श्रेणी: KKN Special

  • अनोखी शादी: यहां मरने के बाद भी होते है सात फेरे

    ​संतोष कुमार गुप्ता

    यूपी के सहारनपुर के नटबाजी समाज में अभी भी शादी की अनोखी परम्परा है। यहां मरने के बाद भी सात फेरे के मंत्र पढे जाते है। हर मां-बाप का सपना होता है कि उनके बेटे-बेटी की शादी बडी धूमधाम से हो। इस सपने को पूरा करने के लिए वो कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते और शादी में दिल खोलकर पैसा भी खर्च करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी किसी मरे हुए इंसान की शादी के बारे में सुना है। यह पढकर एक बार तो आप भी चकित रह गए होंगे, लेकिन यूपी में एक जगह ऐसी भी है जहां ये बात सच साबित होती है।

    यूपी के सहारनपुर जिले में नटबाजी समाज वर्षों पुरानी परम्पराओं को आज भी बखूबी निभा रहा है। नटबाजी समाज में सिर्फ जिंदा ही नहीं बल्कि मर चुके बच्चों की शादी भी बेहद धूमधाम से करने की अनोखी परम्परा है।

    हाल ही में मीरपुर के रामेश्वर ने 18 साल पहले मर चुकी अपनी बेटी की शादी हरिद्वार के गांव में रहने वाले तेजपाल के मृत बेटे के साथ हिन्दू रीति-रिवाज के साथ कराई। इस समुदाय में यह परम्परा सादियों से चल आ रही है। यहां मंडप में दूल्हा-दुल्हन की जगह गुड्डा-गुडियां रखे जाते हैं। जानकारी के अनुसार, रामेश्वर की बेटी पूजा की दो साल की उम्र में मौत हो गई थी। उसने बड़ी मुश्किल से हरिद्वार के गाधारोना गांव में तेजपाल के घर मृत दूल्हे की तलाश की। शादी के बाद विदाई भी की गई। इस अनोखी शादी समारोह में करीब पचास लोग बाराती बन कर पहुंचे थे।

    बाल विवाह का विरोधी यह गांव बच्चों के मरने के बाद उनके बालिग होने पर ही विवाह करता है। यहां मान्यता है कि ऐसा करने से उनकी मृत संतान भी अविवाहित नहीं रहती है। इस दौरान बैंड-बाजे के साथ बारात मृत कन्या पक्ष के दरवाजे पर आती है और शादी की सभी रस्में भी पूरे रीति-रिवाज के साथ संपन्न कराई जाती हैं। यही नहीं कन्या पक्ष अपने सामर्थ्य के अनुसार वर पक्ष को दान-दहेज भी देता है। हैं ना चौकाने वाली खबर।

  • गृह प्रबन्धन: गृहिणी की एक चुनौती

    राज किशोर प्रसाद
    आज की आधुनिक परिवेश में गृह प्रबन्धन गृहणियों की एक चुनौती बन गई है। परिवार चाहे एकल हो या संयुक्त गृहिणियों को अपने गृह व परिवार को समुचित प्रबन्धन की कसौटी पर खड़ा करना गृहिणी की दक्षता कुशलता व विवेक पर निर्भर करता है। आज के परिवेश में भाग दौड़ की जिंदगी सीमित संसाधन भारी व बड़ी जिम्मेदारियो के बीच कुशल प्रबन्धन चुनौतियों से भरी पड़ी है।
    प्राचीन  काल से भारतीय परिवारो में गृह प्रबन्ध का बड़ा महत्व रहा है। वर्तमान समय में समुचित गृह प्रबन्ध पर ही परिवार का भविष्य निर्भर करता था। सामान्य रूप से गृह प्रबन्धन समुचित व्यवस्थापन से है जिसके माध्यम से परिवार अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करता है। गृह प्रबन्ध वह मानक है जो परिवार की खुशियां सुख समृद्धि स्वास्थ्य और परिवार के सभी सदस्यों के उज्ज्वल भविष्य को तय करती है। इसके लिये यह जरूरी है कि गृहणी से लेकर गृह के सभी सदस्यों को हर क्षेत्र में प्रत्येक स्तर पर अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से करे।
    पारिवारिक व घरेलू संसाधनो का सदुपयोग गृहणी की सूझ बुझ पर भी निर्भर करता है। मानवीय और अमानवीय उपलब्ध संसाधनो  का सही नियोजन और नियंत्रण गृहणी की दक्षता व कुशलता की कील पर घूर्णन करती है। सफलता कील  की मजबूती पर निर्भर करती है। सफल गृह प्रबन्धन का उद्देश्य उपलब्ध संसाधनो से  उपयोग कर पारिवारिक लक्ष्य की प्राप्ति करना है। इसके लिये जीवन निर्वहन एक नियोजित शैली में होनी चाहिये। समय शक्ति ऊर्जा धन भौतिक वस्तुओ के साथ साथ परिवार के सदस्यों की मनोवृति रुचियों कार्यकुशलता दक्षता ज्ञान सामुदायिक सुविधा के महत्व को समझते हुये संसाधनों में क्रमबद्धता स्थापित करना गृहणी के लिये बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है।

