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  • वक्फ बिल को लेकर बंगाल में तनाव, 3 की मौत, भाजपा ने ममता सरकार पर साधा निशाना

    वक्फ बिल को लेकर बंगाल में तनाव, 3 की मौत, भाजपा ने ममता सरकार पर साधा निशाना

    KKN गुरुग्राम डेस्क | पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में वक्फ कानून को लेकर अचानक हुई हिंसा ने प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी है। ताज़ा रिपोर्ट्स के अनुसार, इस घटना में तीन लोगों की जान चली गई जबकि कई लोग घायल हुए हैं। इस मुद्दे को लेकर अब भाजपा और तृणमूल कांग्रेस (TMC) के बीच तीखी राजनीतिक बयानबाज़ी शुरू हो गई है।

    भाजपा ने ममता बनर्जी सरकार पर “तुष्टीकरण की राजनीति” का आरोप लगाते हुए कहा है कि “बंगाल में हिंदू सुरक्षित नहीं हैं।” वहीं TMC ने हिंसा को “स्थानीय विवाद” बताया है।

    वक्फ बिल: विवाद का मूल कारण क्या है?

    वक्फ एक्ट एक केंद्रीय कानून है जो मुसलमानों द्वारा धर्मार्थ कार्यों के लिए दी गई संपत्तियों के प्रबंधन से संबंधित है। राज्य वक्फ बोर्ड इन संपत्तियों की देखरेख करता है। लेकिन हाल के वर्षों में कई जगह यह आरोप लगे हैं कि वक्फ बोर्ड द्वारा ज़मीन कब्ज़ा किया जा रहा है — वो भी बिना सही दस्तावेज़ों या नोटिस के।

    लोगों की प्रमुख शिकायतें:

    • बिना पूर्व जानकारी के ज़मीन का अधिग्रहण

    • दस्तावेज़ों की पारदर्शिता की कमी

    • धार्मिक असंतुलन और पक्षपात के आरोप

    • सरकार की निष्क्रियता या चुप्पी

    हिंसा का घटनाक्रम

    स्थानीय सूत्रों के अनुसार, जब कुछ लोगों ने वक्फ बोर्ड द्वारा ज़मीन चिन्हित करने का विरोध किया, तब दो समुदायों के बीच कहासुनी शुरू हुई। यह जल्दी ही हिंसक झड़प में बदल गई। हालात इतने बिगड़ गए कि भीड़ ने कुछ घरों में तोड़फोड़ की और आगजनी भी की।

    प्रशासन की पुष्टि:

    • 3 लोगों की मौत हुई है

    • कई अन्य घायल और अस्पताल में भर्ती

    • भारी पुलिस बल और RAF की तैनाती

    • इंटरनेट सेवा अस्थायी रूप से बंद

    • धारा 144 लागू

    भाजपा का तीखा हमला: “ममता सरकार हिंदुओं को असुरक्षित छोड़ रही”

    भाजपा ने ममता बनर्जी सरकार पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि यह हिंसा सरकार की तुष्टीकरण नीति का परिणाम है। पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कहा:

    “वक्फ कानून की आड़ में ज़मीन हड़पी जा रही है और आवाज़ उठाने वालों की हत्या की जा रही है। यह ममता सरकार की नाकामी नहीं, उनकी नीति है।”

    भाजपा ने केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग की है और राज्यपाल से मिलकर न्यायिक जांच की मांग की है।

    टीएमसी का पलटवार: “यह राजनीतिक रंग देने की कोशिश”

    तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा के आरोपों को राजनीतिक चाल बताया है। सरकार का कहना है कि यह स्थानीय स्तर का भूमि विवाद है, ना कि सांप्रदायिक मुद्दा।

    राज्य के गृह विभाग की ओर से जारी बयान में कहा गया:

    “प्रशासन मामले की गंभीरता से जांच कर रहा है। किसी भी संप्रदाय को निशाना नहीं बनाया गया है। विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है।”

    मुर्शिदाबाद की संवेदनशीलता: इतिहास दोहराता है खुद को?

