का रुख करती है। यदि वहां पर आसपास कोई इंसान खड़ा है, तो वह भी बिजली को महसूस करता है। बतातें चलें कि आसमानी बिजली जब धरती से होते हुए इंसानों तक पहुंचती है, तो वह सबसे अधिक घातक बन जाती है। भारत में होने वाली सबसे अधिक मौत इसी वजह से हुई हैं। यह बिजली शरीर में दाखिल होती है और सीधे दिल और नर्वसिस्टम को नाकाम कर देती है।

    4- कंडक्शन- आसमानी बिजली अगर किसी धातु के तार पर गिरती है, तो उस तार के सहारे वो काफी दूर तक जा सकती है। ऐसे हालात में जिस भी इंसान ने उस धातु की चीज को आगे कहीं भी छू, या पकड़ रखा होगा, उसे तगड़ा झटका लगेगा।

    5- स्ट्रीमर-  एक इंसान से दूसरे इंसान में बिजली का प्रवाहित होना अमूमन ये कम ही देखने को मिलता है। लेकिन अगर आसमानी बिजली गिरती है और फिर एक इंसान से दूसरे के संपर्क में आती है तो वह दोनों इंसानों के लिए घातक हो सकती है।

    भारत में खतरा बढ़ने का है अनुमान

    वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत का मौसम आसमानी बिजली के बनने और गिरने में मददगार बनता जा रहा है। अव्वल तो ये कि आसमानी बिजली जिन बादलों में बनती है, वह अमूमन 10 से 12 किलोमीटर कद के होते हैं। उनका करीबी हिस्सा सतह से 1 से 2 किलोमीटर के फासले पर रहता है। जबकि दूर का हिस्सा 10 से 12 किलोमीटर के फासले पर हो सकता है। रिसर्च से पता चला है कि ऊपरी हिस्से का तापमान गिरकर  -35 से  -45 डिग्री हो जाता है। नतीजा, वहां मौजूद पानी की बूंदें जमकर बर्फ में बदल जाती हैं और बर्फ का यही टुकड़ा नीचे गिरते हुए एक-दूसरे से टकराता हैं। इससे तेज घर्षण होता है और पॉजिटिव और निगेटिव कणो की उत्पत्ति हो जाती है। इसी कणो से ऊर्जा पैदा होती है और यही उर्जा आपस में मिल कर आसमानी बिजली का  रूप ले लेता है।

     दुनिया में आठ हजार लाख बार चमकती है बिजली

    विश्व में प्रत्येक रोज 8 हजार, लाख बार बिजली कड़कती है। एक ऐसा इलाका भी है, जहां आसमानी बिजली कभी विराम ही नहीं लेती। इस इलाके को कभी खत्म न होने वाले तूफान का इलाका कहा जाता है। दरअसल, यह इलाका वेनेजुएला में है। जानकार बतातें हैं कि वेनेजुएला के लेकमरा काइबो को कुदरत का बिजली घर भी कहा जाता है। यहां साल के 365 दिनों में से 260 दिन तूफान आता हैं। यहां बादल का गरजना शायद ही कभी बंद होता है। कहतें हैं कि अक्टूबर के महीने में यहां हर मिनट 28 बार आसमानी बिजली चमकती है और गिरती भी है। वैज्ञानिक भाषा में इसे एवरलॉस्टिंग स्टोर्म या बीकन ऑफ मराकाइबो कहते हैं। गर्मी और नमी के अलावा दलदल वाली जमीन और तीन ओर से पहाड़ों से घिरा ये इलाका हर वक्त आसमानी आतिशबाजी से नहाया रहता है …।