  • मिशाल: लड़कियों ने ही पुरा कर दिए मां बाप के सपने

    भोजपुर एक दंपत्ति ने दुनिया की परवाह किए बिना अपनी तीन बेटियों को पढ़ा लिखा कर अधिकारी बना दिया। अब वही बेटियां मां बाप के सपनो को पंख लगाने में जुटी है। दरअसल, यह एक मिशाल है, आज के बलते समाज की। वाकया भोजपुर के कोईलवर नगर पंचायत की है। यहां के निवासी रविशंकर व वैजयंती के घर लगातार चार बेटियों ने जन्म लिया तो परिवार वालें व रिश्तेदारों को लगा जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा हो। किंतु, माता-पिता ने अपने हौसले को टूटने नहीं दिया। आज उनकी तीन बेटियों ने युवाओं के हिस्से में आने वाली सरकार की नौकरी झटक कर अपने माता पिता के अरमानो को पंख लगा कर समाज के सामने एक बड़ा मिशाल खड़ा कर दिया है।
    आज तीनों बेटियां सुरक्षा बल में अधिकारी बन चुकी है और पूरे इलाके के लिए प्रेरणास्रोत भी बन गई हैं। कोईलवर के एक छोटे से घर में होम्योपैथिक दुकान चला कर अपने परिवार का गुजर-बसर करने वाले रविशंकर प्रसाद के परिवार को देख किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि उनकी तीन लड़कियां रंजना, किरण व रौशनी कामयाबी की ऐसी मिसाल पेश करेंगी। जो, समाज की अन्य बच्चियों के लिए एक उदाहरण बन जायेगा।
    बड़ी बेटी रवि रंजना बिहार पुलिस में सब इंस्पेक्टर है। दूसरी बेटी रवि किरण ने सीआईएसएफ में सब इंस्पेक्टर पद पर तैनात है। वही, तीसरी बेटी रवि रौशनी ने रेलवे में सब इंस्पेक्टर बन कर सफलता का परचम लहरा दिया है। अब तीनों के नक्शे कदम पर चल रही चौथी बेटी रवि रेणु भी अपनी जगह तलाश करने में जुटी है।
    मां बाप ने चार बेटियों को बेटों की तरह पाला पोसा। शर्ट-पैंट पहनना, साइकिल चलाना, बाइक चलाना इन सभी बहनों की आदतो में शुमार है। कोईलवर के सरकारी विद्यालय से स्कूली शिक्षा पूरी कर महाराजा कॉलेज से विश्वविद्यालय की पढ़ाई करने के बाद सभी बहनें सरकारी नौकरी की तैयारी में लग गई थीं और आखिरकार एक-एक कर तीन बहनों ने अपना मुकाम हासिल करके ही दम लिया है।

