KKN गुरुग्राम डेस्क | भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जहाँ संस्कृति, भूगोल और आर्थिक स्थिति हर राज्य में अलग-अलग है, वहाँ खुशहाली का मापदंड बेहद महत्वपूर्ण बन जाता है। हाल ही में HappyPlus Consulting द्वारा जारी Indian Happiness Index 2025 ने यह दर्शाया है कि जीवन की गुणवत्ता केवल आय या संसाधनों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि सामाजिक सहयोग, भावनात्मक संतुलन और पर्यावरणीय कारकों पर भी आधारित होती है।
हैप्पीनेस इंडेक्स को मापने के प्रमुख मानदंड
इस रिपोर्ट में राज्यों की रैंकिंग निम्नलिखित मानकों पर आधारित की गई है:
जीवन संतुष्टि (Life Satisfaction)
भावनात्मक स्वतंत्रता (Emotional Freedom)
सामाजिक सहायता समूह (Social Support Groups)
पसंद की स्वतंत्रता (Freedom of Choice)
उदारता और परोपकार (Generosity)
आर्थिक स्थिरता
सांस्कृतिक समृद्धि
स्वच्छ और सुरक्षित पर्यावरण
भारत के सबसे खुशहाल राज्य 2025
1. हिमाचल प्रदेश – भारत का सबसे खुशहाल राज्य
हिमाचल प्रदेश को भारत का सबसे खुशहाल राज्य घोषित किया गया है। इसकी प्राकृतिक सुंदरता, शांत जीवनशैली और समुदाय के बीच गहरा संबंध यहाँ की खुशहाली का मुख्य आधार हैं। पहाड़ियों की गोद में बसा यह राज्य लोगों को मानसिक सुकून, साफ हवा और जीवन का संतुलित दृष्टिकोण देता है।
2. मिज़ोरम
मिज़ोरम ने खुशहाली के क्षेत्र में अपनी मजबूत सामाजिक संरचना, सामूहिकता और पारंपरिक मूल्यों के कारण दूसरा स्थान हासिल किया है। यहाँ के लोग आपसी सहयोग और सामाजिक जिम्मेदारी को प्राथमिकता देते हैं।
3. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह
प्राकृतिक सौंदर्य, शांत जीवनशैली और कम जनसंख्या दबाव के कारण अंडमान और निकोबार तीसरे स्थान पर हैं। यहाँ के निवासी प्रकृति के करीब रहते हैं और मानसिक रूप से संतुलित जीवन जीते हैं।
4 से 10 तक के राज्य
रैंक
राज्य
4
पंजाब
5
गुजरात
6
सिक्किम
7
पुदुचेरी
8
अरुणाचल प्रदेश
9
केरल
10
मेघालय
ये राज्य आर्थिक स्थिरता, सांस्कृतिक समृद्धि, और प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग की वजह से शीर्ष 10 में स्थान रखते हैं।
पंजाब और गुजरात: आर्थिक स्थिरता और सांस्कृतिक गर्व का मेल
पंजाब, जोकि सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है और जहां परिवारिक एवं सामाजिक संबंध बेहद मजबूत हैं, चौथे स्थान पर रहा। वहीं गुजरात को उसकी औद्योगिक प्रगति, उच्च रोजगार दर और आधुनिक बुनियादी ढांचे के कारण पाँचवाँ स्थान प्राप्त हुआ।
केरल, सिक्किम और मेघालय: पर्यावरण और स्वास्थ्य के प्रतीक
सिक्किम की जैविक खेती, केरल की स्वास्थ्य सेवाएं और मेघालय की प्रकृति-निष्ठ जीवनशैली ने इन्हें खुशहाली की सूची में शामिल किया है। ये राज्य न केवल आर्थिक रूप से बल्कि भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य के स्तर पर भी संतुलित हैं।
भारत के सबसे कम खुशहाल राज्य: उत्तर प्रदेश सबसे नीचे
उत्तर प्रदेश को इस साल की रिपोर्ट में सबसे कम खुशहाल राज्य घोषित किया गया है। इसके पीछे प्रमुख कारण हैं:
सामाजिक और आर्थिक असमानता
बढ़ती जनसंख्या
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
महिला सुरक्षा और कानून व्यवस्था की चुनौतियाँ
मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी
यह रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि केवल विकास कार्य या आधारभूत संरचना ही खुशहाली की गारंटी नहीं देते।
खुशहाली की खाई: भारत के राज्यों में असमानता
हिमाचल और मिज़ोरम जैसे राज्यों की सफलता यह दिखाती है कि अगर नीति निर्धारण में सामुदायिक विकास, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और भावनात्मक स्थिरता को प्राथमिकता दी जाए, तो जीवन की गुणवत्ता बेहतर हो सकती है।
वहीं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हमें समावेशी विकास और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
खुशहाल भारत के लिए जरूरी कदम
नीति निर्धारकों को अब केवल GDP और विकास दर के आंकड़ों से आगे बढ़कर नागरिकों के जीवन स्तर, मानसिक स्वास्थ्य, और सांस्कृतिक पहचान पर केंद्रित योजनाएं बनानी चाहिए।
नीचे कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं जो भारत को और अधिक खुशहाल राष्ट्र बना सकते हैं:
शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष फोकस
सामुदायिक भागीदारी और समर्थन कार्यक्रम
पर्यावरण संरक्षण और शहरी नियोजन
मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार
युवाओं के लिए रोजगार के बेहतर अवसर
इंडियन हैप्पीनेस इंडेक्स 2025 यह दर्शाता है कि खुशी का कोई एक सूत्र नहीं है — यह समाज, संस्कृति, आर्थिक स्थिति, भावनात्मक स्वतंत्रता और पर्यावरणीय कारकों का एक समग्र परिणाम है।
अगर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर नीतियों में बदलाव करें और विकास के साथ-साथ जीवन की गुणवत्ता पर ध्यान दें, तो आने वाले वर्षों में भारत के सभी राज्य खुशहाली की दौड़ में शामिल हो सकते हैं।
भारत की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए गृह मंत्री अमित शाह आज लोकसभा में इमीग्रेशन एंड फॉरेनर्स बिल 2025 पेश करने जा रहे हैं। इस बिल के जरिए भारत में अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे। अगर यह बिल कानून बन जाता है, तो भारत के आव्रजन और विदेशी नागरिकों से जुड़े चार पुराने कानून खत्म हो जाएंगे। इनमें फॉरेनर्स एक्ट 1946, पासपोर्ट एक्ट 1920, रजिस्ट्रेशन ऑफ फॉरेनर्स एक्ट 1939 और इमिग्रेशन एक्ट 2000 शामिल हैं।
यह बिल भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए विदेशी नागरिकों के प्रवेश और उनके भारत में रहने को कड़ी निगरानी में लाने का प्रस्ताव करता है। इसके तहत अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने वाले विदेशी नागरिकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। साथ ही, यदि कोई व्यक्ति सुरक्षा के लिहाज से खतरा बनता है या धोखाधड़ी से नागरिकता प्राप्त करता है, तो उसे कड़ी सजा दी जाएगी।
इमीग्रेशन एंड फॉरेनर्स बिल 2025 के प्रमुख प्रावधान
इमीग्रेशन एंड फॉरेनर्स बिल 2025 को लेकर कई महत्वपूर्ण बदलाव प्रस्तावित किए गए हैं। यह बिल देश में विदेशी नागरिकों के प्रवेश और निवास को लेकर कड़े नियम लागू करेगा। इसे पारित होने के बाद, भारत की सीमा सुरक्षा मजबूत होगी और अवैध प्रवासियों के खिलाफ ठोस कदम उठाए जाएंगे।
अवैध विदेशी नागरिकों पर सख्त कार्रवाई इस बिल में अवैध रूप से भारत में रहने वाले विदेशी नागरिकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का प्रस्ताव है। यदि कोई व्यक्ति भारत में अवैध रूप से प्रवेश करता है या फिर सुरक्षा के लिहाज से खतरा बनता है, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। इसके अलावा, यदि किसी विदेशी नागरिक का भारत में प्रवेश दूसरे देशों के साथ रिश्तों को प्रभावित करता है, तो उसे देश में प्रवेश से रोकने का प्रावधान होगा।
आव्रजन अधिकारियों का निर्णय अब अंतिम होगा इस बिल में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि आव्रजन अधिकारियों का निर्णय अब अंतिम और बाध्यकारी माना जाएगा। पहले, सरकार को विदेशी नागरिकों को भारत में प्रवेश से रोकने का अधिकार था, लेकिन यह प्रावधान स्पष्ट रूप से किसी कानून में नहीं था। अब इस विधेयक के तहत यह प्रक्रिया और अधिक स्पष्ट और प्रभावी बन जाएगी।
वीजा उल्लंघन पर सख्त प्रावधान अगर कोई विदेशी नागरिक अपनी वीजा अवधि समाप्त होने के बाद भी भारत में अवैध रूप से रहता है, तो उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की जाएगी। इसके तहत उन्हें तीन साल तक की सजा और 3 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
झूठे दस्तावेजों पर कड़ी सजा यदि कोई विदेशी नागरिक बिना वैध पासपोर्ट या यात्रा दस्तावेजों के भारत में प्रवेश करता है, तो उसे पांच साल तक की सजा या 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा, यदि कोई व्यक्ति धोखाधड़ी से पासपोर्ट प्राप्त करता है या जाली दस्तावेजों का इस्तेमाल करता है, तो उसे दो साल से लेकर सात साल तक की सजा हो सकती है, और जुर्माना भी लगाया जा सकता है। जुर्माने की राशि ₹1 लाख से लेकर ₹10 लाख तक हो सकती है।
भारत की सुरक्षा को प्राथमिकता यह बिल भारत की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। इसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि जो विदेशी नागरिक देश के लिए खतरा हो सकते हैं, उन्हें भारत में प्रवेश से रोका जा सके। साथ ही, किसी व्यक्ति का भारत में प्रवेश सुरक्षा, विदेश नीति या अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को प्रभावित करता है, तो उसे रोका जा सकता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा में सुधार भारत के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। इस बिल का उद्देश्य अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों के खिलाफ कड़े कदम उठाना है, ताकि देश की संप्रभुता और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। इस कानून के तहत उन विदेशी नागरिकों पर शिकंजा कसा जाएगा, जो फर्जी दस्तावेजों के जरिए भारत में रह रहे हैं।
इमीग्रेशन कानूनों में बड़ा बदलाव
इमीग्रेशन एंड फॉरेनर्स बिल 2025 भारत के पुराने और अव्यवस्थित आव्रजन कानूनों को समाप्त करेगा। इन पुराने कानूनों में कई ऐसे प्रावधान थे जो आज के समय में अप्रासंगिक हो गए थे। अब इस बिल का उद्देश्य एक नया और सुधारित इमीग्रेशन सिस्टम पेश करना है, जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता को बेहतर ढंग से सुनिश्चित कर सके।
भारत में अवैध आव्रजन और विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर सरकार की नीति सख्त हो रही है। पहले कई नियम थे, लेकिन अब उन्हें स्पष्ट और प्रभावी तरीके से लागू करने का वक्त आ गया है।
क्या है इस बिल का महत्व?
भारत के लिए इस बिल का महत्व बहुत ज्यादा है, क्योंकि यह विदेशी नागरिकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा जो देश की सुरक्षा के लिए खतरे का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा, यह बिल उन विदेशी नागरिकों को भी सजा देगा जो भारत में बिना वैध दस्तावेजों के रह रहे हैं। इससे भारत की सुरक्षा मजबूत होगी और अवैध घुसपैठियों की संख्या में कमी आएगी।
सरकार इसे अपनी सुरक्षा को मजबूत करने की दिशा में एक बड़ा कदम मान रही है। यह बिल सरकार को उन विदेशी नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार देगा, जो देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं।
इस बिल से होने वाले बदलाव
इस बिल से भारत में आव्रजन से जुड़े पुराने नियमों में बदलाव होगा। यह भारतीय सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के साथ-साथ विदेशी नागरिकों के लिए एक नया कानूनी ढांचा भी पेश करेगा। भारत में इस तरह के सुधार लंबे समय से जरूरी थे, और अब सरकार इन बदलावों को लागू करने के लिए पूरी तरह तैयार है।
सरकार का दृष्टिकोण
इस बिल के जरिए सरकार अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता दे रही है। हालांकि, कुछ विपक्षी दलों और मानवाधिकार समूहों ने इस बिल के प्रावधानों पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि यह कानून विदेशी नागरिकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा, जो मानवाधिकारों का उल्लंघन हो सकता है। फिर भी, सरकार ने स्पष्ट किया है कि इस बिल का उद्देश्य किसी विशेष समूह को निशाना बनाना नहीं है, बल्कि यह भारत की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए है।
इमीग्रेशन एंड फॉरेनर्स बिल 2025 भारत के इमीग्रेशन कानूनों में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाएगा। यह बिल आव्रजन से जुड़े पुराने नियमों को खत्म करेगा और एक नया, सख्त सिस्टम लागू करेगा। यदि यह बिल पारित होता है, तो भारत में अवैध रूप से रह रहे विदेशी नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई तेज होगी, जिससे देश की सुरक्षा में सुधार होगा।
भारत सरकार इस बिल को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता को मजबूत करने की दिशा में एक बड़ा कदम मान रही है। इसके जरिए अवैध घुसपैठियों पर कड़ी नजर रखी जाएगी और भारत के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी।
भारत के विदेश मंत्री, डॉ. एस. जयशंकर ने हाल ही में लंदन स्थित चथम हाउस में कश्मीर मुद्दे पर महत्वपूर्ण बयान दिए। उन्होंने भारत सरकार द्वारा कश्मीर में उठाए गए कदमों के बारे में बताया और पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जाए गए कश्मीर के हिस्से की भारत में वापसी की आवश्यकता को लेकर अपनी बातें साझा की। जयशंकर के ये बयान न केवल कश्मीर की स्थिति को लेकर भारत की नीति को स्पष्ट करते हैं, बल्कि पाकिस्तान-आधारित कश्मीर (POK) को लेकर भारत के संकल्प को भी मजबूत करते हैं।
कश्मीर में भारत सरकार के द्वारा उठाए गए कदम
भारत के विदेश मंत्री ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत सरकार द्वारा किए गए कई महत्वपूर्ण कदमों पर प्रकाश डाला। सबसे पहले, उन्होंने अगस्त 2019 में जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का जिक्र किया, जिसे कश्मीर में शांति और स्थिरता लाने के लिए महत्वपूर्ण कदम माना गया। जयशंकर के अनुसार, अनुच्छेद 370 को हटाने से कश्मीर में भारतीय राज्य की पूरी संप्रभुता सुनिश्चित हुई।
इसके बाद, कश्मीर में सामाजिक न्याय, आर्थिक गतिविधियों और विकास को बहाल करने की दिशा में सरकार ने कई महत्वपूर्ण पहल की। उन्होंने यह भी बताया कि कश्मीर में चुनावी प्रक्रिया को बहाल किया गया और इन चुनावों में लोगों ने भारी संख्या में मतदान किया। इससे यह साबित हुआ कि कश्मीर के लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पूरी तरह से भागीदार हैं।
POK (Pakistan Occupied Kashmir) की वापसी: जयशंकर की बातों का केंद्र
हालांकि, जयशंकर ने यह भी साफ किया कि जम्मू और कश्मीर के सभी मुद्दे तब तक हल नहीं हो सकते जब तक पाकिस्तान के कब्जे में कश्मीर का हिस्सा भारत को वापस नहीं मिल जाता। उन्होंने कहा, “हम कश्मीर के उस हिस्से का इंतजार कर रहे हैं, जो पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। जब यह हिस्सा हमें वापस मिलेगा, तब कश्मीर का मुद्दा पूरी तरह से सुलझ जाएगा।” जयशंकर ने स्पष्ट किया कि भारत की दृष्टि में कश्मीर तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक POK (पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए कश्मीर) को भारत में शामिल नहीं किया जाता।