  • फरमाइसी विचारधारा की घातक प्रवृत्ति

    फरमाइसी विचारधारा की घातक प्रवृत्ति

    वह 90 का दशक था। विविध भारती से फरमाइसी गाना के शौकिन लोग रेडियो से चिपक जाते थे। मौजूदा समय में फरमाइसी गाना सुनने का प्रचलन लगभग समाप्त हो चुका है। इनदिनो फरमाइसी न्यूज का प्रचलन पनपने लगा है। किसी चैनल पर पसंद का न्यूज चल रहा है, तो ठीक। वर्ना, बिका हुआ कहतें देर नहीं लगेगा। ताज्जुब की बात ये है कि कहने वाले भी कई बार खुद के अतिरिक्त दूसरे की कही को झूठा बताने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते है। यहीं काम जब दूसरा आपके लिए कर दे, तब अच्छा नहीं लगता है। जरा सोचिए, यहां हर कोई खुद के अतिरिक्त बाकी सभी को झूठा साबित करने पर लगा है। अब इसे मानसिक रोग नहीं, तो और क्या कहें? वक्त की नजाकत देखिए, 90 के दशक में गाना पसंद नहीं आने पर रेडियो जॉकी को कोई बिका हुआ नहीं कहता था। उस कालखंड के लोग आज से अधिक खुश रहते थे। बेशक हमने अधिक ज्ञान प्राप्त कर लिया है। पर, हमारी नकारात्क सोच की वजह से यही ज्ञान आज हमे तनाव की दलदल में धकेल रहा है।

    बात सिर्फ न्यूज तक सिमित नहीं है। बोलने या लिखने वाले सभी पर यह थ्योरी समान रूप से लागू होता है। पसंद का नहीं हुआ तो एैसी की तैसी…। यह जमात सभी विचारधारा में समान रूप से अपना अगल हैसियत बना चुका है। खुद को इंटोलैक्चुअल विचारधारा का स्वांग भरते हुए, दूसरे को गलत ठहराना, मानो जन्म सिद्ध अधिकार बन गया हो। ज्ञानी ऐसा, कि कालजयी पुरुष का कद भी इनके सामने बौना हो जाए। ये इतिहास को अपने नजरिए से पढ़ते है। आधुनिक काल से प्रचीन काल की तुलना करते है। संविधान की जय बोलते है, पर उसको समग्रता में समझने को तैयार नहीं है। विज्ञान की वकालत करते है और विशेष ज्ञान को भूल जाते है।

    अब इसको क्या कहेंगे… डेमोक्रैसी? दरअसल, डेमोक्रैसी में सभी की सुनने के बाद बहुमत से फैसला करने की परंपरा रही है और एक बार निर्णय हो गया तो वही सर्व मान्य होगा। पर, यहां तो कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं है। चाहत ये है कि मैंने जो कहा दिया… उसी को फाइनल मान लिया जाए। अन्यथा फैसला चाहे जो हो… हमारा विरोध जारी रहेगा। क्या यह आरिस्टोक्रैसी नहीं है? सवाल उठता है कि डेमोक्रैसी के सात दशक बीत जाने के बाद, आरिस्टोक्रैसी की प्रवृति का बलबति होना क्या संकेत देता है? क्या हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी… डेमोक्रैसी पर भारी पड़ने लगा है? विचारधारा, कभी फरमाइसी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार दूसरे की विचारधारा को ठेस पहुंचाना… अभिव्यक्ति की आजादी नहीं हो सकता है। इससे सिर्फ और सिर्फ तनाव पनपेगा और यही तनाव अपनी पराकाष्टा पर पहुंच गया तो विनाश की पटकथा लिख देगा। यानी जो बाते आप खुद के लिए सुनना पसंद नहीं करते है। वहीं बातें दूसरो के लिए कहना कहा तक उचित है? किसी को अपमानित करके सम्मानित होने का ख्वाब, कभी पूरा नहीं होता है। अर्थात, सम्मान उसी को मिला है, जिसने दूसरे को सम्मान दिया हो। जाहिर है यह तभी सम्भव होगा, जब फरमाइसी विचारधारा का त्याग करके समग्र विचारधारा का अध्ययन किया जाये। तभी खुद के लिए बेहतर मार्ग की तलाश, सम्भव हो पायेगा।