    मुर्शिदाबाद पश्चिम बंगाल का एक धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से संवेदनशील जिला रहा है। यहां पहले भी कई बार सांप्रदायिक तनाव देखे गए हैं। भूमि विवाद, धार्मिक आयोजन और चुनावों के दौरान अक्सर तनाव की स्थिति बनती रही है।

    ग्राउंड रिपोर्ट: डर के साए में जी रहे लोग

     संवाददाता की ग्राउंड रिपोर्ट के अनुसार, घटना स्थल के आस-पास के गांवों में सन्नाटा पसरा है। लोगों में डर है कि कहीं फिर से हिंसा न भड़क उठे। स्कूल, बाजार, और परिवहन सेवा बंद हैं। कई परिवार गांव छोड़कर रिश्तेदारों के घर चले गए हैं।

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने लिया संज्ञान, मांगी रिपोर्ट

    घटना को देखते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से 72 घंटे में रिपोर्ट मांगी है।

    अदालत की टिप्पणी:

    “कानून व्यवस्था बनाए रखना राज्य का कर्तव्य है। यदि वक्फ कानून का दुरुपयोग हो रहा है, तो उसे पारदर्शिता से सुलझाया जाए।”

    राजनीतिक असर: 2026 विधानसभा चुनावों से पहले तनावपूर्ण माहौल

    पश्चिम बंगाल में 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे में धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दे चुनावी रणनीति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। भाजपा इस मुद्दे को “हिंदू विरोधी नीति” के तौर पर प्रचारित कर रही है, वहीं TMC खुद को अल्पसंख्यक हितैषी बताने में लगी है।

    संभावित असर:

    • ग्रामीण वोट बैंक पर असर

    • भाजपा की “हिंदुत्व” राजनीति को बल

    • ममता सरकार पर दबाव बढ़ेगा

    मुर्शिदाबाद में हुई इस हिंसा ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राजनीतिक तुष्टीकरण प्रशासनिक निष्क्रियता से अधिक खतरनाक है? अगर वक्फ कानून का पारदर्शिता से पालन नहीं हुआ, तो भविष्य में इससे और अधिक सांप्रदायिक तनाव पैदा हो सकते हैं।

    प्रदेश और देश के लिए अब ज़रूरी है कि धार्मिक कानूनों की समीक्षा, पारदर्शिता और साम्प्रदायिक सौहार्द को प्राथमिकता दी जाए — ताकि फिर किसी निर्दोष की जान ना जाए।

  • पश्चिम बंगाल में वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 पर विवाद: ममता बनर्जी का विरोध और राज्य में उभरता तनाव

    पश्चिम बंगाल में वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 पर विवाद: ममता बनर्जी का विरोध और राज्य में उभरता तनाव

    KKN गुरुग्राम डेस्क | पश्चिम बंगाल में वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को लेकर राजनीतिक और सामाजिक तनाव बढ़ता जा रहा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कानून को राज्य में लागू न करने की घोषणा की है, जबकि राज्य के विभिन्न हिस्सों में इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं।

    वक्फ संशोधन अधिनियम 2025: एक परिचय

    वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को हाल ही में संसद के दोनों सदनों से पारित किया गया और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद इसे कानून का दर्जा मिला। यह अधिनियम वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन और निगरानी में सुधार के उद्देश्य से लाया गया है, जिससे वक्फ बोर्डों की पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़े।

    ममता बनर्जी का विरोध

    मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस अधिनियम के खिलाफ खुलकर विरोध जताया है। उन्होंने कहा है कि यह कानून राज्य के अल्पसंख्यक समुदाय की संपत्तियों के अधिकारों को कमजोर करता है और उनकी सरकार इसे पश्चिम बंगाल में लागू नहीं होने देगी। बनर्जी ने जैन समुदाय के एक कार्यक्रम में कहा, “मैं अल्पसंख्यक समुदाय और उनकी संपत्तियों की रक्षा करूंगी।”

    संवैधानिक प्रावधान और राज्यों की भूमिका

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 के तहत संसद को कानून बनाने का अधिकार है, और वक्फ एक समवर्ती सूची का विषय है। इसका अर्थ है कि केंद्र और राज्य दोनों इस पर कानून बना सकते हैं, लेकिन यदि कोई टकराव होता है, तो केंद्रीय कानून को प्राथमिकता दी जाती है। अनुच्छेद 254 के अनुसार, केंद्रीय कानून राज्य कानूनों पर वरीयता रखते हैं, और अनुच्छेद 256 के तहत राज्य सरकारें केंद्र के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य हैं।

    मुर्शिदाबाद में हिंसा और विरोध प्रदर्शन

    मुर्शिदाबाद जिले में वक्फ अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए हैं। प्रदर्शनकारियों ने रेलवे ट्रैक पर कब्जा कर लिया, ट्रेनों पर पथराव किया और पुलिस पर हमला किया, जिससे कई पुलिसकर्मी घायल हो गए। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए बीएसएफ के जवानों को तैनात किया गया है।