यह बयान भारत की उस पुख्ता नीति को व्यक्त करता है, जिसके तहत भारत कभी भी पाकिस्तान-आधारित कश्मीर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे को हल करने के लिए भारत की स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट है और एक बार जब POK वापस आ जाएगा, तो कश्मीर का मुद्दा सुलझ जाएगा।
POK पर भारत का संकल्प: संसद का प्रस्ताव
जयशंकर ने पहले भी कई बार पाकिस्तान-आधारित कश्मीर (POK) को लेकर भारत के दृढ़ संकल्प का उल्लेख किया है। 2024 में दिल्ली विश्वविद्यालय के गर्गी कॉलेज में एक बातचीत के दौरान, जयशंकर ने कहा था, “POK भारत का हिस्सा है और भारत का हर राजनीतिक दल इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि POK को भारत में वापस लाया जाएगा। यह हमारे राष्ट्रीय संकल्प का हिस्सा है।”
उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद POK का मुद्दा भारतीय नागरिकों की सोच में फिर से जाग्रत हुआ है। जयशंकर का मानना है कि कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने के बाद ही POK के मुद्दे पर लोगों की जागरूकता बढ़ी है, और यह अब भारतीय राजनीति का एक अहम हिस्सा बन चुका है।
भारत के लिए POK कभी बाहर नहीं था
इसके अलावा, जयशंकर ने 2024 में एक और बयान दिया था, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि पाकिस्तान-आधारित कश्मीर कभी भी भारत से बाहर नहीं गया था। “POK कभी भी हमारे देश से बाहर नहीं था। यह हमेशा भारत का हिस्सा है,” उन्होंने कहा। उनका यह बयान भारतीय संसद के उस प्रस्ताव का हवाला था, जिसमें POK को भारत का अविभाज्य हिस्सा घोषित किया गया था।
जयशंकर ने यह भी कहा कि भारत ने शुरूआत में पाकिस्तान से इस क्षेत्र को खाली करने का अनुरोध नहीं किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान ने इस क्षेत्र पर अवैध कब्जा कर लिया। उन्होंने कहा, “जब आपके पास एक जिम्मेदार रखवाले नहीं होते, तो कोई बाहरी ताकत आपका सामान चुरा सकती है।”
POK को लेकर लोगों की यादें: जयशंकर का बयान
भारत के विदेश मंत्री ने यह भी कहा कि लोगों को POK के मुद्दे को भुला दिया गया था, लेकिन अब भारत सरकार ने इस मुद्दे को फिर से जन-जागरूकता का हिस्सा बना दिया है। उन्होंने कहा कि सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाकर POK के मुद्दे को फिर से लोगों के सोचने के केंद्र में ला दिया है। उनका मानना है कि इस मुद्दे को सही समय पर उठाना आवश्यक था ताकि भारतीय नागरिकों को इस मुद्दे के बारे में जागरूक किया जा सके।
भारत की विदेश नीति और POK का भविष्य
जयशंकर के बयान से यह स्पष्ट होता है कि भारत पाकिस्तान के साथ संबंधों में POK को एक प्रमुख मुद्दा मानता है। कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के साथ भारत की बातचीत हमेशा से ही उथल-पुथल रही है, और जयशंकर के बयान ने यह साबित कर दिया कि भारत इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं है।
यह भारत की राष्ट्रीय संप्रभुता और सुरक्षा से जुड़ा हुआ एक संवेदनशील विषय है। भारतीय सरकार ने हमेशा यह कहा है कि जम्मू और कश्मीर का पूरा क्षेत्र भारत का है और इसे किसी भी परिस्थिति में पाकिस्तान के कब्जे में नहीं रहने दिया जाएगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव
भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे को लेकर तनाव हमेशा बना रहा है, और जयशंकर के बयान से यह साफ है कि भारत किसी भी तरह से कश्मीर के उस हिस्से को पाकिस्तान के कब्जे में नहीं देख सकता। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत कश्मीर का मुद्दा हल करने के लिए पूरी तरह से तैयार है, लेकिन इसके लिए पाकिस्तान को जम्मू और कश्मीर के हिस्से को खाली करना होगा।
POK का मुद्दा कभी नहीं रुक सकता
जयशंकर के बयान इस बात को एक बार फिर से स्पष्ट करते हैं कि पाकिस्तान-आधारित कश्मीर (POK) भारत के लिए एक कभी न खत्म होने वाला मुद्दा है। भारतीय सरकार की इस मामले में नीति स्पष्ट है कि POK को भारत में वापस लाना उसकी राष्ट्रीय संप्रभुता और एकता की आवश्यकता है।
भारत के लिए कश्मीर का मुद्दा तब तक हल नहीं हो सकता जब तक POK भारत में वापस नहीं आता। जयशंकर ने इस मुद्दे को जन-चेतना का हिस्सा बनाने की जरूरत जताई और यह सुनिश्चित किया कि भारत सरकार इस मुद्दे को लेकर किसी भी प्रकार की नरमी नहीं दिखाएगी।
भारत की सरकार का यह संकल्प कश्मीर की पूरी संप्रभुता सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास करेगा, और पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर को वापस लाने की दिशा में कदम उठाएगी।
KKN न्यूज ब्यूरो। आज हम आपको इतिहास के पन्नों में लेकर चलेंगे। आपको आजादी का मतलब बतायेंगे। यह जरूरी इसलिए है क्योंकि, इसको लेकर आज कई तरह की बहस शुरू हो गई है। अलग- अलग दलीलें दी जा रही है। हम उस दौर में जी रहें हैं, जहां सवाल भी सवालों के घेरे में है। ऐसे में हम आपके लिए गुलाम भारत की महत्वपूर्ण कहानी संक्षेप में लेकर आये हैं। इस्ट इंडिया कंपनी के आने से लेकर भारत के आजाद होने तक…। क्या हुआ… कैसे हुआ और क्यों हुआ? ऐसे तमाम सवालों को टटोलने की कोशिश के साथ कई दिलचस्प और अनकही ब्रिटिश इंडिया के सेनेरियों के साथ…।
गौरवमयी इतिहास क्यों उलझा
ब्रिटिश इंडिया के दिनों की संघर्ष, जुझाडूपन और उम्मीदें कहा गुम हो गई? हमने अपने राजनीतिक नफा नुकसान की वजह से अपने ही गौरवमयी इतिहास को उलझा दिया है। सही तस्वीर के अभाव में लोग गुमराह होने लगे हैं। इसका सर्वाधिक खामियाजा युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। सवाल उठता है कि बातों को आसान भाषा में कैसे समझा जाये? इसके लिए पूरी कहानी को चार हिस्सों में या चार कालखंडों में बांट कर, समझने की कोशिश करतें हैं।
पहला कालखंड 149 वर्षो का
पहला कालखंड 1608 से शुरू होकर 1757 तक का है। करीब 149 वर्षो का यही वह दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी भारत में कदम रखे थे। इससे पहले फ्रेंच, पुर्तगाली और डच के काराबारियों का भारत में दबदबा कायम हो चुका था। उनदिनों सूती कपड़ा, रेशम, काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी के उत्पादन का सबसे कड़ा हब भारत हुआ करता था। यूरोप को इसकी जरूरत थी। अपनी इन्हीं जरूरतों को पूरा करने के लिए ब्रिटेन ने इस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति दे दी।
समुद्र के रास्ते सूरत पहुंची कंपनी
अनुमति मिलते ही वर्ष 1608 में ईस्ट इंडिया कंपनी की पहली जहाज समुद्र के रास्ते सूरत पहुंचती है। भारत में उस समय मुगल शासक जहांगीर का हुकूमत चल रहा था। कंपनी बहादुर ने जहांगीर को महंगा- महंगा तोहफा देकर उसका दिल जीत लिया। इसके बाद बादशाह जहांगीर ने कंपनी को यानी इस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की छूट दे दी।
बादशाह को दिया मंहगा तोहफा
कंपनी बहादुर ने भारत में व्यापार करने के साथ- साथ भारत की राजनीति में भी दखल देना शुरू कर दिया। बादशाह को यूरोप से आई महंगी तोहफा का ऐसा चस्का लगा कि उन्होंने, कंपनी के व्यापार टैक्स में भारी छूट दे दी। इसी के साथ कारोबार की सुरक्षा के लिए कंपनी को सेना की छोटी टुकड़ी रखने की अनुमति भी मिल गया। खेला यही से शुरू हो गया। फ्रेंच, पुर्तगाली और डच से आये कारोबारी इस्ट इंडिया कंपनी के सामने अब बौना पड़ने लगे थे।
कंपनी ने की टैक्स में चोरी
बादशाह से टैक्स में छूट मिलते ही कंपनी ने भारत को लूटना शुरू कर दिया। हालात ये हो गया कि कंपनी के कई अधिकारी चोरी छिपे अपना निजी कारोबार करने लगे थे। यानी कंपनी बहादुर ने टैक्स की चोरी शुरू कर दी। एक तरफ तो पहले से टैक्स में भरपुर छूट मिला हुआ था। दूसरे कि उसमें भी चोरी होने लगी। अब इस्ट इंडिया कंपनी ने दोनों हाथ से भारत से लूटना शुरू कर दिया।
नबाब ने जब्त की कंपनी की संपत्ति
बंगाल के नबाब सिराजुद्दौला को बात समझ में आने लगा था। नतीजा, नवाब ने कंपनी बहादुर का विरोध कर दिया। सिराजुद्दौला ने बंगाल में टैक्स की चोरी पर रोक के आदेश दे दिए। हालांकि, कंपनी के अधिकारी पर इस आदेश का कोई असर नहीं हुआ। इसके बाद नबाब की सेना ने कंपनी के कलकत्ता की संपत्ति जब्त कर ली और इस दौरान कंपनी के कई बड़े अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया।
कंपनी ने क्लाइव को कलकत्ता भेजा
उनदिनों बंगाल के अतिरिक्त मद्रास में कंपनी के करोबार का बहुत बड़ा हब था। वहीं मद्रास, जिसको आज चेन्नई कहा जाता है। उनदिनों कंपनी की ओर से रॉबर्ट क्लाइव मद्रास में तैनात थे। वो नौसेना के अधिकारी थे और बंगाल की घटना के बाद क्लाइव को मद्रास से बंगाल भेज दिया गया। बंगाल पहुंचते ही क्लाइव ने सिराजुद्दौला के सेना में फुट डाल दी। क्लाइव को जैसे ही लगा कि उसकी योजना सफल हो चुकी है। उसने सिराजुद्दौला पर हमला कर दिया।
पलासी में हुआ युद्ध
वह साल 1757 का था और युद्ध पलासी के मैदान में लड़ी गई थी। इसलिए इस युद्ध को पलासी का युद्ध कहा जाता है। सिराजुद्दौला के सेनापति थे मीर जाफर…। जो अंग्रेज से मिल चुके थे। नतीजा, सिराजुद्दौला पलासी की लड़ाई हार गए और मीर जाफर ने उनकी हत्या कर दी। भारत में अंग्रेज अधिकारी की यह पहली बड़ी जीत थी। इस जीत के बाद अंग्रेजों ने भारत पर सीधा हुकूमत करने की जगह मीर जाफर को अपना कटपुतली बना कर नबाब की गद्दी पर बैठा दिया और बंगाल पर शासन करने लगे। हालांकि, यह लम्बा नहीं चला और बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजो ने मीर जाफर को गद्दी से उतार कर भारत पर सीधा हुकूमत शुरू दिया। गुलात भारत की पटकथा यहीं से शुरू होता है। पलासी और बक्सर के युद्ध को विस्तार से समझना चाहते है तो केकेएन पर पहले से वीडियो उपलब्ध है। आप चाहे तो देख सकते है।
दूसरा कालखंड 100 साल
यहां से दूसरा कालखंड शुरू होता है। यह कहानी करीब 100 साल की है। इसको आप 1757 से 1857 तक का कालखंड मान सकते है। कहतें हैं कि जल्दी ही कंपनी को लगने लगा कि कठपुतली नवाब काम नहीं आ रहें हैं। इस बीच मीर जाफर भी अपनी ताकत बढ़ाने लगा था। फिर बक्सर की लड़ाई हुई और फाइनली 1765 में मीर जाफर की मौत के बाद कंपनी ने रियासत अपने हाथ में ले लिया। शुरू के दिनों में मुगल बादशाह ने थोड़े प्रतिकार जरूर किये। पर, जल्दी ही उनको बात समझ में आ गई और मुगल बादशाह शाह आलम ने अंग्रेजो के साथ एक समझौता कर लिया। इसके तहत कंपनी को बंगाल का दीवान बना दिया गया। बंगाल का मतलब था आज का पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा और बंगलादेश…।
अंग्रेजों की नजर हिन्दुस्तान पर
आसाम को छोड़ कर करीब- करीब पूरा पूर्वी भारत पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। यही से भारत में कंपनी बहादुर का अपना अस्तित्व शुरू हो जाता है। मोटे तौर पर पहले फेज की कहानी में हम आपको यह बात बता चुके है। बंगाल विजय के बाद अंग्रेजों की नजर अब पूरे हिन्दुस्तान पर था। यानी अंग्रेज अब पूरे हिन्दुस्तान को अपने अधीन करना चाहते थे। किंतु, यहां अंग्रेजों के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं। दक्षिण में टीपू सुल्तान और विंध्य में मराठा…। दरअसल, टीपू सुल्तान ने फ्रेंच व्यापारियों से मजबूत गठजोड़ कर लिया था। उसकी सेना भी अपेक्षकृत अधिक मजबूत थी। दूसरी ओर मराठा दिल्ली के जरिए देश पर शासन करना चाहते थे।
टीपू की मौत और मराठा पराजित
कंपनी ने टीपू और उनके पिता हैदर अली से कुल चार युद्ध लड़े। अंतिम युद्ध 1799 में हुआ। यह लड़ाई श्रीरंगपट्टनम में हुई थी और इसमें टिपू सुल्तान मारे गए। इधर, पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा सैनिक बुरी तरीके से पराजित हो गए। इस हार के बाद मराठा साम्राज्य टुकड़ों में बंटा। इस बीच कंपनी बहादुर ने 1819 में पुणे के पेशवा को कानपुर के पास बिठुर में ही समेट दिया था। इस बीच, पंजाब बड़ी चुनौती बन कर उभरने लगा था। महाराजा रणजीत सिंह जब तक रहे… तब तक उन्होंने अंग्रेजों की दाल नहीं गलने दी। लेकिन 1839 में उनकी मौत के बाद हालात बदलने लगा। दो लड़ाइयां हुई और दस साल बाद पंजाब पर अंग्रेज काबिज हो गये।
अंग्रेजों ने बनाई उत्तराधिकार कानून
अब तक अंग्रेज काफी मजबूत हो चुके थे। वर्ष 1848 में लॉर्ड डलहौजी ने उत्तराधिकार कानून बना दिया। इस कानून के तहत जिस शासक का कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होता था… उस रियासत को कंपनी अपने कब्जे में ले लेती थी। इसी कानून को आधार बना कर कंपनी बहादुर ने सतारा, संबलपुर, उदयपुर, नागपुर और झांसी को इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन करने का फरमान जारी कर दिया। कहतें है कि लॉर्ड डलहौजी के इसी फरमान के बाद भारत में 1857 की क्रांति का बीजारोपण हो गया था।
मंगल पांडेय ने किया विद्रोह
अंग्रेज अधिकारी भारत के लोगों को हीन भाव से देखने लगे थे। इससे आम लोगो में असंतोष उभरने लगा था। इस बीच खबर आई कि नई बंदूक के कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी का लेप है। इससे कंपनी के भारतीय सिपाही भड़क गए। सबसे पहले मेरठ के बैरक में सिपाही मंगल पांडेय ने 1857 में विद्रोह कर दिया। कंपनी ने मंगल पांडेय को तत्काल फांसी पर चढ़ा दिया और विद्रोह में शामिल अन्य सिपाहियों को कठोर यातानाएं दी गई।
झांसी, अवध और दिल्ली में विद्रोह
सिपाहियों का गुस्सा फुट पड़ा। झांसी, अवध और दिल्ली होते हुए विद्रोह की चिंगारी बिहार तक पहुंच गई। दूसरी ओर लॉर्ड डलहौजी के उत्तराधिकार कानून के खिलाफ पनप रहे असंतोष ने विद्रोह का रूप ले लिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कंपनी बहादुर के खिलाफ खुला जंग का ऐलान कर दिया। कंपनी के अधिकारी कुछ समझ पाते इससे पहले नाना साहेब के नेतृत्व में मराठा सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इस बीच मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने विद्रोह का कमान अपने हाथों में लेकर अंग्रेजों की मुश्किल बढ़ा दी।
कुछ राजवंशों ने दिया धोखा
कंपनी की सत्ता भारत में लड़खाने लगी थी। अंग्रेज घबरा कर भागने लगे थे। देश आजाद होने के बहुत करीब पहुंच चुका था। तभी पश्चिम के कुछ राजवंशो ने इस्ट इंडिया कंपनी से हाथ मिला लिया। इससे अंग्रेजों का हौसला बुलंद हुआ और ताकत के दम पर विद्रोह को कुचल दिया गया। इस तरीके से देश को आजादी मिलते- मिलते रह गई।
तीसरा खालखंड 57 वर्षो का
कहानी का तीसरा कालखंड कुल मिला कर 57 वर्षो का कालखंड है। यानी 1858 से लेकर 1915 तक का कालखंड…। वर्ष 1857 का विद्रोह अब लगभग शांत हो चुका था। पर, अंग्रेज सकते में थे। इस बीच जून 1858 में ब्रिटिश संसद ने एक कानून पारित किया। इसके तहत भारत की शासन सत्ता को ईस्ट इंडिया कंपनी से छिन कर अब सीधे ब्रिटेन की महारानी ने अपने हाथों में ले लिया। यानी यहां से अब भारत प्रत्यक्ष् रूप से ब्रिटेन का गुलाम हो गया।
ब्रिटेन ने बनाया इंडिया काउंसिल