  • दम तोड़ता लोकतंत्र और धूंध में राष्ट्रीय विकल्प

    जय नारायण प्रसाद
    भारत के आधा से अधिक भूभाग पर भाजपा नीत केन्द्र सरकार का प्रभुत्व है। पिछले चुनावों में मिली भारी जीत से भाजपा का मनोबल उंचा हुआ है। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में मिली जीत से भाजपा के समर्थक व कार्यकर्ता उत्साहित है। माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजनीति का अतुलनीय शिखर पुरुष की संज्ञा दे दी गई है। शोहरत की नई उपलब्धी से गदगद मोदीजी अब नबीन भारत बनाने की कल्पना करने लगें हैं।
    नबीन भारत कैसा होगा? कब होगा? इन सवालो के जड़िए, सोचने वालो की कल्पना में दो सम्भावनाएं है। 1. नोटबंदी से जिस तरह 6 फीसदी कालाधन बैंको में आ गया है, उसी तरह शेष 94 फीसदी कालाधन भी सरकारी खजाने में आ जायेगा। सचमुच प्रत्येक खाताधारी के बचत खातों में 15 लाख रुपये आने की घोषणा सत्य सावित होगी। प्रति वर्ष दो करोड़ बेरोजगारो को रोजगार मिल जायेगा। इसके अतिरिक्त प्रयास बढ़ा कर हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर घर को बिजली व शौचालय, पीने का स्वच्छ पानी, उपलब्ध हो जायेंगे।
    हम न खायेंगे, न खाने देंगे… के तर्ज पर सत्ता व उनके प्रहरी यथा न्यायपालिका, कार्यपालिका व मीडिया भ्रष्टाचार मुक्त हो जायेंगे। किसान के कृषि ऋण माफ हो जायेंगे। पैदावार की लागत खर्ज का डेढ़ा गुणा मूल्य किसानो को मिलने लगेगा। सभी जल स्त्रोतो को स्वच्छ करते हुए, शहरो व गांवो को स्वच्छ करते हुए स्वच्छ भारत अभियान सफल होगा।
    मेक इन इंडिया के जरिये स्वदेशी उत्पाद पर बल देकर निर्यात को बढाया जायेगा तथा आयात घटा कर शून्य कर दिया जायेगा। देश के भीतरी व बाहरी खतरो से निपटा जायेगा। युवा वर्ग को आरएसएस के घटको से जोड़ कर पार्टी को सशक्त व सुदृढ़ बनाया जायेगा। इस तरह पार्टी व देश दोनो के लिए अच्दे दिन अवश्य आ जायेंगे। ऐसे अच्दे दिन आने के लिए कमसे कम पांच या सात वर्षो तक धैर्य रखना होगा।
    मोदीजी की दूरदर्शिता काबिले तारीफ है। भूमि आबंटन के जिस हथियार से माननीय ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में लम्बे अर्से से राज कर रहे कम्यूनिष्टो को किसान बिरोधी साबित करके धरासायी कर दिया, उसी हथियार का इस्तेमाल कर गुजरात में उन्होंने 45 हजार एकड़ भूमि टाटा समूह को कारखाना खोलने के लिए देकर, देश के बड़े उद्दोगपतियो की नजर में पूंजीवाद के संरक्षक के रुप में सर्वोत्तम बन गये और पार्लियामेंट के चुनाव में सर्व मान्य बन कर उभरे।
    संघ के इशारो पर चलने वाली भाजपा में किसी अन्य नेता को संघ के फैसले का प्रतिकार करने का साहस नही हो पाया और आप सर्वमान्य नेता बन कर उभरे। यही नही, बड़े उद्योगपतियो व पूंजीपतियो ने तन मन धन से आपकी पार्टी को अजेय बहुमत के साथ पार्लियामेंट भेज दिया। सत्त की महक आतें ही अपनी ही पार्टी के अनुभवी व कद्दावर नेताओं को आपने पार्टी से दरकिनार कर दिया। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में हिन्दुत्व का खुला एजेंडा चलाया और जीते भी।
    दुर्भाग्यवश इनमें से कोई भी लेनिन, माओत्से तुंग, होचीमिन, कोई फिदेल कास्त्रो या ह्यूगो सावेज पैदा नही हो रहा है। जो इनमें एकता स्थापित कर सके और 21वीं सदी का लाल इतिहास बना सके। मुझे विश्वास है कि वामपंथी एकता से भारत का राष्ट्रीय विकल्प बन जाता तो धार्मिक कट्टरपंथ पैदा नही होता। शोषण मुक्त विकासवाद व वैज्ञानिक समाज का निर्माण होता। देश की अखंडता बनी रहती। मैत्रीपूर्ण विदेश नीति फलीभूत होती। धर्म, शोषण आदि की जड़ो में पलने वाला आतंकवाद का खौफ सदा के लिए मिट जाता।
    वामपंथी बिकल्प हो सकता है। जब पार्टी पदो पर चिपके अपनी जवानी की मात्र एक दो घटनाओं का लगातार हवाला देते हुए पार्टी के बड़े पदो पर चिपके वर्तमान असमर्थ सीनियरो को ठेल कर युवा वर्ग आगे आवे। वेसे युवा वर्ग जो धर्म, जाति, निहित स्वार्थ, कुत्सित भावनाओ से दूर राष्ट्रहीत में मानवता के उच्च मूल्यों के लिए कुर्बानी देने को तैयार हो।
    परिस्थियां अनुकूल होती जा रही है। क्योंकि, आज की सत्ता में अफसर व नेताओं में अधिकांश भ्रष्ट है। भाई भतीजा करने वालें हैं। रिश्वतखोर हैं। ऐसे में येग्य मेधावी युवा आर्थिक पिछड़ेपन के कारण सरकारी नौकरी से बंचित होते जा रहें हैं। बंद होते उद्योग के कारण रोजगार के अवसर से पिछड़ते जा रहें हैं। हत्या, अपराध, लूट को संरक्षण देने वाली सत्ता को उखाड़ फेकने में क्या युवा वर्ग का नेतिक कर्तव्य नही है? क्या वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रह कर निराशा की बदहाल जिन्दगी जीते रहेंगे? ऐसे में स्वामी विवेकानंद की वाणी स्मरणीय है -जागो, उठो और तब तक नही रुको जब तक लक्ष्य नही पा लो। मुझे अटूट विश्वास है कि एक न एक दिन युवा वर्ग धूंध चीर कर नया सुखद राष्ट्रीय विकल्प अवश्य लायेंगे।