    सिद्दीकुल्ला चौधरी की भूमिका

    राज्य के लाइब्रेरी मंत्री और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रदेश अध्यक्ष सिद्दीकुल्ला चौधरी इस विरोध आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने कोलकाता में एक रैली में कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो वे कोलकाता में बड़े पैमाने पर ट्रैफिक जाम करेंगे। चौधरी ने यह भी कहा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें आश्वासन दिया है कि यह कानून राज्य में लागू नहीं किया जाएगा।

    राजनीतिक प्रतिक्रियाएं

    भाजपा ने ममता बनर्जी पर आरोप लगाया है कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं और राज्य में अराजकता फैला रही हैं। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने कहा, “बंगाल को अराजकता और आग में झोंका जा रहा है।”

    वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 पर पश्चिम बंगाल में जारी विवाद ने राज्य और केंद्र सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर दी है। जहां केंद्र सरकार इस कानून को लागू करने पर जोर दे रही है, वहीं राज्य सरकार और कुछ मुस्लिम संगठन इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। आने वाले दिनों में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि यह विवाद किस दिशा में जाता है और इसका राज्य की राजनीति और सामाजिक समरसता पर क्या प्रभाव पड़ता है।

  • पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा के मायने

    पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा के मायने

    ब्रिटिसकाल से चली आ रही है हिंसा की परिपाटी

    KKN न्यूज ब्यूरो।  पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है। ब्रिटिस शासन के दौरान भी यहां राजनीतिक हिंसा के कई प्रमाण मिले है। अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 1905 में तात्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन का निर्णय लिया था। फैसले का पुरजोर विरोध हुआ। इस दौरान बंगाल में कई स्थानो पर हिंसक घटनाएं हुई। यह सिलसिला आजादी मिलने तक और उसके बाद भी कमोवेश जारी है।

    मानस की जड़ में है जुनून

    पूर्वी हिमालय और बंगाल की खाड़ी के बीच बसे पश्चिम बंगाल में कई खुबसूरत बादियां है। यहां के चाय बागानों की ताजगी और सुंदरवन की विविधता भी है। धार्मिक और सांस्कृतिक तौर पर यह समृद्ध राज्य रहा है। वहीं, राजनीतिक रूप से यह इलाका बेहद ही संवेदनशील माना जाता है। जानकार बतातें हैं कि बंगाल की राजनीति का उग्रवाद से गहरा रिश्ता रहा है। क्रांति और जुनून राज्य के मानस में समाहित है। इतिहास के पन्ना को पलटने पर स्वतंत्रता आंदोलन में खुदीराम बोस और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम बड़ा ही सम्मान के साथ लिया जाता है। दोनो को आजाद भारत में आक्रामक राजनीति का पुरोधा माना जाता है। आज़ादी के दिनो में भी बंगाल सुलग उठा था। हालात इतनी बिगड़ गई कि स्वयं महात्मा गांधी को यहां आना पड़ा। हालांकि, इसके बाद शुरुआती कुछ वर्षो तक बंगाल शांत रहा।

    नक्सलबाड़ी से आई नई दिशा

    हालांकि, 1960 के दशक में यहां नक्सलबाड़ी आंदोलन ने राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ दिया। बंगाल की राजनीति ने फिर से हिंसा की राह पकड़ ली। गौरकरने वाली बात ये है कि नक्सलबाड़ी से उठी हिंसा की लपटो का सर्वाधिक खामियाजा उस दौर के कॉग्रेसियों को भुगतना पड़ा। उस दौर में पश्चिम बंगाल की सत्ता पर कॉग्रेस का कब्जा था। शुरूआत में कॉग्रेस ने नक्सलवाद के खिलाफ नरम रुख अख्तियार कर लिया और नक्सलवाद की आग पश्चिम बंगाल से निकल कर देश के दुसरे राज्यों तक फैलता चला गया।

    घुसपैठ भी है बड़ी समस्या

    उधर, पूर्वी बंगाल जो अब पूर्वी पाकिस्तान बन चुका था। पाकिस्तानी सैनिको के आतंक से कराह रहा था। महिलाओं की अस्मतरेजी और पुरुषो को सूली पर चढ़ाने की घटनाएं आम हो गई थीं। पूर्वी पाकिस्तान के लोग जान बचा कर पश्चिम बंगाल आने लगे। नतीजा, यहां शरणार्थियों की समस्या बिकराल रूप धारण करने लगा। हालात इतने बिगड़ गए कि 1971 में भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र देश होकर बांग्लादेश बन गया। बावजूद इसके अधिकांश शरणार्थी आज भी पश्चिम बंगाल के लिए सिरदर्द बना हुआ है। शुरू में कॉग्रेस, फिर वामपंथ और हालिया वर्षो में टीएमसी की सरकार ने इन समस्याओं से आंख मूंदे रहना बेहतर समझा। शरणार्थियों की यही सतस्या वर्तमान की मौजू बन कर करबट बदलने को बेताब है।