पिछले करीब 100 साल से हम इस्ट इंडिया कंपनपी के गुलाम थे। अब सीधे ब्रिटेन के गुलाम हो गए। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के सदस्य को भारत का मंत्री बना दिया गया। शासन चलाने के लिए इंडिया काउंसिल बनाई गई। गवर्नर जनरल को वायसराय बना दिया गया। वायसराय इंग्लैंड के राजा या रानी का प्रतिनिधि बन कर भारत पर शासन करने लगा। इस तरह से अंग्रेजो ने सीधे-सीधे भारत की बागडोर अपने हाथों में ले ली।
पूरी तरह से गुलाम हो गया भारत
1858 में जब ब्रिटिश राज की भारत में शुरूआत हुई… उस वक्त के भूगोल पर गौर करें तो यह आज के भारत के अतिरिक्त आज का बांग्लादेश, आज का पाकिस्तान और आज का बर्मा भी इसमें शामिल था। यानी उनदिनो वर्मा भी भारत का हिस्सा हुआ करता था। वर्मा को आज म्यामार कहा जाता है। आज वह भी एक स्वतंत्र देश है। दूसरी ओर गोवा और दादर नगर हवेली पर उनदिनो पुर्तगालियों का कब्जा था। इस बीच पुडुचेरी के इलाके पर फ्रांस का कब्जा था। यानी भारत पूरी तरीके से गुलाम हो चुका था।
भारत में पश्चात संस्कृति का फैलाव
ब्रिटिश शासन ने भारत के तटीय इलाकों में अपनी पैठ को मजबूत करना शुरू कर दिया। मद्रास, बॉम्बे और कलकत्ता को व्यापार का मुख्य केन्द्र बनाया गया। पुणे में सम्भांत लोगो को बसाया जाने लगा। यहीं वह दौर था जब भारत के समाज पर पाश्चायत संस्कृति का असर जड़ पकड़ने लगा था। इसी कालखंड में कई समाजिक बदलाव भी हुए। हालांकि, अंग्रेजो को लेकर भारतीय के मन में भीतर ही भीतर असंतोष अभी भी बरकरार था। लोग अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होना चाहते थे।
ह्यूम ने की कॉग्रेस की स्थापना
भारत की इस कश-म-कश को एक रिटायर्ड ब्रिटिश अधिकारी समझ चुके थे। उनका नाम था- एलेन ओक्टोवियन ह्यूम…। ह्यूम एक बड़े ब्रिटिश अधिकारी हुआ करते थे और वायसराय के भी बहुत करीबी माने जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि वायसराय के कहने पर ह्यूम ने दिसम्बर 1885 में इंडियन नेशनल कॉग्रेस की स्थापना कर दी। भारत के सिविल सोसायटी को ब्रिटिश शासन से जोड़ कर रखना… इसका मकशद हुआ करता था। कालांतर में यही संगठन कॉग्रेस पार्टी के नाम से जानी गई।
कॉग्रेस का हुआ विस्तार
ह्यूम ने कलकत्ता में सुरेंद्रनाथ बनर्जी और पूना में गोविंद रानाड़े को यह जिम्मेदारी दी, कि वो भारत के सिविल सोशाइटी को कॉग्रेस से जोड़ दे। उनदिनो भारत के कई हिस्सो में प्रार्थना समाज और आर्य समाज के नाम से छोटा- छोटा संगठन काम कर रहा था। वर्ष 1906 आते- आते ढाका में मुस्लिम लीग ने आकार लेना शुरू कर दिया था। अंग्रेज समझने लगे थे कि लोग इखट्ठा हो गए तो भारत पर शासन करना मुश्किल हो जायेगा।
बंगाल विभाजन की त्रासदी
वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि लोगो का असंतोष एक बार से आकार लेने लगा। कहने वाले तो यहां तक कहने लगे कि बंगाल विभाजन से खिन्न होकर भारत ने पहली बार राष्ट्रवाद की राह पकड़ ली। बंदे मातरम… श्लोगन इसी दौर की उपज है। इसको बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास… आनंद मठ से लिया गया था। बाद में रबींद्र नाथ टैगोर ने इसको संगीतबद्ध किया था और देखते ही देखते यह आजादी का प्रमुख श्लोगन बन गया।
बंदे मातरम का असर
बंदे मातरम का असर ये हुआ कि लोग विदेशी कपड़ों की होली जलाने लगे। कलकत्ता, पूना और मद्रास समेत देश के अधिकांश हिस्सों में बंग-भंग के नाम से आंदोलन शुरू हो गया। इस घटना के बाद वर्ष 1910 में पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस में हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी।
ब्रिटेन में हुआ बड़ा बदलाव
वर्ष 1906 में ब्रिटेन की राजनीति में बड़ा बदलाव आ गया। ब्रिटेन के आम चुनाव में लिबरल पार्टी की जीत हो गई। इसी के साथ भारत को देखने का उनका नजरिया भी बदला। वायसराय लॉर्ड मिंटो और भारत के मंत्री जॉन मोर्ली ने भारत में कई सुधार कानून को लागू करना शुरू कर दिया। इसी दौर में भारत की राजनीति और शासन में भारतीय लोगो को हिस्सेदार बनाया गया। वर्ष 1910 में सुप्रीम काउंसिल में भारतीय लोगो को शामिल कर लिया गया। गोपालकृष्ण गोखले को इसका पहला सदस्य बनाया गया था।
कॉग्रेस में पड़ी फुट
वर्ष 1907 में कांग्रेस में फुट पड़ गया। वह दो फाड़ में बट गई। इसको गरम दल और नरम दल का नाम दिया गया था। नरम दल के लोग सरकार के साथ मिल कर काम करना चाहते थे। जबकि, गरम दल के लोग सरकार के खिलाफ आंदोलन करना चाहते थे। गरम दल में “लाल-पाल और बाल’ की तिकड़ी बहुत प्रचलित हुई थी। लाल… यानी लाला लाजपत राय, बाल… यानी बाल गंगाधर तिलक और पाल… यानी, विपिन चंद्र पाल। ये तीनो गरम दल की अगुवाई करने लगे थे।
लाला लाजपत राय की मौत
कहतें हैं कि बाल गंगाधर तिलक ने युवा क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस का समर्थन किया था। इसके बाद तिलक को अंग्रेजो ने बर्मा की जेल में बंद कर दिया था। बाद में विपिन चन्द्र पाल और अरविंद घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। पर, तिलक अपने विचारधारा पर डटे रहे। हालांकि, उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन धीरे- धीरे कमजोर पड़ने लगा था। वर्ष 1928 में अंग्रेजो की लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय की मौत के बाद गरम का यह आंदोलन करीब- करीब समाप्त हो गया।
कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट हुआ राजधानी
गरम दल के आंदोलन का दूरगामी असर हुआ। वर्ष 1911 में मिंटो की जगह लॉर्ड हार्डिंग्ज को वायसराय बनाया गया। उन्होंने विभाजित बंगाल को फिर से एक कर दिया। लेकिन, बिहार और ओडिशा को अलग करके एक नया प्रांत बना दिया गया। इसी समय देश की राजधानी को कलकत्ता से उठाकर दिल्ली में शिफ्ट कर दिया गया था। वर्ष 1915 में सुप्रीम कॉउसिंल में मुस्लिम लीग को शामिल कर लिया गया। सिर्फ शामिल नहीं किया। बल्कि, उनके लिए अलग से सीट आरक्षित कर दिया। अंग्रेजों ने ऐसा करके बड़ा ही चालाकी से देश के विभाजन का बीजारोपण कर दिया।
चौथा कालखंड 32 वर्षो का
चौथे और अंतिम कालखंड कहानी वर्ष 1915 से लेकर 1947 तक की है। 32 वर्ष के इस कालखंड को आप महात्मा गांधी का युग भी कह सकते है। पूरा नाम था मोहनदास करमचंद गांधी। लोग उनको बापू कहा करते थे। दक्षिण अफ्रिका से वर्ष 1915 में लौट कर गांधीजी भारत आ गए थे। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने अंग्रेजो के नस्लभेद के खिलाफ अहिंसक आंदोलन का सफल संचालन किया था। भारत लौटने पर यहां के लोग कौतुहल भरी नजरो से उन्हें देखने लगे थे। भारत लौटने पर गोपालकृष्ण गोखले के कहने पर गांधीजी पूरे भारत का दौरा करने और यहां की समाजिक अवस्था को समझने के लिए निकल पड़े थे।
बिहार के चंपारण से शुरू हुआ आंदोलन
गांधीजी ने बिहार के चंपारण में अपना पहला आंदोलन शुरू किया। वर्ष 1919 में अंग्रेजों ने रॉलेट एक्ट लागू कर दिया था। इस कानून के खिलाफ गांधीजी ने पूरे देश में सत्याग्रह शुरू कर दिया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत का यह पहला एकजुट आंदोलन कहा जाता है। दूसरी ओर इस आंदोलनों को दबाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने दमनकारी हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। अप्रैल 1919 में बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गई। इसमें करीब 400 से अधिक लोग मारे गए थे। हालांकि, यह आंकड़ा इससे अधिक होने का अनुमान है।
जालियावाला बाग हत्याकांड
जलियांवाला बाग हत्याकांड और खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। फरवरी 1922 में किसानों ने चौरी-चौरा पुलिस थाने में आग लगा दी। इसमें 22 पुलिस वाले मारे गए थे। इसके बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। गांधीजी के इस निर्णय से कुछ लोग भड़क गये और असंतोष का तेजी से उभार होने लगा। इसकी परिणति ये हुआ कि इसी कालखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसी दो परस्पर विरोधी विचारों का संगठन देश में आकार लेने लगा।
पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव
यह वो दौर था जब कांग्रेस पूरी तरह से गांधी जी के प्रभाव में थी। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने 1929 में पूर्ण स्वराज का एक प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद 26 जनवरी 1930 को पूरे देश ने स्वतंत्रता दिवस मनाया था। इसी दौर में गांधीजी के सत्याग्रह से अलग हट कर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव और राजगुरू समेत कई अन्य युवाओं ने क्रांति की राह पकड़ ली। क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी का गठन करके अंग्रेजों की नींद उड़ा दी।
सांडर्स की हुई हत्या
क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत के लिए अंग्रेज पुलिस अफिसर सांडर्स को जिम्मेदार माना और 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने सांडर्स की हत्या कर दिया। क्रांतिकारी यही नहीं रूके। बल्कि, बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को ब्रिटिश सेंट्रल हॉल में बम फेंक दिया। क्रांतिकारियों ने पर्चे में लिखा था कि उनका मकसद किसी की जान लेना नहीं बल्कि बहरों को आवाज देना था। तेजी से बदल रहे घटनाक्रम में 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस घटना का दूरगामी असर हुआ। अंग्रेजो के खिलाफ लोगों का खून उबाल मारने लगा था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
इधर, गांधी जी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू करके राजनीति की दिशा मोड़ दी। वर्ष 1930 में साबरमती से 240 किमी दूर स्थित दांडी तट तक मार्च शुरू हो गया। इतिहास में इसको दांडी मार्च या सविनय अवज्ञा आंदोलन के नाम से जाना जाता है। गांधीजी इस मार्च के माध्यम से नमक पर टैक्स वसूलने वाले कानून का विरोध कर रहे थे। वर्ष 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बना। इसके तहत प्रांतों को कुद हद तक स्वायत्तता दे दी गई। इसके बाद 1937 में पहला चुनाव हुआ और 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बन गई।
विश्वयुद्ध में अंग्रेजो के साथ थी कॉग्रेस
इस बीच 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। कांग्रेस ने युद्ध में अंग्रेजो का साथ देने का निर्णय लिया। कॉग्रेसियों का मानना था कि ऐसा करने से युद्ध के बाद खुश होकर अंग्रेज हमको यानी भारत को आजाद कर देगा। लेकिन कुटिल अंग्रेजों ने बात नहीं मानी। खिन्न होकर कांग्रेस ने प्रांतों की सरकार से इस्तीफा दे दिया। यह वो दौर था जब कॉग्रेस पर गांधीजी की पकड़ ढीली परने लगा था और सुभाषचन्द्र बोस को लोग पसंद करने लगे थे। नजीता, महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत छोड़ों ओदोलन शुरू कर दिया।
आजाद हिन्द फौज का हुआ गठन
इस बीच सुभाषचंद्र बोस का कांग्रेस के नेताओं से मतभेद उभरने लगा था। मतभेद इस कदर बढ़ा की उनको कॉग्रेस छोड़ना पड़ गया। कॉग्रेस छोड़ने के बाद सुभाषचन्द्र बोस को नजर बंद कर दिया गया था। हालांकि, वर्ष 1941 में अंग्रेजो को चकमा देकर सुभाचन्द्र बोस अंग्रेजो की कैद से निकल कर जर्मनी के रास्ते सिंगापुर पहुंच गये। वहां उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया और 1944 में इम्फाल और कोहिमा के रास्ते भारत में प्रवेश करने की रणनीति पर काम करने लगे। कुछ हद तक उन्हें कामयाबी भी मिली। पर यह सपना पूरी तरीके से साकार होने से पहले ही सुभाचन्द्र बोस एक विमान हादसा का रहस्यमयी शिकार हो गये।
भारत में नौसेना विद्रोह
वर्ष 1945 में विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था। अंग्रेजों की आर्थिक कमर टूट चुकी थी। भारत के नौसेना में विद्रोह की आहट सुनाई पड़ने लगा था। यानी अब भारत पर अधिक दिनों तक शासन करना अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था। नतीजा, अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने का मन बना लिया था। इसके लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से विचार विमर्श शुरू हो गया।
भारत को विभाजित कर बना पाकिस्तान
मुस्लिम लीग चाहती थी कि उसे भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधि माना जाए। लेकिन कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं थी। दोनों के बीच मतभेद बढ़ा और आखिरकार देश का विभाजन हो गया। हालांकि, इसके और भी कई कारण थे। लाखों की संख्या में लोगों का पलायन हुआ। हजारों की संख्या में लोग मारे गये। इसके बाद दुनिया के नक्शे पर 14 अगस्त को पाकिस्तान और 15 अगस्त को भारत स्वतंत्र देश बन गया।
गुलाम भारत की महत्वपूर्ण कहानी संक्षेप में…। ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से लेकर भारत के आजाद होने तक…। क्या हुआ… कैसे हुआ और क्यों हुआ…? उन दिनों की संघर्ष, जुझाडूपन और अंगड़ाई लेती उम्मीदों को समझने की कोशिश करेंगे। दरअसल, राजनीतिक नफा- नुकसान की वजह से हमने अपनी गौरवमय इतिहास को उलझा दिया है। लोग गुमराह होने लगे हैं। इसका सर्वाधिक खामियाजा युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। यह कहानी चार हिस्सों में है इसे चार कालखंडों में भी कहा जा सकता है। जानकारी रोचक और दिलचस्प है। देखिए, पूरा वीडियों….।
KKN न्यूज ब्यूरो। कुछ साल पहले की बात है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. तपन मिश्र ने कहा था कि उन्हें जान से मारने की कोशिश की जा रही है। उनका कहना था कि पिछले 3 साल में करीब तीन बार उनके भोजन में जहर मिलाया गया। उन्होंने भारत सरकार को पूरी बातें बताई। सरकार ने अपने तरीके से काम भी किया। पर, एक वैज्ञानिक को मारने की कोशिश करने वाला कौन हो सकता है? यह बड़ा सवाल है।
जानकारी चौंकाने वाली है
तपन मिश्र के दावे की गंभीरता को देखें और फिर वैज्ञानिकों की रहस्यमय मौत के इतिहास को देखेंगे तो जानकारी चौंकाने वाली है। हमारे टॉप के कई वैज्ञानिकों की संदेहास्पद तरीके से मृत्यु हो चुकी है। वर्षो बीत गए, आज भी वैज्ञानिकों की मौत का गुत्थी, उलझा हुआ है। डॉ. होमी जहांगीर भाभा और डॉ. विक्रम साराभाई से लेकर के.के जोशी और आशीष अश्नीन तक…। भारत के कई शीर्ष वैज्ञानिकों की अप्रत्याशित मौत की फेहरिस्त बहुत लंबी है।
वैज्ञानिक नंबी नारायण
भारत के एक मशहूर वैज्ञानिक नंबी नारायण एक एयरोस्पेस साइंटिस्ट है। वो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इशरो में स्पेस रीसर्च से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे। सरल शब्दों में कहे तो उनकी टीम भारत के लिए क्रायोजनिक इंजन बनाने के काम में जुटी थी। अमेरिका सहित दुनिया के तमाम बड़े देश भारत को क्रायोजनिक इंजन बनाने से रोकना चाह रही थी। नंबी नारायण रुकने को तैयार नहीं थे। कहा तो यह भी जा रहा था कि 90 के दशक में ही उनकी टीम क्रायोजनिक इंजन बनाने के बहुत करीब पहुंच चुका था।