  • बाहरी लोगो देखते ही मार देतें हैं नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड के आदिवासी

    कौशलेन्द्र झा
    नई दिल्ली। एक ओर 21वीं सदी की चकाचौध और दुसरी ओर हमारी परंपरा। कहतें हैं कि आज हम वैश्विीकरण की दौर में है। दुसरी ओर एक ऐसा समाज, जहां पहुंचतें ही बाहरी लोगो की हत्या कर दी जाती है। जी हां… भारत में आज भी मौजूद है नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड। यहां के मूल निवासी बाहरी लोगो को देखते ही उसे मार देतें हैं।
    भारत सरकार ने सन 1967 से 1991 के बीच यहां के लोगों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास के तहत कई प्रयास भी किये। नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड के मूल निवासियों से संपर्क साधने के प्रयास भी हुए। किंतु, टापू के मूल निवासियों बाहर के समाज से जुड़ने से इनकार कर दिया। इतना ही नही बल्कि, सरकारी प्रयास के दौरान भी स्थानीय लोगों ने आक्रामकता दिखाई। बाद में केन्द्र की सरकार ने 1991 के बाद से नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड के निवासियो से संपर्क करने के प्रयास नही कियें हैं। बहरहाल, भारत सरकार ने इस इलाके को exclusion zone घोषित करके यहा किसी बाहरी शख्स के प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया है।
    बतातें चलें कि वर्तमान में इस जनजाति की जनसंख्या कितनी है यह अभी तक एक अनसुलझा सवाल ही है। अनुमान के अनुसार इस जनजाति से संबंधित लोगों की संख्या 100 से 200 तक हो सकती है। इस जनजाति से जुड़े लोगों के जीवन से संबंधित कोई भी ऐसी चीज नहीं मिल पाई है, जिससे इनके विषय में विस्तार से पता चल सके। प्राचीन जनजातियों के विषय में शोध करने वालो को भी इनके बारे में कुछ भी ठीक से नही मालुम है। क्योंकि, ये इतने खूंखार हैं कि अपने करीब किसी को आने ही नहीं देते।

  • लोहा तोड़ती है चूड़ी वाली नरम कलाई से

    ​अहले सुबह हाथ में थाम लेती है हथौड़ा

    खुद भट्टी मे़ं तपकर बच्चो के पेट की ज्वाला करती है शांत

    मध्य प्रदेश के घूमंतु जातियो ने गंजबाजार पर डाला डेरा

    लोहे के कृषि यंत्रो को खुद करते हैं तैयार

    संतोष कुमार गुप्ता

    वह तोड़ती पत्‍थर,
    देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
    वह तोड़ती पत्‍थर.
    कोई न छायादार
    पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
    श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
    नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
    गुरू हथौड़ा हाथ,
    करती बार-बार प्रहार :-
    सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