    विलय हुआ विकास नहीं

    बात सिर्फ शरणार्थियों की नहीं है। बल्कि, इससे पहले वर्ष 1950 में कूच बिहार और 1955 में फ़्रांस के अधीन रहने वाला चंदननगर का पश्चिम बंगाल में विलय किया जा चुका है। लेकिन कालांतर में इस भूभाग को वह दर्जा नहीं मिला। जिसका इसे दरकार था। उस दौर में बंगाल की राजनीति में कॉग्रेस की तुती बोलती थीं। हालांकि, 60 का दशक खत्म होने से पहले ही बंगाल कांग्रेस में मतभेद के स्वर भी उभरने लगा था। कॉग्रेस दो खेमो में बट चुकी थीं। अतुल घोष और प्रफुल चंद्र सेन का एक खेमा था। वहीं, प्रफुल्ल चन्द्र घोष, अरुण चंद्र गुहा और सुरेंद्र मोहन बोस दूसरे गुट के नेता माने जाते थे। दुर्भाग्य से अजय मुखर्जी के नेतृत्व में कॉग्रेस का तिसरा खेमा भी मुखर होने लगा था।

    कॉग्रेस की आंतरिक कलह

    कहतें है कि साल 1967 से 1980 के बीच पश्चिम बंगाल की राजनीति में कई बदलाव हुए। अव्वल तो लोग नक्सलवाद के हिंसक आंदोलन से उबने लगे थे। दूसरी ओर राज्य में बिजली का संकट गहराने लगा। इधर, मजदूर यूनियन ने आक्रामक रूख अख्यतिया कर लिया था। इससे आय रोज हड़तालें होने लगी। लम्बी चली हड़ताल की वजह से अधिकांश कल-कारखाना बंद हो गया या बंदी के कगार पर पहुंच गया। इसका जन जीवन पर गहरा असर पड़ा और लोगो के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। यह वो दौड़ था, जब बंगाल में आर्थिक गतिविधियां लगभग थम सी गई। इस बीच पश्चिम बंगाल में चेचक ने महामारी का रूप धारण कर लिया था। लोग बुनियादी सुबिधाओं को तरस रहे थे। इधर, सत्तारुढ़ कॉग्रेस अपनी आंतरिक कलह को सुलझाने में लगी हुई थीं। हालांकि, कॉग्रेस को इसमें सफलता नहीं मिली और बंगाल कांग्रेस में दरार पड़ गई। अजय मुखर्जी के नेतृत्व में कॉग्रेस का तिसरा खेमा बगावत पर उतारु हो गया। गैर कांग्रेस दलों को एक साथ लाने का प्रयास विफल होने के बाद। अब पश्चिम बंगाल की राजनीति तीन धरा में बंट चुकी थीं। अजय बाबू के नेतृत्व में पीपल्स यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट यानी पी.यू.एल.एफ का गठन हुआ। वहीं, ज्योति बसु के नेतृत्व में यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट यानी यू.एल.एफ का गठन हुआ। अभी भी तिसरे धरा का नेतृत्व कांग्रेस के हाथो में ही थीं। विधानसभा का चुनाव हुआ और इस चुनाव में पी.यू.एल.एफ को 63 और यू.एल.एफ को 68 सीटें प्राप्त हुईं। चुनाव के बाद ये दोनों दल 18 सूत्रीय कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत एक साथ आ गए और अजय बाबू के नेतृत्व में सरकार बन गई। इसको बंगाल की राजनीति का टर्निंग प्वाइंट कहा जाता है।