महिला के कहने पर वैज्ञानिक गिरफ्तार
बात वर्ष 1994 की है। महीना अक्तूबर का था। तिरूवनंतपुरम से केरल की पुलिस एक महिला को गिरफ़्तार करती है। उसका नाम मरियम रशिदा है। वह खुद को मालदीव की रहने वाली बताती है। महिला पर आरोप लगा कि उसने भारत के स्वदेशी तकनीक से विकसित होने वाली क्रायोजनिक इंजन का कुछ सीक्रेट पाकिस्तान को उपलब्ध करा दिया है। केरल की पुलिस महिला से पूछता करती है और उसके बयान को आधार बना कर केरल पुलिस ने क्रायोजनिक इंजन प्रॉजेक्ट के डायरेक्टर नंबी नारायणन और उनके टीम के वैज्ञानिक डी. शशि कुमारन और डेप्युटी डायरेक्टर के. चंद्रशेखर को गिरफ़्तार कर लेती है। इसके बाद रूसी स्पेस एजेंसी के एक भारतीय प्रतिनिधि एस.के. शर्मा और फौजिया हसन को भी गिरफ्तार कर लिया जाता है। इन सभी लोगो पर इशरो के स्वदेशी क्रायोजनिक रॉकेट इंजन से जुड़ी खुफिया जानकारी पाकिस्तान को उपलब्ध कराने का आरोप था।
स्पेस रीसर्च को लगा झटका
गिरफ्तारी के समय स्पेस साइटिस्ट नंबी नारायणन रॉकेट में इस्तेमाल होने वाले स्वदेशी क्रायोजनिक इंजन बनाने के बेहद करीब पहुंच चुके थे। जाहिर है अब इस प्रोजेक्ट पर काम रुक गया और भारत कई दशक पीछे चला गया। उनदिनो केरल में वामपंथ की सरकार थी। जबकि, खेल पूंजीवाद का चल रहा था।
फर्जी आरोप पर हुई करवाई
मामला इसरो से जुड़ा था। लिहाजा, केन्द्र की सरकार ने सीबीआई को इसकी जांच सौप दी। सीबीआई ने जब जांच शुरू किया तो अधिकारी हक्के- बक्के हो गए। पूरा का पूरा आरोप फर्जी और प्रायोजित था। केरल की पुलिस और वहां की इंटेलिजेंस ब्यूरो के इस हरकत से देश को बहुत नुकसान हो गया। इस बीच अप्रैल 1996 में सीबीआई ने अदालत में अपना रिपोर्ट पेश कर दिया। इसमें पूरा मामला फर्जी बताया गया। सीबीआई की जांच से पता चला कि भारत के स्पेस प्रोग्राम को डैमेज करने की नीयत से नंबी नारायणन को केस में फंसाया गया है। गौर करने वाली बात ये है कि सांइटिस्ट नंबी नारायण पर मनगढ़ंत आरोप लगाने वाली केरल एस.आई.टी के टीम लीडर सीबी मैथ्यूज को बाद के दिनों में केरल की सरकार ने राज्य का डीजीपी बना दिया। यानी भारत को स्पेस रीसर्च में पीछे ढकेलने वाले अधिकारी को सजा की जगह प्रमोशन दे दिया गया।
भाभा की रहस्यमय मौत
कहा जाता है कि होमी जहांगीर भाभा कुछ वर्ष और जिंदा रह जाते तो भारत का न्यूक्लियर एनर्जी प्रोग्राम बहुत पहले ही मुकाम पर होता। एक रहस्यमय विमान दुर्घटना में भाभा की मौत हो गई। कहा जाता है कि भाभा की मौत के पीछे साजिश थी। ताकि, भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम को रोका जा सके। सच क्या है? इसका आज तक खुलाशा नहीं हुआ। भाभा की दिलचस्पी फिजिक्स में थी। उन्होंने साल 1934 में कॉस्मिक-रे पर रीसर्च करके दुनिया को चौका दिया था। साल 1939 में वे अमेरिका से लौट कर भारत आए और यही रह गये। भाभा ने साल 1945 में इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रीसर्च की स्थापना की। भाभा जिस तरह से न्यूक्लियर प्रोग्राम को लेकर आगे बढ़ रहे थे, उससे अमेरिका चिंतित हो गया था। कहा जाता है कि अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने साजिश के तहत 1966 में भाभा का प्लेन क्रैश करवा दिया था। हालांकि, यह बात आज तक साबित नहीं हो सका है।
साराभाई का नहीं हुआ पोस्टमार्टम
भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान आज जहां भी है, उसकी कामयाबी के पीछे विक्रम साराभाई का बहुत बड़ा योगदान है। साराभाई को भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा जाता है। लेकिन, मात्र 52 साल की उम्र में उनकी रहस्यमय तरीके से मौत हो गई। विक्रम साराभाई आणविक ऊर्जा से इलेक्ट्रॉनिक्स में काम कर रहे थे। केरल में एक कार्यक्रम को संबोधित करने गए और अपने कमरे में मृत पाए गए। जबकि, पहले से वो बिल्कुल सामान्य थे। साराभाई की बेटी मल्लिका ने दावा किया था कि उनके पिता की मेडिकल रिपोर्ट सामान्य थी और उन्हें किसी तरह की कोई बीमारी नहीं था। फिर मौत कैसे हो गई? ताज्जुब की बात ये हैं कि इतने बड़े वैज्ञानिक रहे विक्रम साराभाई का पोस्टमार्टम नहीं हुआ और आनन-फानन में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इससे उनके मौत का रहस्य, आज भी रहस्य बना हुआ है।
घर से निकले और लापता
अब बारी थी प्रतिभावान वैज्ञानिक लोकनाथन महालिंगम की। बात तब कि है जब लोकनाथन कर्नाटक के कैगा एटॉमिक पावर स्टेशन में कार्यरत थे। लोकनाथन के पास देश की सबसे संवेदनशील परमाणु जानकारी और महत्वपूण डेटा था। जून 2008 की सुबह लोकनाथन मॉर्निंग वॉक के लिए घर से निकले। लापता हो गये और पांच रोज बाद उनका शव बरामद हुआ। उनका भी आनन-फानन में अंतिम संस्कार कर दिया गया। बाद में कहा गया कि टहलने के दौरान तेंदुए ने उनपर हमला कर दिया होगा। कुछ लोग कहने लगे कि उन्होंने खुद ही आत्महत्या कर ली होगी। अपहरण के बाद उनकी हत्या की बातें भी कही गई। पर, आज भी उनकी मौत की गुत्थी उलझी हुई है।
घर में मिला मृत शरीर
भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक एम. पद्नमनाभम अय्यर की 23 फरवरी 2010 को रहस्यमयी तरीके से मौत हो गई। मुंबई के उनके अपने ही घर के बरामदा पर उनका मृत शरीर पड़ा हुआ था। जबकि, पहले से वो बिल्कुल स्वस्थ्य थे। उनका उम्र मात्र 48 साल था। फोरेंसिक जांच हुई। पर, मौत का कारण पता नहीं चला। पुलिस ने फिंगर प्रिंट्स और दूसरी तरह की जांच की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला और फाइल को क्लोज कर दिया गया।
रेल लाइन पर मिला वैज्ञानिक का शव
परमाणु वैज्ञानिक केके जोशी और अभीश अश्वीन का शव रेलवे लाइन पर पड़ा हुआ था। जोशी और अश्नीन देश की पहली परमाणु पनडुब्बी आई.एन.एस. अरिहंत के संवेदनशील प्रोजेक्ट्स से जुड़े थे। बात अक्टूबर 2013 की है। विशाखापत्तनम की एक रेलवे लाइन पर उनकी लाश मिली थी। आप सोच सकते है, तो सोचिए कि हमारे देश के वैज्ञानिकों के साथ एक के बाद एक क्या हो रहा है? कहतें है कि 34 साल के जोशी और 33 साल के अश्वीन की पोस्टमार्टम जांच में ये पता चला कि उनकी मौत जहर से हुई है। सवाल उठता है कि जहर खाने के बाद दो वैज्ञानिक का शव एक साथ रेलवे लाइन पर कैसे पहुंचा? भारत में इस सवाल को राजनीति के गलियारे में टाल देने की परंपरा रही है। यहां भी इसी परंपरा का निर्वाह कर दिया गया।
चार साल में 11 परमाणु वैज्ञानिक की मौत
हरियाणा के एक आरटीआई के जवाब में भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग ने चौंकाने वाला आंकड़ा जारी किया हैं। इन आंकड़ों पर गौर करे तो वर्ष 2009 से वर्ष 2013 के बीच यानी सिर्फ चार साल में भारत के कुल 11 परमाणु वैज्ञानिकों की रहस्यमय परिस्थिति में मौत हो गई। इनमें से आठ ऐसे वैज्ञानिक हैं जो या तो विस्फोट में मारे गए या फिर उनका शव फंदे से लटका हुआ मिला। कुछ की मौत समुद्र में डूबने की वजह से हो गई। वैज्ञानिकों की यह रहस्यमय मौत केवल एक घटना हैं या फिर कोई साजिश? सवाल बड़ा है और सोचना हम सभी को है।
KKN न्यूज ब्यूरो। वर्ष 1962 के युद्ध की कई बातें है, जिसको समझना जरूरी है। बेशक हम चीन से युद्ध हार गए थे। चीन ने हमारे 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया था। पर, क्या 62 के युद्ध की सिर्फ इतनी सी हकीकत है? क्या कभी आपके मन में यह सवाल उठा कि हम हारे कैसे? क्या हुआ होगा सीमा पर? हमारे बहादुर और जांबाज सैनिकों को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला भी या नहीं? ऐसे और भी कई सवाल है। इसका जवाब तलाशने के लिए 62 के युद्ध से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन जरूरी हो गया है।
चीन का हमला
बात 18 नवंबर, वर्ष 1962 की है। लद्दाख के चुशुल घाटी में सुबह की सूरज निकलने से ठीक पहले घना कोहरा के साथ अंधेरा अभी ठीक से छठा भी नहीं था। चारों ओर बर्फ से ढकी घाटी और फिंजा में पसरी अजीब सी खामोशी। इसी खामोशी के बीच रेजांगला पोस्ट की रक्षा में तैनात था भारतीय फौज की छोटी टुकड़ी। खामोशी के उस पार बैठे खतरे को भारत के जवान ठीक से पहचान पाते। इससे पहले सुबह के ठीक साढ़े तीन बजे… घाटी का शांत माहौल अचानक गोलियों की तड़-तड़ाहट से गूंजने लगा। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी PLA के करीब तीन हजार जवानों ने रेजांगला पोस्ट पर धावा बोल दिया। चीन के सैनिकों के पास भारी मात्रा में गोला-बारूद था। सेमी आटोमेटिक रायफल था और आर्टिलरी सपोट भी था।
भारत की छोटी टुकड़ी
भारत की ओर से मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में चुशुल घाटी में 13 कुमाऊं रेजिमेंट की एक बेहद छोटी टुकड़ी मौजूद थीं। भारतीय सैन्य टुकड़ी में मात्र 120 जवान थे। वह भी थ्री-नॉट-थ्री रायफल के सहारे। थ्री-नॉट-थ्री रायफल को फायर करने से पहले प्रत्येक गोली लोड करना पड़ता था और खोखा को खींच कर निकालना पड़ता था। भारतीय सैनिक को उस वक्त यहां कोई आर्टिलरी सपोर्ट भी नहीं था। ऐसे में चीन के तीन हजार की विशाल फौज और जवाब में भारत के मात्र 120 जवान…। वह भी थ्री-नॉट-थ्री रायफल के सहारे। दूसरी ओर चीन के पास आधुनिक हथियारों का जखीरा मौजूद था। चुशुल घाटी की खतरनाक चोटियों पर उस वक्त भारत की ओर से आर्टिलरी का सपोर्ट भेजना मुमकिन नहीं था। क्योंकि, भारत की ओर से वहां तक रास्ता नहीं था।
टूट गया रेडियो संपर्क
इधर, सेंट्रल कमान ने रेजांगला के जवानो को उनके अपने विवेक पर छोड़ दिया। जरूरत पड़ने पर पोस्ट छोर कर पीछे हटने का आदेश भी था। किसी को उम्मीद नहीं थीं कि चीन की सेना रेजांगला में इतना जबरदस्त हमला कर देगा। ऐसे में रेजांगला के पोस्ट पर मौजूद मेजर शैतान सिंह को निर्णय लेना था। बताते चलें कि खराब मौसम की वजह से रेजांगला में मौजूद सैनिको का अपने बेस कैंप से रेडियो संपर्क टूट चुका था। इस बीच मेजर शैतान सिंह ने पोस्ट पर डटे रहने और पोस्ट की रक्षा करने का निर्णय कर लिया। फिर जो हुआ, वह कल्पना से परे है। बेशक हमारे सैनिक कम थे, साजो-सामान का घोर अभाव था। किंतु, उनके बुलन्द हौसलों की दास्तान इतिहास में दर्ज होने वाला था। कुमाउं रेजिमेंट के इन वीर जाबांजो को अंजाम पता था। वह जान रहे थे कि युद्ध में उनकी हार तय है। लेकिन इसके बावजूद बेमिसाल बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने अपने बेमिसाल शौर्य का प्रदर्शन करना मुनासिब समझा। मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी ने आखिरी आदमी, आखिरी राउंड और आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ने का हुंकार भर दिया।
दो घंटे की निर्णायक युद्ध
13 कुमाऊं के 120 जवानों ने युद्ध के पहले दो घंटे में ही चीन के 1,300 सैनिकों को मार गिराये। बाकी के चीनी सैनिक भारतीय पराक्रम के सामने टिक नहीं पाये और मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए। तीन- तीन गोली लगने के बाद भी मेजर शैतान सिंह ने पोस्ट नहीं छोरा। हालांकि, बाद में वे शहीद हो गये। इस लड़ाई में भारत के 117 सैनिक शहीद हुए और बंदी बने एक सैनिक भी चीन की सरहद को पार करके भागने में कामयाब हो गया था। मेजर शैतान सिंह को मरनो-परान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। बाद में कुमाउं रेजिमेंट के इस सैन्य टुकड़ी को पांच वीर चक्र और चार सेना पदक से सम्मानित किया गया। सैन्य इतिहास में किसी एक बटालियन को एक साथ बहादुरी के इतने पदक पहले कभी नहीं मिला था।
सिपाही की दास्तान
रेजांगला के उस युद्ध में जिन्दा बचे रामचन्द्र यादव को बाद में मानद कैप्टन की उपाधि दी गई। बतादें कि रामचंद्र यादव 19 नवंबर को कमान मुख्यालय पहुंचे थे। इसके बाद 22 नवंबर तक उनको जम्मू के एक आर्मी हॉस्पिटल में रखा गया। रामचन्द्र यादव ने अपने सैनिक अधिकारियों को युद्ध की जो कहानी बताई। दरअसल, वह रोंगटे खड़ी करने वाला है। रामचन्द्र यादव ने बताया कि मेजर शैतान के आदेश पर वे इस लिए जिन्दा बचे, ताकि पूरे देश को 120 जवानों की वीरगाथा का पता चल सके। उनके मुताबिक युद्ध के दौरान चीन की सेना दो बार पीछे हटी और री-इनफ्रोर्समेंट के साथ फिर से धावा बोल दिया। शुरू में चीन की ओर से काफी उग्र हमला हुआ था। किंतु, भारत की ओर से की गई जवाबी फायरिंग से चीन के सैनिकों की हिम्मत टूट गई। वे पीछे हटे और दुबारा हमला किया। इधर, भारतीय सैनिकों का गोला-बारूद खत्म होने लगा था।
पटक- पटक कर मारा
मेजर शैतान सिंह ने बैनेट के सहारे और खाली हाथों से युद्ध लड़ने का फैसला कर लिया था। उस वक्त वहां एक सिपाही मौजूद था। उसका नाम राम सिंह था। दरअसल, वह रेसलर रह चुका था। मेजर शैतान सिंह से आदेश मिलते ही सिपाही राम सिंह दुश्मन पर टूट पड़ा। उसने एक साथ दो-दो चीनी सैनिक को पकड़ा और उसका सिर आपस में टकरा कर दोनों को एक साथ मौत के घाट उतारने लगा। राम सिंह ने आधा दर्जन से अधिक चीनी सैनिकों को थोड़ी देर में ही मौत के घाट उतार दिया। इस बीच चीन के एक सैनिक ने राम सिंह के सिर में गोली मार दी। शहीद होने से पहले रमा सिंह के रौद्र रूप को देख कर चीनी खेमा में हड़कंप मच गया था।
रेजांगला शौर्य दिवस
13 कुमाऊं के यह सभी 120 जवान दक्षिण हरियाणा के रहने वाले थे। इनमें से अधिकांश गुड़गांव, रेवाड़ी, नरनौल और महेंद्रगढ़ जिला के थे। रेवाड़ी और गुड़गांव में रेजांगला के वीरों की याद में भव्य स्मारक आज भी मौजूद है। इतना ही नहीं बल्कि, रेवाड़ी में हर साल रेजांगला शौर्य दिवस मनाया जाता है। यह बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। किंतु देश के अधिकांश लोग रेजांगला के इन बहादुर सैनिक और उनके कारनामों को ठीक से नहीं जानते हैं।
चुशुल घाटी में है रेजांगला
पहाड़ की बिहरो में हुई इस युद्ध को रेजांगला का युद्ध क्यों कहा जाता है? दरअसल, लद्दाख के चुशुल घाटी में एक पहाड़ी दर्रा है। इसको स्थानीय लोग रेजांगला का दर्रा बोलते है। चूंकि, इसी दर्रा के समीप वर्ष 1962 में 13 कुमाउं का अंतिम दस्ता मौजूद था और इसी के समीप यह भीषण युद्ध हुआ था। लिहाजा, इसको रेजांगला का युद्ध कहा जाने लगा। लद्दाख की दुर्गम बर्फीली चोटी पर चीनी सेना के साथ हुए रेजांगला युद्ध की गौरव गाथा अद्वितीय है।
चीन का धोखा
रेजांगला का यह युद्ध 18 नवम्बर की सुबह में शुरू हुई थीं। किंतु, भारतीय सेना के सामने परीक्षा की घड़ी 17 नवंबर की रात में ही शुरू हो चुकीं थीं। दरअसल, 17 नवम्बर की रात इस इलाके में जबरदस्त बर्फिला तूफान आई थी। इस तूफान के कारण रेजांगला की बर्फीली चोटी पर मोर्चा संभाल रहे भारतीय जवानों का संपर्क अपने बटालियन मुख्यालय से टूट चुका था। तेज बर्फीले तूफान के बीच 18 नवम्बर की सुबह साढ़े 3 बजे चीनी सैनिक इलाके में घुस चुके थे। अंधेरे में हमारे बहादुर सैनिकों ने चीनी टुकड़ी पर फायर झोक दिया। करीब एक घंटे के बाद पता चला है कि चीनियों ने याक के गले में लालटेन लटका कर हमारे सैनिक को चकमा देने का काम किया है। दरअसल, चीनी सैनिक उस बेजबान जानवर को ढाल बना कर पीछे से भारतीय फौज पर हमला कर रहे थे।