    सुर्यकांत त्रिपाठी निराला के तोडती पत्थर कविता को मुस्तफागंज बाजार पर मध्य प्रदेश के घूमंतू जाति के महिलाओ ने सच्च साबित कर दिया है। मप्र के विदिशा जिले के सिरौने गांव से आने वाले इन परिवारो की हालत सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। सरकारी सुविधाओ से मरहूम धर्मेंद्र लोहार का परिवार दर दर भटकने को विवश है। धर्मेंद्र लोहार भले ही आर्थिक तंगी व परिवार के समस्याओ के चलते दर दर भटक रहा हो। किंतु इसके कलाकृति के लोग कायल है। धर्मेंद्र पुरा देश भ्रमण करते हुए मुस्तफागंज बाजार पर डेरा डाला है। वह लोहे को तोड़ कर किसानो के लिए यंत्र बनाता है। जहां एक ओर जिलास्तरीय किसान मेले मे स्टॉल पर बड़े बड़े कम्पनी मक्खी मार रहे थे। ठीक उसी समय मुस्तफागंज बाजार के फुटपाथ पर इनके द्वारा तैयार यंत्र खरीदने को मारामारी थी।

    पांच बजे सुबह से शाम सात बजे तक हथौड़ा थामती है हीना

    मप्र विदिशा के धर्मेंद्र सुबह चार बजे बिछावन छोड़ देता है। वह सुबह मे ही आग की भट्टी तैयार करता है। पांच बजे से उसकी पत्नी हीना बाई घन(बड़ा वाला हथौड़ा) थाम लेती है। दिन मे एक घंटे के मध्यांतर को छोड़ दे तो वह शाम सात बजे तक हथौड़ा चलाती रहती है.वह भट्टी पर तपकर भी गोद का बच्चा अजय दो साल को आंचल मे समेट कर दूध पिलाकर पेट की ज्वाला को शांत करती है.उसका बखूबी साथ उसकी देवरानी कमलाबाई निभाती है। वह चूड़ी वाले नरम कलाई से पसीना बहाकर किसानो के काम आने वाले यंत्र को तैयार करती है। हीना के जेठानी बजरी बाई के फटाफट हथौड़ा चलाने के अंदाज को देख कर दंग रह जायेंगे आप। हालांकि उसको इस बात का कसक है कि आर्थिक तंगी के कारण उसने कुछ वर्ष पूर्व पति को खो दिया है। तीन बच्चो की चिंता हमेशा सताती रहती है। धर्मेंद्र अपना पुरा परिवार लेकर रविवार की शाम मुस्तफागंज बाजार पर पहुंचा है। दस लोग है टीम मे.कोई आग की भट्टी पर तपता है,तो कोई हथौड़ा चलाता है। तो कोई तैयार समान को बेचता है। धूप,ठंड और बारिश मे भी खुले आसमान के नीचे काम करना पड़ता है।

    बाजार से कम दाम पर मिलते है खुबसूरत यंत्र

    जहां बाजार मे लोहे का तैयार यंत्र चार सौ रूपये किलो मिलता है.वही ये लोग महज दो सौ रूपये किलो खुबसूरत यंत्र बेचते है.हसिया,फसूल,दबिया,हथौड़ा,छेनी,सुम्मा,वसूली,व अन्य यंत्रो को कुछ मिनट मे ही तैयार कर देता है।बिक्री भी खूब हो रही है।इस काम मे धर्मेंद्र के भाई शेर सिंह लोहार व कपिल लोहार भी सहयोग करते है.किंतु धर्मेंद्र को मलाल है कि महगांई के इस दौर मे इतनी मेहनत के बाद भी बड़ी मुश्किल से दाल रोटी का दाम निकल पाता है।

    नही मिला सरकारी कोई सुविधा

    धर्मेंद्र का परिवार छह माह तक देश के विभिन्न जगहो पर रूक कर परम्पारिक यंत्र तैयार कर बेचता है। छह माह घर पर ही बीतता है.विदिशा मे सरकारी जमीन मे फूस का घर है.सरकारी सुविधा कुछ नही मिला। राशन व किरासन भी नही.खाने से पैसा नही बचता है कि वह बच्चो को पढाये.इतने पैसे नही की जमीन खरीद कर घर बनाये। बस अपना पेशा को आगे बढा रहे है।

  • वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच फंसा राष्ट्रवाद

    कौशलेन्द्र झा

    राजनीति बामपंथ की हो या दक्षिणपंथ की। पर, राजनीति तो राष्ट्र के लिए ही होनी चाहिए। कही, ऐसा तो नही कि बाम और दक्षिण वाले अपने अपने लिए दो अलग राष्ट्र चाहतें हो? हो सकता है कि इसके बाद कट्टरता और समरशता के नाम पर भी बंटबारे की मांग उठने लगे। कही, धर्म या जाति को आधार बना कर राष्ट्र के बंटबारे की योजना तो नही है? हालात यही रहा तो आने वाले दिनो में कोई अपने लाभ के लिए महिला और पुरुष के नाम पर भी दो राष्ट्र बनाने की मांग कर दे तो, किसी को आश्चर्य नही होगा।

    सोचिए, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राष्ट्र के टुकड़े टुकड़े करने की खुलेआम नारेबाजी और एक आतंकवादी का शहादत समारोह भारत के अतिरिक्त किसी और देश में होता तो क्या होता? क्या पाकिस्तान में कोई भारत जिंदावाद का नारा लगा सकता है? आपको याद ही होगा कि 1962 में चीन भारत युद्ध के बाद भी यहां चीन जिंदावाद के नारे लगाने वाले करीब 4 हजार लोगो को जेल भेजा गया था। क्या कभी आपने सुना है कि चीन में भारत जिंदावाद का नारा लगा हो? क्यों हम अपने हाथों से अपना घर तबाह करना चाहतें है? क्या यही राजनीति है? सोचिए, शरहद पर तैनात सैनिक जब अपने ही कथित रहनुमाओं की बातें सुनते होंगे तो उन पर क्या असर होता होगा? आखिरकार हम कब तक दक्षिणपंथ और बामपंथ के बीच, उनके नफा नुकसान के लिए पिसते रहेंगे?

    मुझे नही पता है कि इस राजनीति का लाभ दक्षिणपंथ को होगा या बामपंथ को? पर, राष्ट्र को इसका नुकसान होना तय हो गया है। राजनीति का आलम ये हैं कि यहां लाश की जाति पता करने के बाद तय होता है कि आंसू बहाने में लाभ होने वाला है या चुप रहने में? सियाचिन के शहीदो को श्रद्धांजलि देने में अधिक लाभ है या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित राष्ट्र बिरोधी को शहीद बताने में अधिक लाभ होगा? दरअसल, कतिपय कारणो से हमारी बंटी हुई जन भावना हमें तमाशबीन रहने को विवश करती है। नतीजा, राजीतिक लाभ हेतु थोड़े से लोग हमे 16 टुकड़ों में बांट देने का धमकी देकर उल्टे गुनाहगार भी हमी को बता देतें हैं। आखिर कब तक हमारे अपने ही अपनो को बेआबरु करते रहेंगे? क्या यही है हमारी सात दशक पुरानी आजादी है…?

  • कश्मीर समस्या का अनकही सच

    कौशलेन्द्र झा

    यह एक दिलचस्प बात है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं लेकिन चुनाव यहां सिर्फ 87 सीटों पर ही होता है। क्या आप जानतें हैं कि 24 सीटें खाली क्यों रहती हैं? दरअसल, ये 24 सीटें वे हैं, जो भारत सरकार ने कश्मीर के उस एक तिहाई हिस्से के लिए आरक्षित रखी हैं, जो आज पाकिस्तान के कब्जे में है।

    पाक के इस हिस्से के विस्थापितों ने सरकार से कई बार कहा कि जिन 24 सीटों को आपने पीओके के लोगों के लिए आरक्षित रखा है उनमें से एक तिहाई तो यहीं जम्मू में बतौर शरणार्थी रह रहे हैं। इसलिए क्यों न इन सीटों में से आठ सीटें इन लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएं? जानकार मानते हैं कि अगर सरकार इन 24 सीटों में से एक तिहाई सीट इन पीओके रिफ्यूजिओं को दे देती है तो इससे भारत सरकार का दावा पीओके पर और मजबूत होगा और इससे पूरे विश्व के सामने एक संदेश भी जाएगा।

    इसके अलावा पीओके के विस्थापितों की मांग है कि उनका पुनर्वास भी उसी केंद्रीय विस्थापित व्यक्ति मुआवजा और पुनर्वास अधिनियम 1954 के आधार पर किया जाना चाहिए जिसके आधार पर सरकार ने पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए लोगों को स्थायी तौर पर पुनर्वासित किया था। कहतें है कि इन लोगों के घरवाले 1947 के कत्लेआम में जम्मू आ गए। 12 लाख के करीब इन पीओके शरणार्थियों को आज तक उनके उन घरों, जमीन और जायदाद का कोई मुआवजा नहीं मिला जो पाकिस्तान के कब्जे में चले गये हैं।