    राजनीतिक अस्थिरता

    हालांकि, आंतरिक कलह की वजह से अजय बाबू की सरकार ठहर नहीं पाई। आठ महीने बाद बांग्ला कांग्रेस के नेतृत्व में यूनाइटेड फ़्रंट ने सत्ता संभाली। यह सरकार भी नहीं चली। इसके बाद तीन महीने तक प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक गठबंधन ने सरकार चलाई। राजनीतिक अस्थिरता के बीच फ़रवरी 1968 से फ़रवरी 1969 तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। इसके बाद फिर फ़रवरी 1969 से मार्च 1970 तक बांग्ला कांग्रेस ने सत्ता संभाला। किंतु, सरकार चला नहीं सके और फिर से राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। यानी पश्चिम बंगाल की राजनीति में अस्थिरता का अंतहीन दौर शुरू हो चुका था। बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव होने लगा था। बंद पड़े कारखाना को छोर कर बड़ी संख्या में उद्दोगपति पश्चिम बंगाल से पलायन करने लगे थे। इसका सर्वाधिक खामियाजा युवाओं को भुगतना पड़ा। रोजगार के साधन बंद होने से बेरोजगारी काफी बढ़ गई। लोगो में असंतोष गहराने लगा।

    वामपंथ का उदय

    इन्हीं कारणो की वजह से 1977 आते- आते राज्य में कांग्रेस का प्रभुत्व खत्म होने लगा था और सत्ता वामपंथियों के हाथ में चली गयी। हालांकि, पश्चिम बंगाल की राजनीति में राजनीतिक हत्याओं का दौर बदस्तुर जारी रहा। वामपंथ के सत्ता में रहते हुए राजनीतिक हत्याओं में और बढ़ोतरी हो गई। तीन दशक से अधिक के शासनकाल में बंगाल के लोग कराह उठे थे। कहतें हैं कि शुरुआती वर्षों में वामपंथी सरकार ने राज्य में भूमि सुधारों को लागू करने और ग्रामीण इलाकों में ढ़ाचागत सुविधाओं को मजबूत करने की भरपुर कोशिश की। किंतु, इससे बंगाल का समाजिक तानाबाना टूटने लगा और टकराव शुरू हो गया। यहीं से विपरित विचारधारा को कुचलने के लिए वामपंथियों ने सत्ता संपोषित हिंसा का सहारा लेना शुरू कर दिया।

    अर्थव्यवस्था का उदारीकरण

    इस बीच 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की शुरूआत हो चुकी थीं। वामपंथी इसको समझ नहीं सके। जाहिर है, इसका सर्वाधिक खामियाजा वामपंथियों को ही भुगतना था। उदारीकरण के बाद वामपंथ की धारा का कमजोर पड़ना स्वाभाविक था। काडर बेरोजगार हो गए और पश्चिम बंगाल में हिंसा का दौर एक बार फिर से शुरू हो गया। ग्रामीण बंगाल में तो हिंसा जैसे रोज़मर्रा की बात हो गई थीं। यहीं से बंगाल के लोग वामपंथ की सरकार से उबने लगे। हालांकि, अभी उनके पास मजबूत बिकल्प नहीं था। इधर, बिकल्प बनने की कस-मकस के बीच उम्मीद बन कर ममता बनर्जी बंगाल की राजनीति में अपना पांव जमा रही थीं। ममता बनर्जी के राजनीतिक करियर में कई उतार-चढ़ाव आए। पर, उनके शुरुआती राजनीति पर गौर करें तो साल 1984 को भूला नहीं जा सकता है। उस वर्ष लोकसभा का चुनाव होना था और ममता बनर्जी ने सीपीएम के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान करके सभी को चकित कर दिया। जाधवपुर को सोमनाथ चटर्जी का गढ़ माना जाता था। किंतु, अटकलो पर विरोम लगाते हुए ममता बनर्जी ने जाधवपुर में वामपंथ के कद्दावर नेता सोमनाथ चटर्जी को पराजित करके सांसद बन गई। ममता बनर्जी के आक्रामक राजनीति की यही टर्निंग प्वाइंट माना जाता है।

    ममता की आक्रामक राजनीति का असर

    ममता बनर्जी के बारे में बंगाल में एक आम धारणा है कि वह आक्रामक राजनीति में भरोसा करती है। वर्ष 1991 का एक वाकया सुनाता हूं। ममता बनर्जी उस वक्त प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार में खेल मंत्री थीं और कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में एक रैली को संबोधित करते हुए अपनी ही सरकार पर खेल करने का आरोप मढ़ दिए। ममता बनर्जी यही नहीं रुकी। मंच से खुलेआम इस्तीफा का ऐलान करके कॉग्रेस को बैकफुट पर ला कर खड़ा कर दिया। ममता बनर्जी के आक्रामक राजनीति का एक और मिशाल साल 1996 में देखने को मिला। तब दीदी ने कांग्रेस को सी.पी.एम की कठपुतली बता कर कॉग्रेस से अलग हट गई और त्रिणमूल कॉग्रेस का गठन कर लिया। दीदी की आक्रामक शैली को लोग पसंद करने लगा था। लोगो को लगा कि वामपंथियों के आक्रामकता का जवाब दीदी दे सकती है। इस बीच ममता ने अटल बिहारी वाजपेयी से हाथ मिला लिया और रेल मंत्री बन गयी। लेकिन एनडीए के साथ दीदी की जोड़ी जमी नहीं। साल 2001 में वह सरकार से अलग हो गयी।