झुंड में किया हमला
सुबह करीब 5 बजे में मौसम थोड़ा ठीक होते ही भारत के सैनिक इस चाल को समझ गए। हालांकि, उन्हें सम्भलने का मौका मिलता, इससे पहले ही चीनी सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी सामने आ गई और झुंड में हमला करना शुरू कर दिया। हालांकि, भारत के जवाबी फायरिंग के सामने वे टिक नहीं सके। पीछे हटे और थोड़ी देर बाद दुबारा से हमला कर दिया।
पराक्रम पर मुहर
सुबह के करीब 8 बजने को था। भारतीय सेना के पास गोली नहीं बचा था। बावजूद इसके हमारे बहादुर सैनिको ने हार नहीं मानी। लड़ाई जारी रहा। बैनेट से लड़े। खुले हाथों से लड़े। उन्हीं का बन्दूक छिन कर उन्हीं से लड़े। तबतक लड़ते रहे, जबतक शहीद नहीं हो गये। कहतें हैं कि इस लड़ाई में चीन का इतना जबरदस्त नुकसान हो गया कि चीन के सैनिक रेजांगला से एक कदम भी आगे बढ़ नहीं पाया। चीन को यह करारी शिकश्त शायद आज भी याद हो। यह सच है कि 62 में रेजांगला का युद्ध हम हार गये। पर, इससे भी बड़ा सच ये है कि चीन के दिलों दिमाग पर भारतीय पराक्रम का मुहर भी लगा गये।
श्रीलंका इन दिनों सबसे बड़े आर्थिक तंगी से जूझ रहा है। आलम ये है कि एशिया के अंदर सबसे अधिक महंगाई इस समय श्रीलंका में है। नौबत ऐसी आन पड़ी है कि लोगो को जरुरत के सामान लिए सेना का इंतजार करना होता है। क्योंकि, हड़बरी में लोग लूटपाट पर उतारू हो रहें है। श्रीलंका में चारो तरफ हाहाकार मचा है। लोगो को भरपेट भोजन मिलना दुष्कर हो रहा है। कई जगह भूखमरी की नौबत आ गई है। सवाल उठता है कि महंगाई और बेरोजगारी तो भारत में भी है। फिर श्रीलंका की चर्चा क्यों। सवाल बड़ा है और जवाब तलाशना जरुरी है।
सरकारी टैक्स में कटौती
KKN न्यूज ब्यूरो। श्रीलंका दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गया है। मसला ये है कि श्रीलंका इस अवस्था में कैसे पहुंचा? आर्थिक आपातकाल क्यों लगाना पड़ा? दरअसल, इसके कोई एक कारण नहीं है। अव्वल तो ये कि श्रीलंका की सरकार ने सस्ती लोकप्रियता बटोरने की गरज से सरकारी टैक्स में भारी कटौती कर दी। राजपक्षे ने वर्ष 2019 के आम चुनाव में टैक्स कम करने का लोगो से वादा करके सत्ता हासिल किया था। सरकार बनते ही बिना सोचे समझे राजपक्षे ने अपनी चुनावी वादो के अनुरुप सरकारी टैक्स में भारी कटौती कर दी। इससे सरकारी राजश्व को बहुत नुकसान हो गया और राजकोषीय घाटा करीब आठ गुण तक बढ़ गया। नतीजा, महंगाई में बेतहासा बृद्धि हुई और लोगो में खरीद करने की क्षमता कम हो गई। यानी टैक्स से मिली छूट का जितना लाभ लोगो को मिला। उससे अधिक नुकसान हो गया।
रासायनिक उर्बरक पर रोक
दूसरी ओर श्रीलंका की सरकार ने एक और बड़ी गलती कर दी। गिरती मुद्रा और कम होते विदेशी भंडार के बीच दुनिया में अपनी साख बढ़ाने के लिए श्रीलंका खुद को जैविक उत्पादक देश बनाने की सनक पाल रहा था। इसके लिए श्रीलंका की सरकार ने आनन-फानन में रासायनिक उर्वरक के इस्तेमाल पर रोक लगा दिया। इसके तुरंत बाद श्रीलंका ने खुद को जैविक खेती वाला दुनिया का पहला देश बनने की घोषणा कर दी। इसका दुष्परिणाम हुआ और कृषि उत्पादन में भारी कमी आ गई। श्रीलंका में खाद्य संकट उत्पन्न होने लगा। चावल, रबड़ और चाय उत्पादक किसान की आमदनी घट कर आधे से कम हो गई।
विदेशी कर्ज की मार
यह सभी कुछ उस देश में हो रहा था, जो पहले से विदेशी कर्ज में डूबा हुआ था। रिपोर्ट के मुतबिक इसी साल यानी 2022 में श्रीलंका को सात अरब डॉलर का विदेशी कर्ज चुकाना है। इसमें अकेले चीन का 5 अरब डॉलर का कर्ज बकाया है। आलम है कि श्रीलंका को अपने आयात के लिए महंगे डॉलर की खरीद करना पड़ता है। इससे वह और अधिक कर्ज में डूबता जा रहा है। विश्व बैंक के रिपोर्ट का अध्ययन करने से पता चला है कि वर्ष 2019 में श्रीलंका का कर्ज वहां के सकल राष्ट्रीय आय का करीब 69 फीसदी हो गया था। यानी जब राजपक्षे सत्ता में आये थे। तब भी स्थिति अच्छी नहीं थी। बावजूद इसके उन्होंने सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए लोक लुभावन योजनाओं को लागू करना शुरू कर दिया। नतीजा, मौजूदा समय में श्रीलंका का कर्ज 69 फीसदी से बढ़ कर करीब 119 फीसदी पर पहुंच गया है। यानी श्रीलंका दिवालिया होने के कगार पर खड़ा है।
भारत के लिए सीख
कमोवेश भारत की राजनीति इससे इतर नहीं है। महज चुनाव जितने के लिए भारत में भी इन दिनो लोक लुभावन घोषणाओं का मतदताओ पर असर दिखने लगा है। मुफ्त की बिजली, मुफ्त का लैपटॉप और मुफ्त की यात्रा। खद्दान्न और वैक्सीन भी मुफ्त में। सत्ता पाने के लिए भारत की राजनीति भी इनदिनो इसी दिशा में है। कई लोग तो कहने लगे है कि वह दिन दूर नहीं, जब भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां सत्ता पाने के लिए मुफ्त के योजनाओं की घोषणा करने लगे और जो सबसे ज्यादे मुफ्त दे, वहीं सत्ता के सिंघासन तक पहुंच सके। यदि, ऐसा हुआ तो भारत के श्रीलंका बनते अधिक देर नहीं लगेगा। क्योंकि, सच बात ये है कि मुफ्त में बांटी गई सामग्री से होने वाली घाटा को पाटने के लिए कीमतो में उछाल आना लाजमी है। इससे महंगाई बढ़ता है और देश के सकल घरेलू उत्पाद पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। यानी आने वाले दिनो में भारत को आर्थिक संकट का सामना करना पड़े तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा।
श्रीलंका से भारत का रिश्ता
श्रीलंका के साथ भारत का रिश्ता सदियों पुराना है। त्रेताकाल में भगवान राम ने रावण को युद्ध में पराजित करके उसी के छोटे भाई विभिषण को राजगद्दी पर बिठाया था। इसके बाद करीब ढाई हज़ार साल पहले सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा को बौद्ध धर्म का उपहार लेकर श्रीलंका भेजा था। श्रीलंका के राजा उनसे काफी प्रभावित हुए और उन्हीं दिनो बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। आज भी श्रीलंका की करीब 70 फ़ीसदी आबादी भगवान बुद्ध की पूजा करती है। आधुनिक भारत ने श्रीलंका को तमिल विद्रोह से निपटने के लिए सैनिक मदद दी और लम्बे समय से श्रीलंका से भारत के अच्दे कूटनीतिक संबंध जगजाहिर है। वर्तमान आर्थिक संकट से निपटने के लिए भी सबसे पहले भारत की सरकार ने श्रीलंका को मदद भेजना शुरू कर चुका है।
कोरोना बना कारण
श्रीलंका के आर्थिक बदहाली में कोरोना की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। वैसे तो कोरोना की वजह से पूरी दुनिया को आर्थिक दुनिया नुकसान उठाना पड़ा है। पर, इसका सबसे अधिक नुकसान श्रीलंका को भुगतना पड़ा। दरअसल, श्रीलंका की जीडीपी में पर्यटन का बड़ा योगदान है। वहां की जीडीपी का 10 फीसदी कमाई अकेले पर्यटन से आता है। पर्यटन से श्रीलंका के विदेश मुद्रा का भंडार बढ़ता है। लेकिन कोरोना महामारी की वजह से श्रीलंका का पर्यटन सेक्टर बुरी तरह से प्रभावित हो गया। इससे विदेशी मुद्रा भंडार में तेजी से गिरावट हुआ और कालांतर में यह आर्थिक संकट का बड़ा कारण बन गया।
यूक्रेन संकट का असर
रूस और यूक्रेन के बीच छिरी युद्ध का भी श्रीलंका के अर्थ व्यवस्था पर असर पड़ा। दरअसल, श्रीलंका के चाय का सबसे बड़ा खरीददार रूस है। युद्ध की वजह से रूस के रूबल में गिराबट आई और रूस ने चाय के आयात को कम कर दिया। इसका श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा। अमेरिका के द्वारा रूस पर लगाए गये आर्थिक संकट की वजह से कच्चे तेल की कीमतो में बेतहाशा बृद्धि हुई। इससे पुरी दुनिया में मंहगाई बढ़ी और श्रीलंका इससे अछूता नहीं रह सका। नतीजा, पहले से ही मंहगाई मार झेल रहे श्रीलंका में यूक्रेन संकट की वजह से मंहगाई में बेतहाशा बृद्धि हुई और श्रीलंका में आर्थिक आपातकाल की घोषणा करना पड़ा। इससे लोगो में असंतोष भड़क गया और श्रीलंका में विधि व्यवस्था की समस्या खड़ी हो गई।
सबसे बड़ा आर्थिक संकट
वर्ष 1948 में अपनी आजादी के बाद श्रीलंका अब तक के सबसे खराब वित्तीय संकट से जूझ रहा है। वर्ष 2019 में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार 7.5 बिलियन डॉलर था। लेकिन पिछले साल जुलाई में 2.8 बिलियन डॉलर पर आ गया। इसका परिणाम ये हुआ कि कनाडा जैसी कई देशों ने श्रीलंका में निवेश बंद कर दिया है। दूसरी ओर कल तक श्रीलंका को कर्ज देकर कंगाल बनाने वाला चीन, अब मौके का फयादा उठाने की जुगत लगा रहा है। चीन ने श्रीलंका को किसी भी प्रकार की मदद देने से इनकार करते हुए उल्टे कर्ज लौटाने का अल्टिमेटम जारी कर दिया है। हालात इतने खराब हो गए कि श्रीलंका को विदेशी कर्ज लेना भी अब मुश्किल हो चुका है।
चीन की कर्ज नीति बना कारण
पिछले दो दशक से श्रीलंका ने भारत के बदले चीन को अपना करीबी बनाने की राह पकड़ ली। बदले में चीन ने श्रीलंका में कई बड़ी परियोजनाओं के लिए भारी मात्रा में श्रीलंका को कर्ज देकर फांस लिया। आज श्रीलंका कराह रहा है और चीन इसका बेजा लाभ लेने की कोशिश में जुटा है। दूसरी ओर बुरे वक्त में भारत एक बार से श्रीलंका की मदद कर रहा है। कहतें है कि आज़ादी के बाद 1980 में श्रीलंका ने सबसे बड़ा संकट देखा था। उनदिनो श्रीलंका की तमिल आवादी ने अपने लिए अलग देश की मांग शुरू कर दी। वर्ष 1983 में वहां गृह युद्ध छिड़ गया जो करीब 26 साल तक चला। हालांकि, वर्ष 2009 में यह गृहयुद्ध ख़त्म हुआ था और इसके बाद श्रीलंका तेजी से आर्थिक विकास की राह पर चलने वाला देश बन गया था। किंतु, सस्ती लोकप्रियता के लिए श्रीलंका की सरकार ने जो लोक लुभावना आर्थिक नीतियां लागू की। वह श्रीलंका के आर्थिक संकट का कारण बन गया।
यूक्रेन आज भारत से मदद की गुहार लगा रहा है। जबकि, अन्तर्राष्ट्रीय मोर्चे पर यूक्रेन ने भारत का कभी साथ नहीं दिया। यूक्रेन हमेशा से भारत का विरोध करता रहा है। यूक्रेन ने भारत के परमाणु कार्यक्रम का विरोध किया। सुरक्षा परिषद में भारत के कदम की कड़ी निंदा कर चुका है। कश्मीर के मुद्दे पर युक्रेन मुखर विरोध करता रहा है। भारत में आतंकवाद के मुद्दे पर यूक्रेन हमेशा से पाकिस्तान की सुर में बोलता रहा है। भारत के खिलाफ पाकिस्तान को हथियार मुहैय्या करता है। ऐसे में बड़ा सवाल ये कि आज वह भारत से मदद की उम्मीद क्यों रखता है?
सुरक्षा परिषद में भारत का विरोध कर चुका है यूक्रेन
KKN न्यूज ब्यूरो। यूक्रेन हमेशा से भारत का मुखर विरोध करता रहा है। वर्ष 1998 में जब भारत ने परमाणु परीक्षण किया था तो यूक्रेन ने सुरक्षा परिषद में भारत का कड़ा विरोध किया था। यूक्रेन ने भारत से परमाणु कार्यक्रमों को रोकने की मांग कर चुका है। परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइलों के विकास और उत्पादन पर भी रोक लगाने की मांग की सुरक्षा परिषद में 25 देशो के साथ मिल कर यूक्रेन ने भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाया था। यूक्रेन की अगुवाई में 25 देशो ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से भारत के परमाणु कार्यक्रम को बन्द करने का प्रस्ताव लाया गया था। यूक्रेन ही वह देश है जिसने भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने और भारत को दुनिया से अलग-थलग कर देने की मांग की थी। इसलिए आज जब ये बात कही जा रही है कि भारत को यूक्रेन का समर्थन करना चाहिए, तब ये बात आपको याद रखनी चाहिए कि यूक्रेन ने भारत के साथ क्या किया था?
कश्मीर पर पाकिस्तान की सुर में बोलता है यूक्रेन
यूक्रेन ने कश्मीर के मुद्दे पर शुरू से भारत का विरोध करता रहा है। आतंकवाद के मुद्दे पर यूक्रेन की सरकार भारत को नसीहत देता है। जबकि, रूस ने हर मुश्किल वक्त में भारत का साथ दिया है। सुरक्षा परिषद में रूस ने भारत के लिए वीटो पावर का इस्तेमाल कर चुका है। वर्ष 1971 के भारत पाक युद्ध में पाकिस्तान की कहने पर जब अमेरिका ने अपना सातवां बेड़ा भारत के खिलाफ उतारा था। उस वक्त रूस ने ही उसको भारत पहुंचने से रोका था। भारत की सेना आज भी सर्वाधिक रूस का हथियार इस्तेमाल करती है। कश्मीर से लेकर आतंकवाद तक, करीब-करीब सभी मुद्दे पर रूस का सहयोग भारत को मिलता रहा है।
पाकिस्तान का सबसे बड़ा हमदर्द
यूक्रेन, पिछले तीन दशकों से पाकिस्तान को हथियार बेचने वाला सबसे बड़ा देश है। पिछले 30 वर्षों में पाकिस्तान को यूक्रेन से 12 हजार करोड़ रुपये के हथियार मिल चुका है। आज पाकिस्तान के पास जो 400 टैंक हैं। गौर करने वाली बात ये है कि यह सभी टैंक यूक्रेन ने पाकिस्तान को बेचे है। इसके अतिरिक्त यूक्रेन इस समय पाकिस्तान को फाइटर जेट की टेक्नोलॉजी और स्पेस रिसर्च में भी मदद कर रहा है। यानी भविष्य में पाकिस्तान यदि स्पेस में विस्तार करता है, तो इसमें यूक्रेन की बड़ी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है।
यूक्रेन को क्यों मदद करे भारत
सोचिए, जो देश, भारत विरोधी प्रस्ताव लाता है। पाकिस्तान का सबसे बड़ा हमदर्द है। यूक्रेन हमेशा पाकिस्तान का वफादार है। वह कभी नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान किसी भी वजह से उससे हथियार खरीदने बन्द कर दे। क्या भारत को ये सबकुछ भूल कर यूक्रेन की मदद करना चाहिए? बेशक, यूक्रेन के नागरिकों के साथ सहानुभूति से इनकार नहीं है। क्योंकि, इस युद्ध में यूक्रेन के नागरिको की कोई गलती नहीं है। लेकिन, यह भी याद रखना चाहिए कि नाटो में शामिल होने की जिद ने आज यूक्रेन को युद्ध के मैदान में ला खड़ा किया है। जबकि, नाटो ने युद्ध में खुल कर यूक्रेन को साथ देने से हाथ खींच लिया है और मुश्किल वक्त में यूक्रेन को अकेला छोड़ दिया है। इसके लिए स्वयं यूक्रेन और वहां के राष्ट्रपति जलेंस्की जिम्मेदार है। हमे यूक्रेन का भारत विरोधी रुख याद रखना चाहिए। यूक्रेन एक ऐसा देश है, जिसने कभी भारत का साथ नहीं दिया।
KKN न्यूज ब्यूरो। भारत के लोग प्रत्येक साल 26 नवम्बर को, संविधान दिवस के रूप में याद करतें हैं। पहली बार वर्ष 2015 में संविधान दिवस को सरकारी तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया था। इसके बाद देश में प्रत्येक साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है। पूरा देश अपने संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉं.भीमराव अंबेडकर को याद करता है। यूजीसी ने देश के सभी विश्वविद्यालयों को आदेश दिया है कि वे 26 नवंबर को ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाएं। संविधान दिवस मनाने का मकसद नागरिकों को संविधान के प्रति सचेत करना और समाज में संविधान के महत्व का प्रसार करना है। इस सब के बीच एक सच्चाई यह भी है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारे देश की तकरीबन तीन चौथाई आवादी संविधान की मूल भावनाओं को ठीक से समझ नहीं पा रही है।
दो साल 11 महीना और 17 दिन में बना संविधान