    इन शरणार्थियों में नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि एक तरफ सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में चली गई इनकी संपत्ति का कोई मुआवजा इन्हें नहीं दिया दूसरी तरफ यहां से जो लोग पाकिस्तान चले गए, उनकी संपत्तियों पर कस्टोडियन बिठा दिया जो उनके घरों और संपत्तियों की देख-रेख करता है। एक और परेशानी काबिलेगौर है। 1947 में पलायन करने वाले लोगों में से बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जिनका जम्मू-कश्मीर बैंक की मीरपुर शाखा में पैसा जमा था। पलायन के बाद जब ये लोग यहां आए और बैंक से अपना पैसा मांगा तो बैंक ने उनके दावे खारिज कर दिए। बैंक का कहना था कि उसकी मीरपुर शाखा पाकिस्तान के कब्जे में चली गई है और उसका रिकॉर्ड भी पाकिस्तान के कब्जे में है इसलिए वह कुछ नहीं कर सकते। यह एक तरह का फ्रॉड नही तो और क्या है? इन 17 लाख विस्थापितों के आंकड़ों के सामने आबादी की जमीनी हकीकत देखी जाय तो जम्मू कश्मीर में लगभग 25 फीसदी कश्मीरियों ने पूरी सत्ता पर कब्जा कर रखा है और वे इसमें राज्य के अन्य लोगों को साझेदार बनाने को तैयार भी नहीं हैं।

  • टूटी कुर्सी, कहीं विचारधाराओं में बदलाव का संकेत तो नही?

    कौशलेन्द्र झा

    मुजपफ्फरपुर। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले, हम भारतवंशियों को आखिर ऐसा क्या हो गया है? क्यों हम अपने ही आचरणों से अपना ही जगहसाई होने के बावजूद गौरवान्वित महसूस करते हैं? महज, एक जीत की जुगत में दूसरो पड़ कुत्सित व अधारहीन लांछन लगाते हैं।

    जी हॉ…। मैं बात कर रहा हूं, प्रजातांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन का। मैं बात कर रहा हूं, अपने रहनुमाओं की, जिनका आचरण चुभने लगा है। देश के सबसे निचले सदन… यानी, पंचायत समिति में बैठे हमारे माननीय जब कुर्सी पटकने लगे तो इसे क्या कहेंगे? महज एक घटना या बदलते राजनीति का संकेत?

    दरअसल, विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कुर्सी पटकना हमारी राजनीतिक संस्कृति बनती जा रही है। कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के लिए यह पुरानी बातें हैं। वहां अलग अलग परिवेश से जीत कर लोग आते हैं। किंतु, पंचायत समिति में तो हम सभी एक ही समाजिक परिवेश से है। कोई चाचा है तो कोई बहन…। बिहार के मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर प्रखंड मुख्यालय में पंचायत समिति की बैठक के दौरान पिछले दिनो जो हुआ, वह एक ज्वलंत मिशाल है, हमारी समाजिक चेतना के गिरते स्तर का।

    बात सिर्फ सदन में कुर्सी पटकने की नही है। बड़ी बात ये है कि क्या सत्ता के मद में हम अपने समाजिक रिश्तो की मर्यादा को भूल गयें हैं? क्या हमारी संस्थाएं, हमारे समाजिक मूल्यों को तार- तार करने को आमदा हो गई है? क्या, बेजान कुर्सी को पटकने से महिला सशक्तिकरण हो जायेगा या महिला की आर में की जा रही राजनीति से समाज के कमजोर तबको का विकास हो जायेगा? या, फिर इसे हम महज एक राजनीति परंपरा के रुप में अब गांव में स्थापित करना चाहतें हैं? सवाल, और भी है…।

    दरअसल, हालात निम्नतर होता जा रहा है। समाजिक तानाबाना बिखरने के कगार पड़ है। ऐसे में हम उम्मीद किससे करें? कठपुतली बने प्रशासन से या समाज के कथित प्रबुध्द लोगो से? ऐसे प्रबुध्द लोगो से जो यह मान कर चलते हैं कि यह मेरा काम नही है? दरअसल, आज के मौजू में यह बड़ा सवाल है और हम इसे आपके चिंतनशील विवेक की कसौटी पर छोड़े जाते हैं।