    सिंगूर से सीएम की कुर्सी तक

    ममता ने एक बार फिर से कांग्रेस का दामन थामा और 2004 का लोकसभा और 2006 का विधानसभा चुनाव लड़ा। किंतु, उन्हे मुहकी खानी पड़ी। उन दिनो राजनीति के गलियारे में ममता की मर्सियां पढ़ी जाने लगी थीं। लोगो को लगा कि ममता बनर्जी अब कुछ नहीं कर पायेगी। इस बीच दीदी के पॉलिटिकल कैरियर में एक और टर्निंग आया। वर्ष 2007 से 2011 तक पश्चिम बंगाल राजनीतिक हिंसा की आग में झुलस कर कराहने लगा था। एक के बाद एक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या का दौड़ शुरू हो गया। आरोप- प्रत्यारोप को राजनीति के चश्मे से देखा जाता रहा था। इधर, लोग मरते रहे। इसी आपाधापी के बीच बंगाल के सिंगूर में टाटा का नैनो प्रोजेक्ट आ गया। ममता बनर्जी ने नैनो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। नंदी ग्राम में औद्योगिकरण के नाम पर किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण के मामले को ममता ने हवा दी। देखते ही देखते बड़ा आन्दोलन शुरू हो गया। किसान और मजदूर दोनो ममता के नेतृत्व में गोलबंद होने लगे। नतीजा, टाटा को बंगाल छोर कर भागना पड़ा। सिंगूर और नंदीग्राम की सफलता ने ममता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया।

    वामपंथ का पतन

    ममता बनर्जी को इसका राजनीतिक लाभ मिलना तय था। हुआ भी यही। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में त्रिणमूल ने बंगाल की राजनीति में अपनी जड़े मजबूत कर ली। दो साल बाद 2011 में विधानसभा चुनाव होने थे। ममता ने मां,माटी और मानुष का नारा दिया। लोग गोलबंद होने लगे। वामपंथ की चूले हिल गई। 34 सालों से चली आ रही वामपंथ की सरकार का पतन हो गया। सत्ता हासिल करने के बाद तृणमूल ने अपना पुराना रवैया जारी रखा। जनता को डराने के लिए हिंसा का सहारा थमने की जगह और बढ़ गया। जाति और पहचान की राजनीति को बढ़ावा देकर ममता बनर्जी ने अपनी ताकत बढ़ाई। पंचायत का चुनाव जीतने के लिए खुल कर हिंसा का सहारा लिया गया। यानी जिन कारणो से उब कर लोगो ने वामपंथ की सरकारे बदली थीं। उसको अब त्रिणमूल ने अपना  लिया। कहतें है कि बंगाल आज भी राजनीतिक हिंसा के बीच कराह रहा है।

    बंगाल का चुनावी संकेत

    अब कालचक्र का खेल देखिए। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में त्रिणमूल को बीजेपी से बड़ा झटका मिला। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बंगाल की एक मशहूर कहावत को नारा बना दिया। बंगाल की वह मशहूर कहावत है- करबो, लरबो और जितबो। करबो, लरबो और जितबो का नारा बुलंद करके बीजेपी ने बंगाल में 2 से बढ़ कर लोकसभा की 22 सीटो पर कब्जा कर लिया। पहली बार बंगाल की राजनीति में दीदी के आभामंडल को लोगो ने फिका होते हुए देखा। कहने वाले तो यहां तक कहने लगे कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में सेंध नहीं लगाई है। बल्कि किले के काफी अंदर तक कब्जा कर लिया है। टीएमसी के कई विधायक और पार्षद बीजेपी में शामिल हो चुकें हैं। दूसरी ओर राजनीतिक हिंसा का सिलसिला आज भी बदस्तुर जारी है। कहतें है कि हिंसा की राजनीति से लोग उब चुकें है। ऐसे में 2021 का विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल की राजनीति को नई दिशा दिखा दे तो आश्चर्य नहीं होगा।