भारत का संविधान, दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसमें अब 465 अनुच्छेद, तथा 12 अनुसूचियां शामिल हो चुकी हैं और ये 22 भागों में विभाजित है। यहां आपको बताना जरुरी है कि अपने निर्माण के समय मूल संविधान में 395 अनुच्छेद हुआ करता था, जो 22 भागों में विभाजित था। मूल संविधान में केवल 8 अनुसूचियां थीं। भारत का मूल संविधान हस्तलिखित है। जिसमें 48 आर्टिकल हैं। इसे तैयार करने में 2 साल 11 महीने और 17 दिन का समय लगा था। अब आपके मन में सवाल उठने लगा होगा कि भारत का संविधान तो 26 जनवरी को लागू हुआ था। ऐसे में 26 नवम्बर को संविधान दिवस मनाने का औचित्या क्या है? दरअसल, 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा की तरफ से इसे अपनाया गया और 26 नवंबर 1950 को इसे लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ एक गणराज्य के रूप में लागू कर दिया गया। इन्हीं कारणो से 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। यहां आपको बताना जरुरी है कि इससे पहले 29 अगस्त 1947 को भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति की स्थापना की गई थी। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान निर्माता समिति के अध्यक्ष थे।
हिंदी और अंग्रेजी में हस्तलिखित कॉलीग्राफ्ड
भारत के संविधान के मसौदा को हिंदी और अंग्रेजी में हस्तलिखित कॉलीग्राफ्ड की गई है और यह मूल संविधान आज भी मौजूद है। इसमें किसी भी तरह की टाइपिंग या प्रिंट का इस्तेमाल नहीं हुआ है। संविधान सभा के सभी 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए और इसके दो दिन बाद यानी 26 जनवरी 1950 को इसे भारतीय गणतंत्र के स्वरुप में लागू कर दिया गया। हम में से बहुत कम लोग जानतें हैं कि हमारे संविधान के निर्माण में 15 महिलाओं की महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह सभी महिलाएं स्वतंत्रता सेनानी, अधिवक्ता, राजनेता और महिला संगठनों से जुड़ी प्रमुख हस्तियां थीं। इनमें से कुछ महिलाओं ने दांडी मार्च में भी हिस्सा लिया था और कई ऐसी थी, जिन्होंने साइमन कमिशन के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन करते हुए जेल की सजा काट चुकी थीं। संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान की जिस मूल तीन प्रतियों पर हस्ताक्षर किए थे, वह तीनों प्रतियां आज भी संसद भवन की सेंट्रल लाइब्रेरी में बने स्ट्रांग रूम में सुरक्षित रखी हुई है। इसे हीलियम भरे केस में सुरक्षित रखा गया है। ताकि, यह कभी खराब नही हो। कहतें हैं कि संविधान के पारित होते ही, काफी देर तक वंदे मातरम और भारत माता की जयकारे से संसद का केंद्रीय कक्ष गूंजने लगा था। इसके बाद अरुणा आसफ अली की बहन पूर्णिमा बनर्जी ने राष्ट्रगान गाया था। बतातें चलें कि संविधान पर सबसे पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हस्ताक्षर किए थे।
चित्रों से सजाया गया
हमारे संविधान के हर भाग को चित्रों से सजाया गया है। इस काम को आचार्य नंदलाल बोस ने अंजाम दिया था। आचार्य के शिष्यों ने ही संविधान का डिजाइन भी तैयार किया था। संविधान के 22 भाग है। इसमें 22 चित्र बनें हैं। सभी चित्र 8 से 13 इंच बड़ा है। इस काम में आचार्य और उनकी टीम को चार साल का वक्त लगा था और इसके लिए उन्हें 21 हजार रुपये मेहनताना दिया गया था। संविधान के सबसे अहम पेज यानी ‘प्रस्तावना’ को अपनी कला से सजाने का काम आचार्य के सबसे प्रीय शिष्य राममनोहर सिन्हा ने किया था। आपको शायद मालुम हो कि हमारे मूल संविधान की चौड़ाई 16 इंच और लम्बाई 22 इंच है। हमारे संविधान की पांडुलिपि 251 पेज की है। बतातें चलें कि उस दौर में संविधान सभा पर तकरीबन एक करोड़ रुपये का खर्च हुआ था। संविधान सभा के सभी सदस्य, भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि थे। इसमें जवाहरलाल नेहरू, डॉ भीमराव अम्बेडकर, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कई महत्वपूर्ण सख्यिशत शामिल थे। आपको बतादें कि 11 दिसंबर 1947 को संविधान सभा की पहली बैठक में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा की स्थायी अध्यक्ष चुना गया था। जो, अंत तक इस पद पर बने रहें।
संविधान की प्रस्तावना
हमारे संविधान के प्रस्तावना में पूरे संविधान की मूल भावना निहित है। ऐसे में संविधान के प्रस्तावना को एक बार यहां पढ़ना जरुरी हो गया है। इसमें लिखा है कि- ‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्म सर्पित करते हैं…।’
संविधान को किया कैलीग्राफ
संविधान से जुड़ी एक और दिलचस्प किस्सा सुनाता हॅू। दरअसल, भारतीय संविधान की पहली प्रति को कैलीग्राफी के जरिये तैयार किया गया था। इसे दिल्ली के रहने वाले प्रेम बिहारी रायजादा ने तैयार किया था। पंडित नेहरू ने प्रेम बिहारी रायजादा से संविधान की प्रति लिखने का अनुरोध किया। प्रेम बिहारी रायजादा का पारिवारिक कार्य कैलीग्राफी का ही था। उन्होंने पं. नेहरू के समक्ष अपनी एक शर्त रख दी। शर्त के मुताबिक संविधान के हर पृष्ठ पर उन्होने अपना नाम और अंतिम पृष्ठ पर अपने दादाजी का नाम लिखने की बात कही। जिसे तात्कालीन सरकार ने मान लिया और संविधान के मूल प्रति पर आज भी यह आपको देखने को मिल जायेगा। कहतें हैं कि रायजादा से इस काम के लिए मेहनताना के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब बड़ा ही गंभीर था। उन्होंने कहा कि मुझे इस कार्य के लिए एक भी पैसा नहीं चाहिए। इस काम को पूरा करने के लिए उन्हें संविधान सभा के भवन में ही एक हॉल दे दिया गया था। जहां, उन्होंने छह महीने में इस कार्य को पूरा कर दिया। आखिरकार इस तरह से हमारा संविधान बन कर तैयार हुआ था।
भारत चीन सीमा पर सैनिको की जबरदस्त जमावड़ा के बीच खबर आ रही है कि चीन ने युद्ध की रणनीति पर तेजी से काम करना शुरू कर दिया है। सीमा पर निगरानी तंत्र को सक्रिय कर दिया गया है। थिएटर कमान में पाक अधिकारी सहयोगी बने है। बीजिंग और इस्लामाबाद के बीच खुफिया सूचनाओं को साझा किया जा रहा है। भारत को एक साथ दो मोर्चा पर घेरने की तैयारी हो रही है। ऐसे में बड़ा सवाल ये, कि क्या चीन एक और युद्ध की तैयारी कर रहा है। हालात की गहराई से अध्ययन करने पर संकेत युद्ध की ओर इशारा करता है। जबकि, परिस्थिति कुछ और वयां कर रही है। आज इसी विषय की पड़ताल करेंगे। देखिए, पूरी रिपोर्ट…
जब योजनाएं जाति के लिए बन सकता है तो गणना क्यों नहीं
KKN न्यूज ब्यूरो। बिहार समेत पूरे देश में जातीय जनगणना को लेकर इनदिनो बहस छिड़ी हुई है। अधिकांश ऐसे लोग है, जो विषय की गंभीरता को समझे बिना ही अपनी बात कह देते है। हालिया वर्षो में राजनीतिक कारणो से विरोध या समर्थन करने की खतरनाक प्रवृत्ति का तेजी से विस्तार हुआ है। जातीय जन गणना इससे अछूता नहीं है। बेशक, जातीय जनगणना आज की जरुरत है। बल्कि, जाति के साथ उसकी आर्थिक गणना भी आज की जरुरत बन चुकी है। यह समाज की एक कड़बी हकीकत है और इससे किसी को मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। कहतें है कि जब योजनाएं जाति के लिए बनाई जाती है और सुविधाएं जाति को दिएं जातें हैं। ऐसे में जातियों की गणना करने और उसकी आर्थिक स्थिति का वैज्ञानिक डेटा इखट्ठा करने से परहेज क्यों? यह बड़ा सवाल है।
ऐसे हुई विवाद की शुरूआत
वह 20 जुलाई 2021 का दिन था। उस रोज संसद का सत्र चल रहा था। सांसदो को संबोधित करते हुए केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानन्द राय ने संसद में एक बड़ी बात कह दी। उन्होंने कहा कि वर्ष 2021 की जनगणना में एससी और एसटी के अलावा अन्य जातियों की जातिवार गणना नहीं होगी। इसके बाद बिहार समेत पूरे देश की राजनीति में उबाल आ गया। विपक्ष के नेता जातीय गणना की मांग करने लगे। तर्क गढ़ा जाने लगा और जातीय गणना को देश हित में बताने की होर लग गई। कहा जा रहा है कि इससे जरूरतमंदों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक मदद मिलेगी। दूसरी ओर केन्द्र की सरकार जातीय गणना को समाज को खंडित करने वाला कदम बता कर फिलहाल इससे इनकार कर रही है। जातीय गणना को लेकर सर्वाधिक गरमाहट बिहार में है। बिहार विधानसभा ने फरवरी 2019 और फिर फरबरी 2020 में दो अलग-अलग प्रस्ताव पास करके केन्द्र को भेजा हुआ है। इस प्रस्ताव में बिहार की राजनीतिक पार्टियों ने जातीय गणना की मांग की है। बिहार विधानसभा से पारित यह प्रस्ताव केन्द्र को भेज दिया गया है। यानी बिहार की राजनीति पहले से जातीय गणना के लिए संजिदा है। लिहाजा, अब बिहार में कर्नाटक की तरह राज्य सरकार के द्वारा अपने खर्चे पर जातीय गणना करने की मांग भी जोर पकड़ने लगा है।
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जाति और आर्थिक गणना क्यों जरुरी
मैं पहले ही बता चुका हूं कि विरोध हो अथवा समर्थन। कारण राजनीतिक है। इससे कई लोग गुमराह होने लगे है। हालांकि, इस बीच अधिकांश ऐसे लोग है, जिनका मानना है कि सभी जातियों की और उनकी आर्थिक स्थिति की गणना की जाये। कहतें हैं कि इससे हकीकत सामने आ जायेगा और विकास की योजना बनाने में मदद मिलेगी। सभी को समान रुप से उसका हक मिलेगा और समाजिक तनाव भी कम हो जायेगा। प्रजातंत्र में प्रजा की मांग को सर्वोपरी माना गया है। जब अधिकांश लोग जतीय गणना की मांग कर रहें है। तो सरकार को गंभीर होना चाहिए। यह समय की मांग की है।
यूपीए-टू की सरकार ने क्यों प्रकाशित नहीं किया
वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह की यूपीए- टू की सरकार ने जातीय गणना कराया था। इस जनगणना में जातीय आंकड़े तो जुटाए गए। लेकिन इसका प्रकाशन नहीं हुआ। सवाल उठता है कि इसका प्रकाशन क्यों नहीं हुआ। दरअसल, भारत में जातियों का आंकड़ा बहुत उलझा हुआ है। यहां जातियों के भीतर कई उप जातियां है। कहतें हैं कि जन गणना रिपोर्ट की स्क्रिनिंग के दौरान कई चौकाने वाले आंकड़े सामने आये थे। मशलन भारत में करीब 46 लाख जातियों का इस रिपोर्ट में खुलाशा होने से अधिकारी के साथ-साथ सरकार भी सकते में पड़ गई। इसका मतलब तो ये हुआ कि प्रत्येक 72 परिवार पर देश में एक जाति होगा। ऐसा कैसे हो सकता है? इसी को आधार बना कर तात्कालीन सरकार ने जातीय गणना की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करने का निर्णय लिया। भारत में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग बना हुआ है। यह आयोग सभी राज्यों में पिछड़ी जातियों की लिस्ट तैयार करता है। आयोग की लिस्ट के मुताबिक, बिहार में ओबीसी की कुल 136 जातियां है। जबकि कर्नाटक में इनकी संख्या 199 हो जाती है। इसी प्रकार अलग अलग राज्यों में इसके अलग संख्या बताई गई हैं। यानी, केंद्र और राज्यों के द्वारा बनाई गई ओबीसी लिस्ट की मिलान की जाये। तो सिर्फ इसी वर्ग में जातियों की संख्या हजारों में पहुंच जाती है। लिहाजा, कई लोगो का मानना है कि पहले किसी एक्सपर्ट कमेटी का गठन करके ओबीसी के लिए खास मानक निर्धारित किया जाये और इसको आधार बना कर ओबीसी की परिभाषा तय की जाये। इसके बाद उसी आधार पर जनगणना अधिकारियों को ट्रेनिंग दे कर जातीय गणना करनी होगी। दरअसल, यह एक तकनीक पहलू है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। पर, जब तक ओबीसी की परिभाषा तय नहीं होती है। तब तक प्रचलित जातियों की गणना करने में हर्ज क्या है?
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ब्र्रिटिश इंडिया ने कब कराया था जातिय जनगणना
ब्रिटिश इंडिया की सरकार ने भारत में पहली और आखरी बार जातीय जनगणना वर्ष 1931 में की थीं। वर्तमान का पाकिस्तान और बांग्लादेश उस वक्त भारत का हिस्सा हुआ करता था। तब देश की कुल आबादी 30 करोड़ के करीब थी। इस गणना में हिन्दू वर्ग में पिछड़ी जाति की संख्या- 43.70 और अल्पसंख्यक वर्ग में पिछड़ी जातियों की संख्या- 8.40 बताई गई है। यानी कुल मिला कर पिछड़ी जातियों की कुल संख्या- 52.1 होती है। इसी को आधार मान कर आज तक योजनाएं बनती रही है। यहां एक बात और है, जो गौर करने लायक है। ब्रिटिश इंडिया ने वर्ष 1941 के जन गणना के दौरान भी भारत में जातियों की गिनती की थीं। किंतु, दूसरे विश्वयुद्ध का हवाला देकर इसके प्रकाशन पर रोक लगा दिया गया था। आजादी मिलने के बाद भारत की सरकार ने पहली बार वर्ष 1951 में जन गणना कराया। किंतु, इसमें जातिय गणना नहीं की गई। तब से भारत में यहीं परंपरा चली आ रही है। स्वतंत्र भारत में 1951 से 2011 तक की प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को छोड़ कर अन्य किसी जाति की गणना नहीं की गई। हालांकि, वर्ष 2011 में जातियों की गणना तो हुई। पर आंकड़ो का प्रकाशन नहीं किया गया। ब्रिटिश इंडिया ने पहली बार भारत में 1881 में जन गणना किया था और इसके बाद प्रत्येक दस साल पर जन गणना होती रही है। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारत की जन गणना में शिक्षा, रोजगार और मातृभाषा की गणना करने का प्रचलन था। जो, जरुरत के हिसाब से आज बदल चुका है।
जाति आर्थिक गणना जरुरी
अधिकांश लोगो का मानना है कि भारत में जातीय जन गणना से किसी का कोई नुकसान नहीं होगा। उल्टे इससे समाज में तनाव कम होगा। लिहाजा, इसको लेकर किसी को भ्रम में रहने की जरुरत नहीं है। राजनीतिक बहकावे में आने की भी जरुरत नहीं है। कहतें हैं कि यह सभी के हित में होगा। दरअसल, यह आज की जरुरत है और इसके लिए समवेत प्रयास करने से समाजिक सौहार्द और बढ़ेगा। जरुरतमंदो को इसका उचित लाभ मिल जायेगा। इससे समाजिक असंतोष में कमी आयेगी और सरकार को भी विकास की योजना बनाने में कारगर मदद मलेगी।
जनता की गाढ़ी कमाई को क्यों बर्बाद करतें हैं सांसद
KKN न्यूज ब्यूरो। आज हम आपका ध्यान देश की एक ऐसी समस्या की ओर खींचना चाहतें हैं, जहां हमारे और आपके, यानी हम सभी के मुकद्दर का फैसला होता है। किंतु, वहां होता क्या है? इसके तफ्तीश में जाने से पहले आज हम आपसे एक सवाल पूछना चाहतें है। सवाल ये कि, आपने कभी सोचा है कि हमारे घर के किसी नौजवान को अच्छी सैलरी के साथ नौकरी मिल जाए और वह अपने दफ्तर में पहुंचते ही हंगामा करने लगे। तोड़फोड़ करने लगे और इस काम को करते हुए उसे, उसको नौकरी से बर्खाश्त करने के बदले, उसकी सैलरी बढ़ा दी जाए, सुविधाएं बढ़ा दी जाए…?
अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसा कैसे हो सकते है? पर, सच तो यही है, कि ऐसा हो रहा है और वह भी हमारे देश के लोकतंत्र की सबसे बड़ी मंदिर, यानी संसद में। दरअसल, आय रोज संसद के कार्यवाही के ठप होने की खबरे हम सभी सुनते रहतें हैं। पर, क्या आप जानते हैं कि इस हंगामे का हमें कितना कीमत चुकाना पड़ रहा है? दरअसल, संसद में एक मिनट की कार्यवाही का खर्च, ढाई लाख रुपए पड़ता है। यानि, एक घंटे का खर्च डेढ़ करोड़ रुपए हुआ। आमतौर पर राज्यसभा की कार्यवाही एक दिन में 5 घंटे चलती है, जबकि लोकसभा की कार्यवाही एक दिन में 8 से 11 घंटे चलती है। अगर लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर रोजाना एक घंटे काम हों तो सोमवार से शुक्रवार तक का खर्च, तकरीबन 115 करोड़ रुपये होता है। ऐसे में 2010 से 2014 के बीच संसद के 900 घंटे बर्बाद हुए, तो सोचिए कितना पैसा बर्बाद हुआ होगा?
हंगामें की भेंट चढ़ी करोड़ो रुपये
अब आइए, इसको विस्तार से समझते हैं। लोकसभा से प्राप्त आकड़ो पर गौरकरें तो 16वीं लोकसभा के पहले सत्र हंगामे की वजह से 16 मिनट बर्बाद हो गई। यानी 40 लाख रुपये का नुकसान हो गया। इसी प्रकार दूसरे सत्र में 13 घंटे 51 मिनट बर्बाद हुए, यानी 20 करोड़ 7 लाख रुपये का नुकसान हो गया। तीसरे सत्र में 3 घंटे 28 मिनट तक सदन में हंगामा चलता रहा और कोई काम नहीं हुआ। इससे हमारे देश के 5 करोड़ 20 लाख रुपये का नुकसान हो गया। इसी प्रकार चौथे सत्र में 7 घंटे 4 मिनट तक हुए हंगामे से देश को 10 करोड़ 60 लाख रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। पांचवे सत्र में हद ही हो गई। हंगामें के कारण संसद का 119 घंटे बर्बाद हुए और देश के खजाने को 178 करोड़ 50 लाख रुपये का नुकसान हो गया। हम सभी ने देखा है कि सत्र के दौरान अक्सर संसद की कारवाही हंगामे की भेंट चढ़ी है। देश का करोड़ो रुपये बर्बाद होता रहा है। ताज्जुब की बात ये है कि इस बर्बादी के लिए कोई जिम्मेदार नही है। नाही, किसी को इसकी सजा दी जाती है। उल्टे, हंगामा करने वालों का बेतन और भत्ता में बढ़ोतरी होना तय माना जाता है।
आवाम के टैक्स की हो रही है बर्बादी
जानते हैं संसद की कार्यवाही के लिए जो पैसे खर्च किए जाते हैं, वह कहां से आता है? दरअसल, वह हमारी और आपकी कमाई से ही वसूला जाता है। यानी हम जो टैक्स देते है, उसी राशि को राजनीतिक कारणो से हमारे रहनुमा बर्बाद कर देते है। हम और आप दिनरात मेहनत करके जो पैसा कमाते हैं, सरकार उस पर टैक्स वसूलती है। उसी टैक्स से सरकारी खजाना भरता है और उसी खजाने से संसद की कार्यवाही पर खर्च करने के लिए पैसों का इंतजाम होता है। अब सवाल उठता है कि हमारे सांसद अपने या अपनी पार्टी की एजेंडा चलाने के लिए संसद का उपयोग क्यों करतें हैं? विधेयक पर, तार्किक वहस के बदले हंगामा खड़ा करके, कारवाही को ठप कर देने की प्रवृति, हमारे देश में नई नही है। पर, इस प्रवृति में दिन प्रतिदिन हो रही बढ़ोतरी अब हमारे लिए चिंता का विषय बन गया है। एक दूसरे पर इल्जाम मढ़ने में महिर हो चुके, हमारे ये रहनुमा, इसके लिए खुद को जिम्मेदार भी नही मानते है। चिंता इसलिए भी, कि इन्हींके बहकावे में आकर हम जाति, धर्म और सम्प्रदाय की आर में इस कदर बट चुकें हैं, कि इस गंभीर विषय पर भी चुप रहना, हमारी आदद बन चुकी है।
सांसद को मिलने वाली सुविधाएं
इस बात को आगे बढ़ाने से पहले, आइए अब आपको बतातें हैं कि जन समस्याओं पर गंभीर चर्चा करने की जगह अपने कतिपय राजनीतिक एजेंडा के खातिर संसद में हंगामा करने वाले हमारे रहनुमाओं का, इसमें खुद का हित किस प्रकार से जुड़ा है? कहतें हैं कि भारत उन देशों में शामिल है, जहां सांसदों ने अपनी सैलरी और भत्ते तय करने का अधिकार खुद के पास रखा हुआ है। इंफो चेंज इंडिया के मुताबिक, हमारे सांसद देश की औसत आय से 68 गुना ज्यादा वेतन और भत्ते पाते हैं। इसके अलावा दुनिया के कई देशों से उलट, उन्हें निजी व्यापार करने और असीम दौलत कमाने की सुविधा भी मिली हुई है।
हंगामा करते सांसद
बावजूद इसके उन्हें अपना वेतन व भत्ता प्रयाप्त नही लग रहा है। लिहाजा वेतन व भत्ता में बढ़ोतरी के लिए हालिया दिनो में सरकार ने एक संसदीय समिति का गठन कर दिया है। या यू कहें कि समिति की रिपोर्ट सरकार को मिल भी चुकी है। आपको जानना जरुरी है कि संसदीय समिति ने सांसद के वेतन और दैनिक भत्ता को दोगुना करने का, सरकार को प्रस्ताव दिया है और तकरीबन सरकार ने इसे मान भी लिया है। क्या आप जानते हैं कि आपके चुने हुए जन प्रतिनिधियो को सरकार की ओर से कितना वेतन और भत्ता मिलता है? हम आपको बतातें हैं। दरअसल, सांसद को प्रत्येक महीना 50 हजार रुपये का वेतन मिलता है। अब संसदीय समिति ने इसे बढ़ाकर एक लाख रुपये करने की सिफारिश कर दी है। इसके अतिरिक्त एक सांसद को अपने संसदीय क्षेत्र में कार्यालय रखने के लिए 45 हजार रुपये अलग से मिलता हैं। इसमें 15 हजार रुपये का स्टेशनरी और पोस्टेज के लिए और 30 हजार रुपये सहायकों को भुगतान करने के लिए मिलता हैं। संसद सत्र के दौरान संसद आने पर सांसद को रोज 2 हजार रुपये का अतिरिक्त दैनिक भत्ता मिलता है। बावजूद इसके, उन्हें सस्ते कैंटिन की सुविधा दी जाती है। इतना ही नही बल्कि उनको अपने घर में इस्तेमाल के लिए तीन टेलीफोन लाइन की सुविधा दी जाती है और प्रत्येक लाइन पर सालाना 50 हजार कॉल मुफ्त में करने की छूट होती है। इसी प्रकार, घर में फर्नीचर के लिये 75 हजार रुपये, पत्नी या किसी और के साथ साल में 34 हवाई यात्राएं मुफ्त में करने, रेल यात्रा के लिये मुफ्त में फर्स्ट एसी का टिकट, सालाना 40 लाख लीटर मुफ्त पानी, सालाना 50 हजार यूनिट मुफ्त बिजली, सड़क यात्रा के लिये 16 रुपये प्रति किलोमीटर का किराया भत्ता और सांसद और उसके आश्रितों को किसी भी सरकारी अस्पताल में मुफ़्त इलाज की सुविधा दी जाती है। निजी अस्पतालों में इलाज पर खर्च का भुगतान सरकारी खजाने से करने का प्रावधान है। इसी प्रकार सांसद रहते हुए दिल्ली के पॉश इलाके में फ्लैट या बंगला की सरकारी सुविधा, वाहन के लिये ब्याज रहित लोन और कंप्यूटर खरीदने के लिये दो लाख रुपये सरकारी खजाने से अनुदान मिलता है। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि हमारे प्रतिनिधि को प्रत्येक तीन महीने पर पर्दे और सोफा का कवर धुलवाने का खर्च भी सरकारी खजाने से ही मिलता है। सबसे अहम बात ये, कि सांसदों की यह आमदनी टैक्स के प्रावधानों से मुक्त होता है। यानी सांसदों को अपने वेतन और भत्ता पर टैक्स नहीं देना पड़ता।
डबल पेंशन लेने का है प्रावधान
चुनाव हारने के बाद भी एक पूर्व सांसद को हर महीने 20 हजार रुपए का पेंशन मिलता है। पांच साल से अधिक होने पर हर साल के लिए 1,500 रुपए अलग से दिए जाते हैं। हालाकि, अब इस राशि को बढ़ाकर संसदीय समिति ने 35 हजार रुपए करने की सिफारिश कर दी है। आपको यह जान कर हैरानी होगी कि भारत में पूर्व सांसद और पूर्व विधायक को डबल पेंशन लेने का भी हक है। कहने का अर्थ यह कि कोई व्यक्ति पहले विधायक रहा हो और बाद में सांसद बना हो तो उसे दोनों पेंशन लेने का हक है। बतातें चलें कि सांसद या पूर्व सांसद की मृत्यु होने पर उनके आश्रित को आजीवन आधी पेंशन दी जाती है। इसी प्रकार पूर्व सांसदों को किसी साथी के साथ ट्रेन में सेकेंड एसी में मुफ्त यात्रा की सुविधा है। यही यात्रा यदि वे अकेले करतें हैं तो प्रथम श्रेणी एसी की सुविधा दी जाती है।
ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि, इतना सुविधा लेने के बाद भी जनहित में कार्य करने की जगह राजनीतिक एजेंडा के तहत महज हंगामा खड़ा करके सरकारी धन का कब तक दुरुपयोग होता रहेगा? अपने इलाके और देश की समस्याओं पर वहस करने की जगह महज एक दुसरे को कटखड़े में खड़ा करने और संसदीय कार्यो में बाधा खड़ा करके अपना ऐजेंडा चलाने की, बढ़ रही प्रवृति से आखिरकार नुकसान किसका हो रहा है? ऐसे, और भी कई सवाल है, जो हम आपके सोचने के लिए छोड़े जातें हैं।
गैर परंपरागत तरीके से भारत को कमजोर करना चाहता है चीन
KKN न्यूज ब्यूरो। धूल उड़ाती टैंक और आसमान में गर्जना करती फाइटर जेट। संगीन के साये में एक-एक इंच जमीन और अस्मिता की रक्षा के लिए गुथ्थम-गुथ्था करते हमारे जांबाज। जो, अपनी आहूति देने के लिए हरपल तैयार खड़े है। दरअसल, यह दृश्य है भारत-चीन सीमा की। सिपाही आर-पार के मूड में है। सियासतदान नफा-नुकसान तलाश रहे है। बार्ता बार-बार विफल हो रही है। सीमा पर बढ़ता तनाव खतरे का संकेत देने लगा है। ऐसे में सवाल उठता है कि युद्ध होगा क्या? आखिर ऐसा क्या हुआ कि चीन अचानक बिलबिला उठा? ऐसे और भी कई सवाल है और इसी सवाल का जवाब तलाशने की हमने कोशिश की है।
अनुच्छेद 370 से जुड़ा है चीन की बिलबिलाहट
दरअसल, जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद से ही चीन बिलबिलाया हुआ है। क्योंकि, अनुच्छेद 370 के हटते ही चीन के कब्जे वाला अक्साई चीन का इलाका पर अब भारत का दावा प्रवल हो गया है। कहते है कि अक्साई चीन यदि चीन के हाथो से निकल गया तो शीनजियांग में उईगर मुसलमानो को काबू में रखना चीन के लिए कठिन हो जायेगा। दूसरा ये कि यदि भारत ने पीओके पर कब्जा कर लिया तो चीन के सीपीईसी प्रोजेक्ट को अरबो का नुकसान हो सकता है। इससे बचने के लिए चीन की सेना भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखना चाहती है और गलवान की घटना को इस कड़ी से जोड़ कर देखा जाने लगा है। दुसरा बड़ा कारण कोरोना है। कोरोना वायरस को लेकर चीन इन दिनो दुनिया के निशाने पर है। इसका असर चीन के घरेलू राजनीति पर भी है। सत्ता पर शीजिंगपिंग की पकड़ कमजोर पड़ने लगी है। लिहाजा, एक रणनीति के तहत अपनी घरेलू राजनीति के दबाव से उबरने के लिए जान बूझ कर चीन ने सीमा पर तनाव पैदा करके लोगो का ध्यान बाटना चाह रही हैं।
भारत की सीमा सड़क परियोजना
भारत की सीमा सड़क परियोजना चीन के गले की हड्डी बन गई है। आजादी के सात दशक बाद पहली बार सीमा पर भारत की जबरदस्त सक्रियाता से चीन सकते में है। लिहाजा, इसको चीन के नाराजगी की सबसे बड़ा और शायद असली कारण बताया जा रहा है। दरअसल, भारत सरकार ने सीमा पर सामरिक महत्व के 73 सड़को के निर्माण का कर्य आरंभ कर दिया है।
इससे चीन की विस्तारवादी नीति को भारत के सीमा पर करारा तमाचा लगा है। दरअसल, यही वह बड़ी वजह है कि जिसकी वजह से चीन बिलबिला उठा है। इस बीच चीन से चल रही तानातानी के बीच में ही केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग यानी CPWD और सीमा सड़क संगठन यानी BRO के साथ बैठक करके सीमा पर सामरिक महत्व के 32 सड़को के निर्माण को मंजूरी दे दी है। इसी के साथ चीन की सीमा से सटे इलाको में सामरिक महत्व के 73 सड़को के निर्माण का काम शुरू हो चुका है। इनमें से 12 सड़कों का निर्माण CPWD और 61 सड़कों का निर्माण BRO कर रहा है। चीन के बौखलाहट की यह सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। यहां आपको बता देना जरुरी है कि सीमा पर बनने वाली सभी सड़को की देख-रेख का ज़िम्मा केन्द्रीय गृह मंत्रालय करती है। यानी गृह मंत्रालय के अनुमोदन और प्रर्यवेक्षण में ही सीमा पर सड़क बनाया जाता है। जानकारी के मुताबिक इसमें से कई पर काम फाइनल स्टेज में है। बताया जा रहा हैं कि इन सड़को के बन जाने से सैनिक उपकरण के साथ भारतीय सेना की सीमा तक पहुंच आसान हो जायेगी। लिहाजा, चीन इन तमाम सड़को के निर्माण कार्य को लेकर बेवजह का अडंगा खड़ा कर रहा है और इन्हीं कारणो से चीन बौखलाया हुआ है। क्योंकि, चीन को अच्छे से मालुम है कि इन सड़को के बन जाने के बाद उसकी विस्तारवादी नीति को भारत की सीमा पर लागू करना मुश्किल हो जायेगा। यहां आपको जान लेना जरुरी है कि चीन अपने इलाके में सीमा से सटे सड़क का पहले ही निर्माण कर चुका है। यही काम अब भारत कर रहा है। तो चीन बौखला गया है। सड़क निर्माण के इस प्रोजेकट में लद्दाख वैली में बनाए जाने वाले सामरिक महत्व के सड़क भी शामिल हैं। इतना ही नहीं बल्कि, सड़कों के अलावा इन सीमावर्ती इलाको में सरकार ने ऊर्जा, स्वास्थ्य और शिक्षा के विकास के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने का काम भी शुरू कर दिया है।
470 किलोमीटर लम्बी सड़क तैयार
भारत- चीन सीमा पर सड़कों के निर्माण के लिए पत्थर हटाने का काम वर्ष 2017 में ही शुरू हो चुका था। इस बीच करीब 470 किलोमीटर में काम भी पूरा हो चुका है। इसी प्रकार 380 किलोमीटर में सड़क के लिए जमीन को समतल करने का काम पूरा हो चुका है। वर्ष 2017 से पहले के एक दशक में 170 किलोमीटर में चल रहे सड़क निर्माण कार्य में भी अब तेजी आ गई है। सीमा की छोटी बड़़ी सभी सड़को को मिला कर देखा जाए तो वर्ष 2014 के बाद सीमा पर 4 हजार 764 छोटी बड़ी सड़कों का निर्माण हुआ है। हालांकि, यहां पहले से भी 3 हजार 160 किलोमीटर की सड़के मौजूद थीं। दरअसल, यही वह कारण है, जिससे चीन बौखला गया है।
टनल और बजट से घबराया चीन
टनल निर्माण की बात करें तो वर्ष 2014 से लेकर अभी तक सीमा पर आधा दर्जन टनल का निर्माण हो चुका है। इससे पहले यहां मात्र एक टनल हुआ करता था। केन्द्र की सरकार ने सड़क प्रोजेक्ट के बजट में जबरदस्त इज़ाफा किया है। अब इस पर भी गौर करिए। साल 2008 से लेकर साल 2016 तक सीमा पर सड़क निर्माण हेतु अनुमानित बजट 4 हजार 600 करोड़ रुपये हुआ करता था। जबकि वर्ष 2018 में इसको बढ़ा कर 5 हजार 450 करोड़ कर दिया गया। वर्ष 2019 में इसको बढ़ा कर 6 हजार 700 करोड़ और वर्ष 2020-2021 के लिए इसको बढ़ा कर 11 हजार 800 करोड़ रूपए कर दिया गया है। जानकार मानते है कि इन सड़को के बन जाने के बाद सीमा पर चीन के चालबाजी को काउंटर करने में भारत सक्षम हो जायेगा और यही बात अब चीन को चूभने लगा है।
अनिश्चितता की भंवर में फंसा सीपीईसी
जानकार मानते है कि चीन के बौखलाहट का बड़ा कारण सीपीईसी यानी चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर है। दरअसल, यह प्रोजेक्ट चीन की महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट है। यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अक्साई चीन जैसे विवादित इलाको से होकर गुजरता है। भारत इस प्रोजेक्ट का शुरू से ही विरोध करता रहा है। किंतु, चीन ने भारत के विरोध को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। इस बीच जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद पीओके और अक्साई चीन पर भारत का दावा प्रवल हो गया और यही बात अब चीन को चूभने लगा है। क्योंकि सीपीईसी का पूरा गलियारा पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साई चीन से होकर गुजरता है। यह पूरा प्रोजेक्ट मुख्य तौर पर यह एक हाइवे और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट है और यह चीन के काशगर को पाकिस्तान के ग्वारदर से जोड़ता है। आपको बतादें कि चीन के इस महत्वाकांक्षी सीपीईसी प्रोजेक्ट की कुल लागत 46 अरब डॉलर यानी करीब 31 लाख करोड़ रुपए की है। अनुच्छेद 370 के हटने के बाद पीओके और अक्साई चीन पर कानूनी तौर पर भारत का दावा प्रवल हो गया है। यदि भारत ने पीओके पर कब्जा कर लिया तो चीन के इस महत्वाकांक्षी सीपीईसी प्रोजेक्ट को 31 लाख करोड़ रुपये का भारी नुकसान हो जायेगा। नतीजा, इससे बचने के लिए चीन की सरकार ने भारत को कमजोर करने के लिए भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना शुरू कर दिया है और गलवान का विवाद इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है। हालिया वर्षो में भारतीय सेना ने आक्रामक रूख अख्तियार कर लिया है। इसको देख कर चीन हैरान है। डोकलाम से लेकर गलवान तक। भारतीय फौज के आक्रामक रूख को देख चीन हैरान है।
चीन कर सकता है जैविक हमला
तानातानी के बीच चीन के साथ कॉनवेंसनल वार या एटोमिक वार होने की सम्भावना बहुत ही कम है। पर, हो सकता है कि लिमिट वार हो जाये। इसके लिए भारतीय सेना मुस्तैद है और चीन को मुहकी खानी पड़ेगी। इसमें कोई दो राय नहीं है। पर, चीन के वायोलॉजिकल वेपन से खतरा हो सकता है। क्योंकि, चीन के पास प्रयाप्त वायोलॉजिकल वेपन है और उस पर यकीन करना आत्मघाती हो सकता है। एक खतरा और है। और वह है साइवर अटैक का। दरअसल, कई मोर्चे पर मुंहगी खाने के बाद चीन ने बड़े पैमाने पर साइवर अटैक करने की योजना बना ली है और कुछ क्षेत्रो में यह हमला शुरू भी हो चुका है। आने वाले दिनो में इसमें और तेजी आने के पूरे आसार है। सीमा पर हालात युद्ध के जैसा है। पर मुझे लगता है कि युद्ध नहीं होगा। अलबत्ता एक दो रोज की झड़प हो जाये या कोई लिमिट वार हो जाये। पर, युद्ध नहीं होगा। क्योंकि, भारत से पांच अरब डॉलर से अधिक का कारोबार करने वाला चीन युद्ध का जोखिम नहीं उठा सकता है। यानी युद्ध की सम्भवना बहुत कम है। अब एक हकीकत और समझिए। दरअसल, चीन ने पिछले 16 वर्षों में भारत में जितना निवेश किया है। उसका 77 फीसदी निवेश पिछले पांच वर्षो में हुआ है। चीन ने अपने कुल निवेश का करीब 59 फीसदी हिस्सा अकेले मोटर और वाहन उद्योग में किया है। इसी प्रकार 11 फीसदी धातु उद्योग में और 7 फीसदी सर्विस सेक्टर में निवेश किया है। मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया को सफल बनाने के लिए आयात को महंगा कर दिया है। सरकार ने मोबाइल कंपोनेंट पर 30 फीसदी और तैयार मोबाइल पर 10 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया है। इसके बाद चीनी की कई कंपनिया भारत में यूनिट लगा चुकी है। इसके अतिरिक्त चीन में उत्पादन लागत की तुलना में भारत का बाजार सस्ता होने की वजह से बड़ी संख्या में चीन के उद्योगपति अब भारत में निवेश करने लगे हैं। ऐसे हालात में चीन द्वारा भारत से युद्ध की बात करना, कपोल कल्पना नहीं, तो और क्या है? दूसरी बड़ी वजह ये कि चीन अभी दक्षिण चीन सागर में अमेरिका से उलझा हुआ है। चीन को अपने कई पड़ोसी देशों से सीमा विवाद है और हालात तनावपूर्ण बना हुआ है। ऐसे में भारत के साथ युद्ध की हालत में अपनी पूरी सैन्य क्षमता झोकना चीन के लिए मुश्किल हो जायेगा। एक बात और है। वह ये कि कोरोनाकाल में चीन के राष्ट्रपति शीजिनपिंग की छवि को बड़ा झटका लगा है। चीन पर दुनिया का विश्वास पहले से कम हुआ है। ऐसे में युद्ध हो गया तो पूरे विश्व में चीन की छवि धूमिल हो जायेगी। ऐसे में एशिया और अफ्रीका के कई देशों में आर्थिक साझेदारी करना चीन को मुश्किल हो जाएगा। यानी कुल मिला कर कहा जा सकता है कि बर्चश्व की धौसपट्टी चाहे जितना लम्बा हो जाये। पर, युद्ध के आसार बहुत ही कम है।
युद्ध होने पर कमजोर पड़ेगा चीन
हालात के दूसरे पहलू पर भी विचार कर लेते है। यानी, यदि युद्ध हो गया, तो क्या होगा? तुलनात्मक तौर पर भारत की सेना चीन के समक्ष भले ही कमजोर दिखता है। परंतु, वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। चीनी की सेना 1969 में वियतनाम युद्ध हारने के बाद किसी युद्ध में भाग नहीं लिया है। जबकि भारतीय सेना हिमालय की सरहदों में लगातार संघर्ष करती रही है। दूसरा ये कि चीन से सटी बॉर्डर की भौगोलिक स्थिति भारत के पक्ष में है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि युद्ध होने पर चीन के विमानों को तिब्बत के ऊंचे पठार से उड़ान भरनी होगी। वहां ऑक्सिजन की बेहद कमी है। ऐसे में चीन के विमानों को फूललेंथ विस्फोटक और ईंधन के साथ उड़ान भरना मुश्किल होगा। सेटेलाइट से प्राप्त तस्वीरो से पता चला है कि युद्ध की स्थिति में चीन ने अपने जे-11 और जे-10 विमान को चोंगडू से उड़ान भरने के लिए तैयार कर दिया है। पर इसको क्षमता से कम विस्फोटक लेकर उड़ान भरना होगा। क्योंकि, वहां ऑक्सिजन की बेहद कमी है। जबकि, भारत ने असम के तेजपुर में सुखोई 30 को अग्रीम मोर्चा पर तैनात कर दिया है। अत्याधुनिक राफेल भारत को प्राप्त हो चुका है। युद्ध की स्थिति में विमान यहां से फूललेंथ के साथ उड़ान भर सकता है। बेशक, चीन के पास भारत से अधिक लड़ाकू विमान हैं। लेकिन भारत के सुखोई 30 एमआई का चीन के पास कोई तोड़ नहीं है। चीन के पास सुखोई 30 एमकेएम है। अब इस दोनो का फर्क समझिए। भारत के पास मौजूद एमआई एक साथ 30 निशाना लगा सकता है। जबकि, चीन के पास मौजूद एमकेएम एक साथ सिर्फ दो निशाना ही लगा सकता है। यानी भारत की सेना उतना कमजोर नहीं है। जितना की हमे बताया जा रहा है। यदि बड़े पैमाने पर युद्ध हो गया तब क्या होगा? ऐसे में मिशइल टेक्नोलॉजी पर गौर करना होगा। भारत ने ब्रह्मोस मिशाइल पर भरोसा जताया है। सम्भव है कि सबसे पहले इसका इस्तेमाल हो जाये। यह 952 मीटर प्रति सेकेण्ड की रफ्तार से चल कर चीन के रडारों को चकमा देने और सटीक निशाना लगाने में पूरी तरीके से सक्षम है। ब्रह्मोस का उत्पादन भारत में ही होता है। यानी युद्ध के दौरान इसके सप्लाई में कोई अरचन नहीं होगी। दूसरी ओर चीन के पास मौजूद बैलेस्टिक मिसाइल DF-11, DF-15 और DF-21 बेहद ही शक्तिशाली मिशाइल है। फिलहाल भारत के पास इसका कोई तोड़ नहीं है। चीन की ये मिशाइलें भारत के किसी भी शहरों को तबाह कर सकता है। हालांकि इसके जवाब में भारत के पास मौजूद अग्नी मिशाइल बीजिंग से लेकर चीन के अधिकांश शहर को तबाह करने की क्षमता रखता है।
समुद्री क्षेत्र में तैयार है भारत
समुद्री क्षेत्र में भारत की स्थिति काफी मजबूत है। हिंद महासागर में भारतीय नौसेना ने यूरोप, मध्यपूर्व और अफ्रीका के साथ मिल कर चीन के रास्ते की नाकेबंदी करने का ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है। बतातें चलें कि चीन का कारीब 87 फीसदी कच्चा तेल इसी रास्ते से होकर आयात होता है। यदि भारत की यह रणनीति कारगर साबित हुआ तो चीन को घुटने के बल पर आना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त भारत के पास स्पेशल फ्रंटियर फोर्स नाम का एक बेहद ही खतरनाक लड़ाकू दस्ता है। यह तिब्बत में घुसकर चीन की रणनीति को बिगाड़ देने की माद्दा रखता है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि आंकड़ों में कमजोर दिखने के बावजूद भारत की स्थिति बेहद ही मजबूत है। भारत ने एक साथ दो मोर्चा पर युद्ध लड़ने की तैयारी पूरी कर ली है। क्योंकि, यह माना जा रहा है कि यदि चीन के साथ युद्ध हुआ तो पाकिस्तान चुप नहीं बैठेगा। भारत ने इसकी सभी तैयारी पूरी कर ली है। कहतें है कि युद्ध सिर्फ हथियारों से नहीं जीता जा सकता है। बल्कि, इसके लिए बुलंद हौसला और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत होता है। गलवान की झड़प के बाद भारतीय फौज का हौसला सातवें आसमान पर है। रही बात राजनीतिक इच्छाशक्ति की, तो भारत एक प्रजातांत्रिक देश है और प्रजातंत्र में आरोप प्रत्यारोप से ही शासन सत्ता की शक्ति प्रखर होती है। लिहाजा, इस वक्त दोनो शक्ति हमारे पास है। ऐसे में परिणाम को लेकर बेवजह चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है।
भारत चीन सीमा पर सैनिको की जबरदस्त जमावड़ा है। धूल उड़ाती टैंक है और आसमान में गर्जना करती फाइटर जेट भी है। संगीन के साये में एक-एक इंच जमीन के लिए गुथ्थम-गुथ्था करते हमारे जांबाज सिपाही अब आर-पार के मूड में है और बार-बार विफल हो रही वार्ता, खतरे का संकेत भी है। ऐसे में सवाल उठता है कि युद्ध होगा क्या? आखिर ऐसा क्या हुआ कि चीन अचानक बिलबिला उठा। चीन के इसी बिलबिलाहट को डीकोड करता हमारा यह रिपोर्ट…
भारत और नेपाल के संबंधो को लेकर इन दिनो कुछ तल्खी आ गई है। इसकी वजह सीमा विवाद बताई जा रही है। बतादें कि नेपाल और भारत के बीच करीब 1850 किलोमीटर से अधिक लंबी और खुली सीमा है। एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए पासपोर्ट की जरुरत नहीं है। दोनो देश के बीच सदियो से बेटी और रोटी का संबंध है। कभी सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। अलबत्ता चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद होता रहा है। नेपाल के प्रधानमंत्री के बयान के बाद भारत और नेपाल के बीच चली आ रही सदियों पुराने संबंधो को लेकर समीक्षा शुरू हो गई है। यह कुछ हद तक स्वभाविक भी है। सवाल उठता है कि नेपाल के प्रधानमंत्री ने ऐसा बयान क्यों दिया? इसको समझने के लिए भारत और नेपाल के बीच चली आ रही सदियों पुराने संबंधो को समझना होगा। विवाद के कारणो को समझना होगा और चीन की चाल को भी समझना होगा।
KKN न्यूज ब्यूरो। कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए भारत में लॉकडाउन की अवधि को 3 मई से बढ़ा कर 17 मई कर दिया गया है। भारत के अधिकांश लोगो ने इसका स्वागत किया है। केकेएन के ऑनलाइन सर्वे में 62 प्रतिशत लोगो ने कुछ छुट के साथ लॉकडाउन को बढ़ाने का समर्थन किया है। जबकि, 15 प्रतिशत लोगो ने पूरी कड़ाई से लॉकडाउन जारी रखने और 23 प्रतिशत लोगो ने 3 मई को लॉकडाउन समाप्त कर देने की इच्छा जाहिर की है।
केकेएन लाइव के सर्वे में दिखा देश का मिजाज
केकेएन के ऑनलाइन सर्वे में हमने पूछा था कि लॉकडाउन को लेकर आप क्या सोचते है? हमने तीन ऑप्सन दिये थे। A- 3 मई को लॉकडाउन समाप्त हो B- कुछ छुट के साथ मई में लॉकडाउन जारी रहे और C- 3 मई के बाद पूरी कड़ाई से लॉकडाउन जारी रहे। लोगो ने A- को 23 प्रतिशत B- को 62 प्रतिशत और C- को 15 प्रतिशत वोट करके अपना विचार दिया है। भारत की सरकार ने भी कमोवेश इसी को आधार बना कर कुछ छुट के साथ देश में लॉकडाउन को 17 मई तक के लिए जारी रखने का निर्णय किया है।
घटिया टेस्टिंग किट पर भारत और चीन के बीच तनाव का माहौल है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा चीन से आई रैपिड किट इस्तेमाल न करने और इसे वापस करने की सलाह के बाद चीन ने चिंता जाहिर की है। हालांकि चीनी कंपनियां ये मानने को तैयार नहीं हैं, कि उनकी किट की गुणवत्ता मे गड़बड़ी है। साथ ही चीन ने भारत को नसीहत देते हुए कहा है, कि किट के स्टोरेज, इस्तेमाल और ट्रांसपोर्टेशन सही तरीके से प्रोफेशनल लोगों द्वारा न किया जाए तो नतीजों में गड़बड़ी हो सकती है।
लेकिन भारत ने चीन को ये संदेश दिया है की गुणवत्ता के तौर पर कोई सम्झौता नही किया जाएगा। वहीं, सूत्रों की माने तो घटिया गुणवत्ता वाली किट लौटाई जा सकती हैं और साथ ही इनका भुगतान भी रोका जा सकता है। जहां गुणवत्ता मानकों का कड़ाई से पालन पर भारत जोर दे रहा है, वही चीनी कंपनियां इस बात का दावा कर रही हैं कि उनके उत्पाद का सही तरीके से सर्टिफिकेशन हुआ है। साथ ही चीनी कंपनियों की ओर से अन्य देशों में भेजी गई किट का हवाला देते हुए कहा गया है कि उन्होंने इसकी गुणवत्ता को स्वीकार किया है। चीन की ओर से सफाई में कहा गया कि चीन में जो मेडिकल सामान बन रहा है, उसमें गुणवत्ता का ध्यान रखा जा रहा है, इनको आईसीएमआर द्वारा अनुमति प्राप्त पुणे की लैब ने भी जांचा था और सही ठहराया था।
इतना ही नही चीन ने भारत में किट के स्टोरेज के तरीकों और उसके प्रोफेशनल तरीके से इस्तेमाल पर भी सवाल उठाया है। लेकिन चीन ने ये भी कहा कि कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में चीन भारत के साथ खड़ा है। वह हर तरह की मेडिकल सहायता करने को भी तैयार है।
आपको बता दे की भारत ने करीब पांच लाख रैपिड टेस्टिंग किट चीन से मंगवाई थी। उसके बाद इन कीटो को अलग-अलग राज्यों को सौंपा गया था, लेकिन राज्यों ने इनके नतीजों पर सवाल खड़े किए। आपको जानकार हैरानी होगी की राजस्थान में ये टेस्टिंग किट मात्र 5 प्रतिशत ही सफल रही। फिर जांच के बाद आईसीएमआर ने इनके उपयोग पर रोक लगाने का फैसला लिया।
आज भारत के नागरिकों में देश को एक बार फिर से विश्व गुरु बनाने का जुनून सिर पर चढने लगा है। यह एक साहसी सोच का नतीजा है। सदियों तक गुलामी की जंजीर में जकड़े रहने के बाद, आज हम इस मुकाम पर हैं कि भारत को फिर से विश्व गुरु के रूप में देखने का हौसला मन में पनपने लगा है। वर्तमान हुकूमतों के रहते इस सपने में पंख लगाने लगा है। परन्तु, इन सबके बीच सबसे अधिक चिंता कि बात यह है कि आखिर हम अपने सपनों के भारत में सबसे महत्वपूर्ण मसला यानी शिक्षा को सफलता की सीढ़ी कैसे बनायें?
शिक्षा है विकास का मूल अधार
हमें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि भारत के जिस स्वर्णिम इतिहास को सुनकर हमारा कलेजा गर्व से चौड़ा हो जाता है, उस काल में देश की शिक्षा प्रणाली एवं उसका स्तर पुरे विश्व में शीर्ष पर था। नालंदा, तक्षशिला और बिक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय हमारे देश की गौरव था। ज्ञान का पताका पुरे विश्व में फहरा रहा था। ज्ञान के दम पर हमने अपनी मजबूत अर्थव्यवस्था के बल पर दुनिया को राह दिखाई और विश्व गुरु की भूमिका का निर्वहन किया। क्योंकि, शिक्षा के स्तर के आधार पर ही किसी भी सभ्यता, संस्कृति या सुदृढ़ समाज का मूल निर्भर करता है। इसकी गुणवत्ता को सुदृढ़ किए बिना विकास कि गति को तेज करना किसी भी मूल्क के लिए संभव नहीं होता है।
भारत में वैश्विक स्तर के शिक्षा का अभाव
दूसरी ओर वर्तमान का सच ये है कि आज भारत का एक भी विश्वविद्यालय, दुनिया के शीर्ष सौ विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल होने के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो कुछ दशकों से देश में सरकारी एवं निजी विद्यालयों तथा महाविद्यालयों का निर्माण काफी तेजी से हुआ है। इसमें बड़ी संख्या में देश के युवा दाखिला लेते है और डिग्रीयां इकट्ठा करते हैं। परन्तु, उन्हे रोजगार नहीं मिल पाता है और बेरोजगारी दर में निरंतर वृद्धि दर्ज होने से यह सवाल भी उठने लगा हैं कि क्या ये तमाम शैक्षणिक संस्थानों के अंदर सिर्फ डिग्रीयां बांटने के अलावे भी युवाओं को कुछ रोजगार के योग्य बनाया जा रहा है?
रोजगार परख शिक्षा की दरकार
सरकार की मनसा भी संदेह के घेरे में है। यदि देश की शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण अथवा विश्वस्तरीय नहीं है तो उनके द्वारा इस क्षेत्र में सुधार के लिए कौन-कौन से कदम उठाए जा रहे हैं? आज यह यक्ष प्रश्न बन गया है। लाखों की संख्या में देश के युवा डिग्रीयां लेकर बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं और सरकार आंख बंद करके तमाशा देख रही है। शायद, इसी वजह से हमारे देश के करोड़ों युवा रोजगार के लिए लालायित हैं और चीन, युरोप, एवं अमेरिका समेत विदेशों से लोग आकर हमारे यहां व्यापार करके भारत को अपने रोजगार का चारागाह बना रहे हैं। दरअसल, यही वह बड़ी कारण है जो हमारे देश को आत्मनिर्भर बनाने में सबसे बड़ी बाधा खड़ी करती है।
बढ़ाना होगा शिक्षा का बजट
विकसित देशों की बात कि जाए तो वहां बजट का बड़ा हिस्सा शिक्षा के क्षेत्र में खर्च किया जाता है। दूसरी ओर विकासशील होने के बाद भी हमारे देश के कुल बजट का तीन फीसदी हिस्सा भी शिक्षा पर नहीं खर्च हो पा रही है। सरकारी संस्थानों में सिर्फ नाम के लिए ही बच्चे दाखिला लेते हैं। लेकिन वे अपनी पढाई को निजी संस्थानों में पूरा करने को विवश हैं। समय-समय पर सरकार द्वारा शिक्षा नीति में बदलाव की बाते कही जाती है। किंतु, सच ये है कि किसी भी सरकार ने शिक्षा के सुधार की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है। प्रशिक्षित एवं शिक्षक पात्रता परीक्षा पास करके शिक्षक बनने की राह मुश्किल हो चुका है और अप्रशिक्षित अथवा टाल-मटोल कर जबरदस्ती प्रशिक्षण का डिग्री देकर बिना शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कराए लोगों के हाथों में ही देश का भविष्य सौंपा जा रहा है। इस प्रकार ये सवाल आज भी मन में तैर रहा हैं कि क्या इसी तरह से हमारा भविष्य सुरक्षित हो पाएगा? क्या शिक्षा में गुणवत्ता लाए बगैर ही भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने का अति महत्वाकांक्षी सपना पूरा हो पायेगा?
KKN न्यूज ब्यूरो। दुनिया इस वक्त कोरोना वायरस वायरस से कराह रही है। वैज्ञानिक वैक्सीन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है। इस बीच भारत के मुंबई से एक अच्छी खबर आई है। यहां 90 साल पुरानी एक दवा पर की गई रिसर्च के दौरान कोरोना से फाइट में इसके आरंभिक नतीजे पॉजिटिव बताये जा रहे हैं।
रिसर्च जारी है
मुंबई के हाफकिन इंस्टीट्यूट में रिसर्च की जा रही है। दरअसल, यह एक वैक्सीन है और इसका नाम बीसीजी है। इस वैक्सीन को बनाने में 1908 से 1921 के बीच 13 साल का वक्त लगा था। फ्रैंच बैक्टीरियालॉजिस्ट अल्बर्ट काल्मेट और कैमिल गुरीन ने मिलकर इसे बनाया था। अब तक बीसीजी का इस्तेमाल टीबी के मरीजों के लिये किया जाता है। लेकिन नतीजे बेहतर रहे तो कोविड 19 के खिलाफ भी ये वैक्सीन बड़ा हथियार बन सकता है।
उम्मीद की किरण
मुबंई के हाफकिन इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता लगातार इस पर काम कर रहे हैं। सूत्रों की मानें तो अब तक की रिसर्च में जो टेस्ट किये गये हैं, उसका परिणाम बहुत ही सकारात्मक मिला हैं। शुरुआती रिसर्च में ये बात भी सामने आई है कि बीसीजी वैक्सीन का इस्तेमाल जो लोग करते आये हैं, कोरोना से लड़ने में उनके शरीर की इम्यूनिटी ज्यादा बेहतर साबित हो रही है। इस आधार पर शोधकर्ताओं का मानना है कि बीमारी के चलते ही जिन लोगों ने भी इस वैक्सीन का सेवन किया है, वह कोरोना को हराने में ज्यादा मजबूत साबित हुए हैं। इसलिये शोधकर्ताओं का मानना है कि अगर ये वैक्सीन लोगों की दी जाये तो न सिर्फ कोरोना के लक्षण घटने की उम्मीद है बल्कि उसका असर भी कम हो सकता है।
क्लिनिकल टेस्ट की तैयारी
वैक्सीन पर आगे की रिसर्च तेज करने की तैयारी शुरू हो गई है। वहीं, हाफकिन इंस्टीट्यूट अब बीसीजी वैक्सीन का इस्तेमाल उन लोगों पर भी करने की योजना बना रहा है जो कोरोना संक्रमित हैं। महाराष्ट्र सरकार ने इसके लिए आईसीएमआर और ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया को पत्र लिख कर बीसीजी वैक्सीन पर आगे बढ़ने के लिये परमिशन मांगी है। ताकि, इसका क्लिनिकल टेस्ट किया जा सके।